हिंदी: संभावनाओं की भाषा -: सेवाराम त्रिपाठी

हिंदी को लेकर आजकल गहन चिंता व्यक्त की जा रही है। उसके व्याकरणिक पहलुओं को उजागर किया जा रहा है। भाषा कोई भी हो उसे हमें हर हालत में बचाना चाहिए। जिस तरह देश की आज़ादी और जनतंत्र होता है, उसी तरह भाषा की आज़ादी और जनतंत्र भी होता है। भाषा हमारी अस्मिता है, हमारी मां है। भाषा हमारा हँसना-बोलना-बतियाना, खेलना- कूदना, रोना – गाना, पढ़ना-लढ़ना, लड़ना- भिड़ना-जूझना यानी समग्र जीवन है। जो कोई जहां जन्मा और भाषा सीख, वह उसके लिए उसकी मां की तरह ही होती है।

भाषा का एक ही चेहरा नहीं होता। उसके अनगिन चेहरे भी होते हैं। अपनी भाषा को प्यार करें और दूसरे की भाषा को मान्यता न देकर ख़त्म करने की साज़िश रचते रहें, यह यकीनी तौर पर बेहद घटिया और घृणित काम है। हम सभी भाषाओं से प्यार करते हैं। यही बात धर्म के बारे में भी है। अपने धर्म को मानें और दूसरे के धर्म की आलोचना करें, खिल्ली उड़ाते रहें, यह किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। उसको नीचा दिखाते रहें यह घनघोर आपत्तिजनक और लज्जास्पद काम है। भाषा के बारे में हमें उदार हृदय से सोचना होगा, सेक्टेरियन ढंग से नहीं।

हिंदी संस्कृत का रिश्ता व्यापक तौर पर मां बेटी का रिश्ता माना गया था जो सच नहीं है। वह न तो उर्दू की शत्रु है और न अंग्रेज़ी की सेविका। इस दौर में उसका रिश्ता आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता से भी है। हिंदी आधुनिकता के तमाम स्वरूपों को लेकर चलती है। संचार माध्यमों की दिशाओं में उजाले की तरह प्रसरित होती है। वह एक विशेष संदर्भ में एक अनूठी भाषा का रूप धारण कर चुकी है, जिसका विशाल फलक, सुचिंतित दृष्टि और व्यापक परिसर है। वह जितनी आधुनिकता के साथ है उतनी ही संचार माध्यमों के साथ है। उसमें परंपरा और आधुनिकता का जबर्दस्त द्वंद्व भी है।

उसकी बहुत बड़ी ताक़त हैं उसके कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली लोकबोलियां। ये लोक बोलियां हिंदी की प्राण वायु हैं।उसका मुहावरों, लोकोक्तियों और लोक की गंध में रमना, उसका जीवंत रिश्ता देशी-विदेशी भाषाओं से भी है। संचार माध्यमों ने उसे पूरी दुनिया में विस्तारित किया है, समूची खिड़कियां दरवाजे खोल दिए हैं, किन्हीं को उसका विकास असंदिग्ध लग सकता है, यह एक अलग मसला है। उस मनोविज्ञान का कोई क्या कर सकता है?

हिंदी प्यार की भाषा है और सबके साथ कनेक्ट होकर चलने की भाषा है. उसका किसी से कोई द्वैत नहीं है. फिर भी कुछ महारथी शुद्धता को लेकर, व्याकरण बद्धता को लेकर टकराने की बातें करते रहते हैं. राजेश रेड्डी को याद कर रहा हूं…

 "आंखों को दर पे रखके तिरे इंतिज़ार में, रह-रहके घर की चीज़ों से टकरा रहे हैं हम''

देश दुनिया के परम आधुनिक विचार हिंदी की सीमाओं में हैं। अनुवादों ने दुनिया के अनुभव, ज्ञान विज्ञान , प्रौद्योगिकी और टेक्नोलॉजी से उसे जोड़ा है. हिंदी सब कुछ समो कर चलती है या उसमें ऐसी अपार क्षमता विकसित भी हुई है और उसमें विस्तार की अनंत संभावनाएं उपजी भी हैं। हिंदी ग्लोबल भाषा बन रही है। वह किसी सत्ता व्यवस्था के भरोसे भी नहीं है। सुधीश पचौरी का कहा महत्त्वपूर्ण लगता है -:

“सदियों बाद इस उपमहाद्वीप को एक ऐसी भाषा नसीब हुई है जिसमें श्रीलंका से लेकर खाड़ी के देशों तक संचार संभव हुआ है।.. इसे देखकर शुद्धतावादी चित्त और शुद्धतावादी वैयाकरण रोते हैं तो क्या करें? यह श्रव्य और वाच्य भाषा है। इससे जीवन चलता है। बाज़ार की शक्तियों और उनके सहयोगी माध्यम टीवी ने यह मसला सुलझा दिया है कि कौन सी भाषा जन-संचार में सक्षम है। जो सक्षम है, वह बड़ी भाषा है। यह हिंदी है जिसे वर्णसंकर, भ्रष्ट और हिंग्रेजी कह सकते हैं।”

हिंदी नई चाल में ढली, एक पुनर्विचार

मेरी निगाह में यह दौर अब किसी भी प्रकार की परम शुद्धता का दौर नहीं है लेकिन परम क्षुद्रताएं, नीचताएं और संकीर्णताएं लगातार उपज रही हैं। भाषा,राजनीत,साहित्य और अन्य माध्यमों में कितनी नैतिकता और मूल्य बचे हैं? जो लोग सोचते हैं की भाषा एक स्तूप है, वे गलती कर रहे हैं। मुझे अक्सर ऐसा लगता है कि यह उनका सीमित सोच और संकीर्णतावादी मनोविज्ञान है। भाषा का जीवंत रिश्ता समाज, संस्कृति, राजनीति और अन्य माध्यमों से भी है। व्याकरण कभी भी हमारे समाज में हो रहे परिवर्तनों की व्याप्ति को, भाषा में हो रहे व्यापक परिवर्तनों को कुछ समय के लिए ठीक कर सकता है लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए नहीं। क्योंकि आम लोग व्याकरण और मानकों के उस बहाव को बार-बार तोड़ दिया करते हैं,क्योंकि भाषा तो बहता नीर है। उसकी गति बड़ी तेज़ है। हां, व्याकरण उसकी अशुद्धियों को संयोजित करने की कोशिश ज़रूर करता है। व्याकरण की अनंत तहें और संभावनाएं भी होती हैं। उसके अनंत रूपाकार हैं।

भाषा के विस्तार को आम आदमी के मनोसंसार को व्याकरण कभी भी पूरी तरह संयोजित नहीं कर सकता। उसकी ऐसी हैसियत है भी नहीं। हां,उसका प्रयास अवश्य करता है. यह एक सुविचारित प्रक्रिया और कोशिश ज़रूर होती है। समाज-राजनीति-संस्कृति और अन्य चीज़ें आपस में जुड़ी हुई हैं,बल्कि वे आपस में गुंथीं-विंधी हैं। जिनका रिश्ता एक दूसरे सेव्यापक तौर पर है और वे एक दूसरे को सतत प्रभावित भी करती रहती हैं। उद्वेलित भी करती हैं। भाषा के सिलसिले में उद्वेलन की जबर्दस्त भूमिका भी होती है।

मुझे याद आया, जब मैं पढ़ता था तो हमारे शिक्षक व्याकरण के संबंध में कितने वैज्ञानिक तरीके सी चीज़ें समझाते थे। कितनी मेहनत करते थे। उन सभी का ध्यान व्याकरण की एक-एक सिंफनी की तरफ़ हुआ करता था। वाकई क्या अब इस तरह की स्थिति है? सरकारी और गैर सरकारी इलाकों में व्याकरण संज्ञान के अलग-अलग संसार हैं। तब भाषा का बहुत ध्यान रखा जाता था और व्याकरण की ओर हमारा रुझान पैदा किया जाता था। अब तो एक तरह का भेड़िया धसान फैला है। पूरे बड़े बाज़ार में आपको टाइप के कमाऊ पूत तो मिल जाएंगे लेकिन असली टाइप करने वाले जानकार बड़ी मुश्किल से मिल पाएंगे।आधुनिकता की चपेट में भाषा और व्याकरण का ज्ञान बहुत बड़ी चुनौती है। हम बहुत जल्दी में सब कुछ पा लेना चाहते हैं। वह बेहद जानकारी और विस्तृत ज़िम्मेदारी के बिना संभव नहीं है.

व्याकरण के प्रति हमारा रवैया अनुत्साहित करने वाला है. पुख़्ता ज्ञान तो एकदम मुश्किल है ही। एक तरह की लापरवाही बरती जा रही है. उर्दू के नुक्ते भी रो रहे हैं। क़, ख़, ग़, ज़, फ़ की समस्या है। विराम चिह्नों का रोना है। पहले जो किताबों में छपता था उसे अत्यंत प्रामाणिक माना जाता था यानी शुद्ध। अब ऐसा नहीं है, आप वहां भी निश्चितऔर निश्चिंत नहीं हैं। निश्चित तो गूगल भी नहीं करने देता! हर आदमी ज्ञान गंगा बहा रहा है। देवनागरी लिपि के अधिनियम लागू हैं लेकिन कितनों तक वे पहुंच पाए हैं?

मानकीकरण चिल्लाने से मानकीकरण की समस्या से छुटकारा नहीं मिल सकता। यह क्षेत्र तपस्या, साधना, सतर्क और सतत सावधान रहने की दुनिया का है। आधुनिकीकरण समय, समाज, राजनीति, धर्म और विज्ञान में भी होता है। दुनिया रोज़-रोज़ बनती और बदलती रहती हैं। उसी के अनुरूप भाषा और उसके व्यावहारिक रूपों में फेर बदल हुआ करते हैं। इसलिए भाषा को एक स्तूप रूप में विकसित मानकर उसे अन्य चीज़ों से अलगा दें। यह मुझे किसी भी तरह संभव नहीं दिखता।


परिवर्तन होते रहते हैं लगातार, ‘चीज-चीज़’ में और ‘फर्क में भी फ़र्क’ है उनके अलग-अलग अर्थ हैं। ‘ज्यादा-ज़्यादा’ में फ़र्क है। उसी प्रकार ‘चिन्ह-चिह्न’ में फ़र्क है। व्याकरण बहुत बारीक मुद्दे उठाता है जो सुविधा के नहीं हैं बल्कि हमारे पूरे होशो हवास के हैं।

मुझे लगता है कि हिंदी का शब्द भंडार बहुत बड़ा है। उसमें संस्कृत से लेकर विदेशी भाषाओं, देशी भाषाओं-प्रांतीय भाषाओं के अनेक शब्द हैं। बोलियों के शब्द हैं लेकिन उनकी समूची प्रकृति या स्वभाव या संस्कृति को यदि नहीं अपनाया गया तो सब गड़बड़ हो जाता है। सामान्य आदमी की दुनिया में उसके कई-कई रूप प्रचलित हो गए हैं. उसमें ज्ञान-अज्ञान का समाजशास्त्र काम कर रहा है। स्वर लहरियां ,व्यंजन संसार ही नहीं बल्कि वाक्यों में समाया अर्थ संसार कम रोचक नहीं है. शब्दों की पूरी संभावना और यात्रा की ख़ोज शब्दकोशों में भी नहीं घेरी जा सकती। फिर प्रचलित शब्दों की दुनिया, कम प्रचलित शब्दों का संसार और कभी-कभार प्रयोग में लाए जाने वाले शब्द भी हैं।

संस्कृत-उर्दू, मराठी, अरबी-फ़ारसी-बांग्ला, मलयालम, कन्नड़, तमिल- तेलगू और देश की अन्यान्य भाषाओं का संसार है। विदेशी भाषाओं की रचनात्मकता की दुनिया है। उन्हें कोई कैसे अलगा सकता है? ज्ञान की शेखी बघारने से एक दूसरे को नीचा दिखाने से भी हम जी जान से जुटे हैं।

एक उदाहरण गजल का है। ”गज़ल” भी लिखा जा रहा है और शुद्ध ”ग़ज़ल” भी कोई-कोई लिख रहे हैं। लेकिन जानकार ही लिख पाते हैं, अधकचरे नहीं। हमें भाषा के सिलसिले में खूंटों में बंधकर नहीं सोचना चाहिए। शुद्धता और पवित्रता भी एक अभूतपूर्व खूंटा है। यही नहीं राष्ट्रवाद का भयानक उफान भी एक विशेष प्रकार का खूंटा है ,जो हमें उन्मुक्त ढंग से सोचने समझने लायक नहीं छोड़ता।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसकी संवेदनशीलता अकूत है। जिसकी व्यापकता का कोई ओर छोर नहीं है। उसमें समय, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों के साथ नए कांसेप्ट, नए ज़माने के शब्द बिना किसी हिचक के, बेखटके, बेधड़क और बिना किसी शंका के निर्भय होकर आ रहे हैं। इससे उसकी असलियत में पहुंच और समृद्धि में भरपूर इज़ाफ़ा हुआ है।

अरविंद कुमार ने एक बातचीत में बताया है कि-:

”आपको आश्चर्य होगा कि अंग्रेजी में अधिकतर तारों के नाम अरबी से लिए गए हैं। हिंदी के शब्दों की उसमें भरमार है। यही खूबी हमारी हिंदी में भी है। पिछली सदियों में हमने हर भाषा से शब्द लिए, अब बढ़ते विश्व संपर्क के कारण और एकाएक तकनीकी विस्फोट के कारण यह प्रक्रिया और भी तेज़ हो गई है। स्वाभाविक है कि कुछ लोग इसे महापतन मानेंगे। पर, यही आज की बोलचाल की भाषा है।”

हिंदी के विकास और परिवर्तन के सिलसिले में हमें निरंतर सोचना विचारना है। इस बहस को जारी रखना है ताकि हम हिंदी की संभावनाओं को वास्तविकताओं को और उसके विस्तार को बहुत खुलकर अनुभव करें और देख सकें कि हिंदी की विचार परंपरा और विकास परंपरा का, संभावनाओं का दायरा निरंतर पढ़ रहा है तो उतने उत्कट और विकट प्रश्न भी बढ़ रहे हैं। दक्षिणवर्ती मनोविज्ञान और सोच के इलाकों में हिंदी को लेकर जिस तरह की संकीर्णता पनप रही है, वह घातक है और अत्यंत नफ़रत की चीज़ है। उससे हमें बचना भी है। हिंदी की उदारता को भारतीयता की उदारता से जोड़ना भी है।

हिंदी की भीतरी संरचनाएं उसकी बाहरी संरचनाएं आपस में मुठभेड़ करती हैं तो उसके नए-नए कपाट खुलने लगते हैं। हम हिंदी की हैसियत, वास्तविकता और रचनात्मक संभावनाओं के फलक खोलते चलें तो हिंदी का रिश्ता बाज़ार, आधुनिकता, मुक्ति, जीवन और भविष्य की अनिवार्यताओं से जुड़ता रहेगा। भारतीय जीवन में जो द्वैध पनप रहा है उससे भी छुटकारा मिल सकेगा। भारत की भाषाई विविधता कई तरह के रेखांकन करती रहती है। उसे भाषाओं के प्यार से जोड़ना तो है ही। उसे दूसरी भाषाओं के सम्मान से विभूषित भी करना है। हिंदी भेदभाव की भाषा नहीं है और उसे हिंदुओं की भाषा के रूप में देखा जाए।

हिंदी दिवस के अवसर पर यह लेख मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ‘आचार्य नंद दुलारे बाजपेयी’ पुरस्कार से सम्मानित सेवानिवृत शिक्षाविद ”सेवाराम त्रिपाठी” के द्वारा लिखा गया है. मध्य प्रदेश रीवा के निवासी, श्री त्रिपाठी के सैकड़ों लेख और कविताएं दर्जनों अख़बारों में प्रकाशित हुई हैं और होती रहती हैं. इन्होने, बघेली; अंतरंग और बहिरंग, कमला प्रसाद: व्यक्ति और सर्जक, अंधेरे के ख़िलाफ़, स्मरण में आज जीवन जैसी कई रचनाएं संपादित की हैं. श्री त्रिपाठी हिंदी भाषा और व्याकरण की खासी समझ रखते हैं. सेवाराम त्रिपाठी इस दौर में समय, समाज, मीडिया, और हिन्दी आलोचना जगत का एक प्रतिष्ठित नाम हैं.

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