हिन्दी साहित्य की पत्रकारिता :- जयराम शुक्ल 

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था– ”पत्रकारिता अल्पकालिक साहित्य है और साहित्य दीर्घकालिक पत्रकारिता”। साहित्य और पत्रकारिता के परस्पर संबंधों को लेकर इससे बेहतर और कोई व्याख्या हो नहीं सकती।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्वयं एक यशस्वी संपादक रहे हैं। 1942 में आचार्य द्विवेदी ने शान्तिनिकेतन से ‘विश्वभारती पत्रिका’ निकाली,1947 तक इसका संपादन करते रहे। द्विवेदी जी के संपादन में उस पत्रिका ने रवीन्द्र साहित्य से हिन्दी जगत को परिचित कराया। पत्रिका के प्रवेशांक की संपादकीय में उन्होंने लिखा- देश आज किस प्रकार नाना भाँति की संकीर्णताओं का शिकार बनता जा रहा है उससे रक्षा पाने का सर्वोत्तम उपाय साहित्य ही है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने द्विवेदी जी के बारे में कहा था- उनका ज्ञान हम पाँच सौ वर्षों में भी सीख पाएंगे कहना कठिन है। टैगोर ने यह टिप्पणी इसलिए की थी क्योंकि द्विवेदीजी ने भारतीय दर्शन, अध्यात्म, साधना, इतिहास संस्कृति और कला को घोख ड़ाला था और भारतीय ज्ञान परंपरा का द्विवेदी जी ने अपने साहित्य व साहित्यिक पत्रकारिता में जितना जितना समर्थ उपयोग किया उतना किसी ने नहीं।

एक सा चरित्र होते हुए भी पत्रकारिता और साहित्य के लक्ष्य को लेकर प्रेमचंद ने हंस की प्रकाशन उद्घोषणा को लेकर लिखा- “यह हंस मान सरोवर के मोती चुगना छोड़कर आजादी के अंगारों को अपनी चोंच में दबाए खौलते सागर में तैरने जा रहा है” इस टिप्पणी को लेकर सुप्रसिद्ध समालोचक डा. धनंजय वर्मा ने लिखा- यानी कि परमानन्द की अनुभूति, मानसरोवर में मोती चुगना साहित्य है तो सच्ची पत्रकारिता आज भी आजादी के अंगारों को अपने चोंच में दबाकर राष्ट्रवाद के खौलते सागर में तैरने के मानिंद।

प्रेमचंद जग में कथा सम्राट के तौरपर प्रतिष्ठित हैं लेकिन वे मूलतः अपने युग के विप्लवी पत्रकार थे। प्रेमचंद ने लेखन और पत्रकारिता उर्दू में प्रारंभ की वे ‘जमाना’ में नवाब राय के नाम से लिखते थे। लोक में भाषा संचार की व्यापकता के महत्व को समझते हुए उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया। 1927 में वे माधुरी का संपादन करने लखनऊ आ गए। उस समय पत्रिका ‘चाँद’ की धूम थी। प्रेमचंद के संपादकत्व में चाँद का कहानी अंक बहुत चर्चित हुआ। प्रेमचंद का वास्तविक पत्रकार रूप तब उभरकर सामने आया जब उन्होंने बनारस में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 में हंस निकाला। हंस साहित्य भर की पत्रिका नहीं थी। उसके केन्द्र में राजनीतिक चेतना और सामाजिक सरोकार थे। उनके स्थायी स्तंभ हंसवाणी में  स्वातंत्र्य चेतना का उद्घोष होता था। इसी स्तंभ में एक बार हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य पर जोर देते हुए मुसलमानों को इस सोच के लिए फटकार लगाई कि ‘ पहले हिन्दुस्तानी फिर और कुछ’ के भाव को अंगीकार नहीं कर पा रहे। प्रेमचंद ने एक और समाचार पाक्षिक जागरण को भी अपने आधिपत्य में लिया और पत्रकारिता में इसकदर डूबे कि कई बार उन्हें अँग्रेजों का कोपभाजन बनना पड़ा। उन्होंने आज और मर्यादा का भी संपादन किया।

हिन्दी पत्रकारिता के आरंभकाल से लेकर नब्बे के दशक तक बड़े पत्रकारिता की संपादकीय बागडोर साहित्यकारों के हाथ रही। यह बात सही है पत्रकारिता करते हुए किसी का साहित्यकार प्रभावी हो गया तो साहित्यकारिता करते हुए कोई प्रखर पत्रकार के तौरपर जाना गया। भारत में हिन्दी पत्रकारिता का उद्भव व विकास साथ-साथ परस्पर पूरक रहते हुए हुआ।

भारत में प्रिंटिंग प्रेस की तकनीक मिशनरीज लेकर आईं, 1556 में गोवा में। तब दिल्ली में अकबर की सल्तनत थी। मिशनरीज का उद्देश्य धर्मप्रचार रहा, तभी तो जब कोलकाता के सीरामपुर में देवनागरी की टाइप वाला पहला प्रेस स्थापित हुआ तो हिन्दी की पहली पत्रिका ‘दिग्दर्शन’ निकली जिसका उद्देश्य  ईसाई धर्म के बारे में हिन्दी भाषियों को बताना रहा। इसके तीस साल बाद वह 30मई 1826 को आया जब भारत में पहला हिन्दी समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड निकला। कानपुर निवासी पं. युगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता से यह अखबार निकालते हुए- प्रथम अंक में लिखा- देश के सत्य समाचार हिन्दुस्तानी लोग(इसमें) देखकर इसमें पढ़ व समझ लेंय। ‘उदंत मार्तण्ड’ के मास्टहेड में एक संस्कृत श्लोक छपता था जिसका भावार्थ था- जैसे सूरज की रोशनी के बिना अँधेरा दूर नहीं होता उसी तरह समाचार-सेवा  के बिना अज्ञ लोग ज्ञानवान बन नहीं सकते। इस कारण मैं यह(पत्र प्रकाशन का) प्रयत्न कर रहा हूँ।

पंडित शुक्ल मूलतः साहित्यकार थे। संस्कृत के मर्मज्ञ अच्छे कवि और समालोचक लेकिन उदंत मार्तण्ड को उन्होंने मुख्यधारा के समाचार पत्र की भाँति निकाला। उन दिनों कोलकाता बौद्धिक क्रांति का भी केन्द्र था। देश में अँग्रेजी, बंगाली, उर्दू और हिन्दी के समाचार पत्र पत्रिकाएं पहले पहल यहीं से निकलीं। आप कह सकते हैं कि गंगा हिमाचल से निकलीं लेकिन आधुनिक ज्ञानपरंपरा की धारा गंगासागर से निकलकर हिमालय की ओर बढ़ी।

उदंत मार्तण्ड से हिन्दी पत्रकारिता का आलोक फैलना प्रारंभ हुआ तो पूरी हिन्दी पट्टी प्रकाशवान हो उठी।1871 में सारसुधानिधि, 1881 में बद्रीनारायण उपाध्याय ने ‘आनंद कादंबिनी’, प्रतापनारायण मिश्र ने कानपुर से ‘ब्राह्मण’, 1890 में  कोलकाता से हिन्दीवंगवासी पत्रिकाएं निकलीं।

 1886 में एक महत्वपूर्ण घटना के तौरपर रीवा से भारतभ्राता का उदय हुआ। तत्कालीन महाराज व्यंकटरमण सिंह के सेनापति लाल बल्देव सिंह ने यहाँ से अखबार निकालने की ठानी। उन्होंने कोलकाता जाकर प्रिंटिंग की तकनीक सीखी और अपने साथ एक छापाखाना लेकर आए। भारतभ्राता समग्र रूप  एक समाचार पत्र था। धर्मवीर भारती ने उसे राजनीतिक चेतनासम्पन्न संपूर्ण अखबार माना। भारतभ्राता 1902 तक प्रकाशित होता रहा। लाल बल्देव सिंह स्वयं साहित्यकार व जीवनी लेखक थे ही उनके पुत्र कर्नल बलवंत सिंह जिनका नाम भारतभ्राता के प्रकाशक के तौरपर जाता था एक स्थापित साहित्यकार थे जिन्होंने दर्जन भर से ज्यादा पुस्तकें लिखीं। भारतेन्दु युग(1885) के पूर्व तक समाचार सुधावर्षण और आगरा ‘प्रजा हितैषी’ दैनिक समाचार पत्र के तौरपर प्रकाशित हो चुके थे।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाम सें जैसे हिन्दी साहित्य का युग शुरू होता है वैसे ही पत्रकारिता का भी। भारतेन्दुजी महज 35 वर्ष जिए और एक युग रचकर चले गए। कलिवचन सुधा(1867), हरिश्चन्द्र मैगजीन(1873) हरिश्चन्द्र चंद्रिका (1874) में निकाली। भारतेन्दु जी का व्यक्तित्व व कृतित्व साहित्य व पत्रकारिता से ओतप्रोत रहा। स्वातंत्र्य की ललक और समाज की जनचेतना उनका मुख्यध्येय रहा। उन्होंने कविवचन सुधा में एक से बढ़कर एक रिपोर्ताज़ लिखीं। वायसराय की दरबार में देसी राजाओं और महाराजाओं की हाजिरी का ऐसा जीवंत वर्णन किया जो आज भी गुदगुदाता है। भारतेन्दु ने पत्रकारिता को जिसतरह व्यंग और मनोविनोद की धार से तेज किया था आज भी उसे पत्रकारिता की श्रेष्ठ शैली माना जाता है।

साहित्य और पत्रकारिता में वर्ष 1900 महत्वपूर्ण रहा। इस वर्ष प्रयाग(इलाहाबाद) से विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ तो इसी वर्ष छत्तीसगढ़ के छोटे से कस्बे पेन्ड्रा से माधवराव सप्रे ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। सप्रे जी बड़े संपादक थे कि उससे बढ़कर साहित्यकार तय कर पाना मुश्किल है। उनकी कृति ‘ टोकरा भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली लघुकथा होने का श्रेय है। सप्रेजी लोकमान्य तिलक से बहुत ही प्रभावित थे। उन्होंने 1907 में ‘हिन्द केसरी’ नाम का समाचार पत्र निकाला। ‘हिन्द केसरी’ में वे तिलक के समाचार पत्र मराठा और केसरी की सामग्री को अनूदित करके या साभार छापते थे। वैसे मराठा हिन्दी में निकलता था और केसरी मराठी में। गीता पर लोकमान्य तिलक की प्रसिद्ध कृति ‘गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र’ का सर्वप्रथम हिन्दी अनुवाद सप्रे जी ने ही किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में जबलपुर मध्यभारत का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा।

सप्रे जी के जीवन के उल्लेखनीय दिन यहीं बीते। सप्रे जी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से पं.रविशंकर शुक्ल, माखनलाल चतुर्वेदी, सेठ गोविंद दास,पं. सुंदरलाल शर्मा, पं. द्वारका प्रसाद मिश्र, लक्ष्मीधर वाजपेयी पत्रकारिता की ओर उन्मुख हुए। एक तरह से सप्रेजी इन विभूतियों के गुरु थे। प्रकारान्तर में पं. रविशंकर शुक्ल ने नागपुर और फिर रायपुर से महाकोशल निकाला। गणेश शंकर विद्यार्थी के प्रताप(कानपुर) से पत्रकारिता की शुरुआत कर चुके माखनलाल चतुर्वेदी ने पहले प्रभा और फिर कर्मवीर निकाला। दादा माखनलाल मूलतः पत्रकार थे लेकिन उन्हें ख्याति एक कवि एक साहित्यकार के तौर पर ज्यादा मिली। सप्रे जी के बौद्धिक विद्यालय से सबसे प्रतिभाशाली पत्रकार के तौर पर पं. द्वारका प्रसाद मिश्र निकले। उनके संपादकत्व में जबलपुर से निकले ‘लोकमत’ की पूरे हिन्दी जगत में धूम थी।

पं. मिश्र की एक संपादकीय टिप्पणी पर मोतीलाल नेहरू ने कहा था कि..ऐसा अभियोग पत्र तो एक बड़े से बड़ा वकील भी नहीं बना सकता। पं. मिश्र की यह संपादकीय अँग्रेजी साम्राज्य को कठघरे में खड़ा करती थी। श्री मिश्र ने सारथी पत्रिका का भी संपादन किया। सप्रे जी के हरावल दस्ते के पत्रकार और साहित्यकार स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा भी थे। जो जेल जाते और जब बाहर होते तो अपने पत्र-पत्रिकाओं और कविताओं से जनचेतना जागृत करने का काम करते। कालांतर में इसी जबलपुर से भवानीप्रसाद तिवारी ने एक प्रखर हिन्दी साप्ताहिक प्रहरी निकाला। प्रहरी के साथ हरिशंकर परसाई और हनुमान प्रसाद वर्मा जैसे यशस्वी साहित्यकार व पत्रकार जुड़े रहे।

भवानीप्रसाद तिवारी एक ओर  उद्भट स्वतंत्रता सेनानी थे तो दूसरी ओर उन्होंने रवीन्द्र नाथ टैगोर की नोबल पुरस्कृत गीतांजलि का श्रेष्ठ हिन्दी अनुवाद किया। जबलपुर की संस्कार भूमि ने ही पत्रकारिता जगत को मायाराम सुरजन जैसा व्यक्तित्व दिया। उन्होंने नवभारत से अपनी यात्रा शुरू की और नई दुनिया होते हुए देशबन्धु जैसे यशस्वी अखबार को उत्कृष्टता की ऊँचाइयों तक पहुँचाया। श्री सुरजन पत्रकारिता और साहित्यकारिता के एक ऐसे सेतु थे जहाँ दोनों क्षेत्रों के दिग्गज आकर एकाकार हो जाते थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्षों बाद से वे मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने जो जीवन पर्यंत रहे। उनके सुपुत्र ललित सुरजन ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया और देशबन्धु की अनुशांगिक पत्रिका अक्षरपर्व को साहित्यकारों के बीच सर्वप्रिय बना दिया। ललित जी कुशल संपादक के साथ  अपने समय के यशस्वी साहित्यकार रहे। जबलपुर से एक और सुविधा संपन्न समाचार पत्र निकला नाम था ‘जयहिन्द’ मध्यप्रदेश का यह पहला ऐसा अखबार था जिसने टेलीप्रिंटर लाइन ली। श्यामसुंदर शर्मा 26 वर्ष की उम्र में इतने वैभवशाली अखबार के संपादक बने। श्री शर्मा बाद में प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में चले गए और फिर वहाँ से समयपूर्व सेवानिवृत्ति लेकर देशबन्धु के सतना संस्करण की बागडोर सम्हाली। श्री शर्मा एक कुशल रंगकर्मी व कला समीक्षक थे। एक ओर जहां सत्यजीत रे की फिल्म सद्गति में उन्होंने अभिनय किया वहीं दूसरी ओर पत्रकारिता पर कई श्रेष्ठ पुस्तकें रचीं। 

हिन्दी साहित्य जगत के उन दिनों दो केंन्द्र थे एक जबलपुर और दूसरा प्रयाग। यही दोनों पत्रकारिता के भी केन्द्रबिन्दु थे। 1900 में प्रयाग से सरस्वती का प्रकाशन एक अद्वितीय घटना थी। प्रारंभ में सरस्वती का एक संपादक मंडल था जिसमें जगन्नाथ दास रत्नाकर, रामकृष्ण दास और श्यामसुंदर दास। 1903 में पं. महाबीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती की कमान सँभाली और भारतेन्दु के बाद एक नए हिन्दीयुग का आरंभ हुआ। सरस्वती विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी। उसमें प्रकाशित हो जाने का मतलब हिन्दी जगत में स्थापित हो जाने जैसा था। निराला से लेकर मैथिली शरण गुप्त तक सभी सरस्वती की प्रकाशन शाला से निकले। यद्यपि आगे चलकर निराला जी शिवपूजन सहाय और पान्डेय बेचन शर्मा उग्र के साथ ‘मतवाला’ निकाला। मतवाला से ही निराला की प्रखरता निखरी।

प्रयाग उन दिनों देश को बौद्धिक नेतृत्व दे रहा था। धर्मवीर भारती और कमलेश्वर यहीं से दीक्षित होकर निकले जो आगे चलकर पत्रकारिता और साहित्य में धूमकेतु की तरह छाए रहे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पत्रकारिता के दो औद्योगिक घराने उभरे एक साहू श्रेयांस प्रसाद जैन का बैनेट कोलमैन समूह और दूसरा बिड़ला का हिन्दुस्तान टाइम्स समूह। टाइम्स आफ इंडिया निकालने वाले जैन समूह ने पत्रकारिता में उद्भट साहित्यकारों की प्रतिष्ठा की तथा मुख्यधारा की मिडिया की कमान साहित्यकारों को सौंपी।

धर्मयुग ऐसा संपूर्ण साप्ताहिक था जिसने पत्रकारिता के बहुआयामी कीर्तिमान बनाए। सत्यदेव विद्यालंकार के बाद 1967 में इसकी कमान धर्मवीर भारती ने सँभाली। 27 वर्षों तक वे धर्मयुग के पर्याय बने रहे। गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, अंधायुग, कनुप्रिया, ठेले पर हिमालय जैसी कृतियों के लेखक भारतीजी ने 1971 में बांग्लादेश की सीमा से भारत-पाक युद्ध की जो रिपोर्ताज़ प्रस्तुत की उसे आज भी वारिपोर्टिंग का लैंडमार्क माना जाता है। टाइम्स समूह में ही अग्येय जैसे विलक्षण साहित्यकार मुख्यधारा के अखबार नवभारतटाइम्स के संपादक रहे। यह परंपरा श्रेष्ठ ललित निबंधकारों में एक पं. विद्यानिवास मिश्र तक चलती चली आई।

टाईम्स समूह से रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से लेकर यशस्वी कहानीकार उदयप्रकाश तक निकले तो मूलतः साहित्यकार थे या पत्रकार विभेद कर पाना मुश्किल है। धर्मवीर भारती की ही भाँति कमलेश्वर ने भी कीर्तिमान रचे। साहित्य जगत उन्हें सारिका के संपादक के तौरपर जानता है लेकिन वे जहाँ नई कहानी आंदोलन की बागडोर थामें रहे वहीं दूरदर्शन के समाचार जगत और फिल्मों की स्कृप्टराइटिंग में अपना लोहा मनवाते।

जीवन के उत्तरार्ध में वे जितने ‘कितने पाकिस्तान’ जैसे उपन्यास के लेखक के तौर पर चर्चित रहे उतने ही दैनिक भास्कर के संपादक के रूप में। कमलेश्वर और धर्मवीर भारती से पहले जहाज का पंछी के कृतिकार इलाचन्द्र जोशी भी धर्मयुग के संपादक रह चुके थे। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से सबसे उल्लेखनीय नाम मनोहर श्याम जोशी और मृणाल पान्डे का है।  दोनों की मूल ख्याति एक साहित्यकार की रही लेकिन मुख्यधारा की मीडिया की कमान सँभाला। जोशी लंबे अर्से तक साप्ताहिक हिन्दुस्तान के संपादक रहे तो। मृणाल जी साप्ताहिक और दैनिक की संपादक रहीं। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि प्राख्यात समालोचक नामवर सिंह दैनिक राष्ट्रीय सहारा के संपादक रहे वर्षों तक। इससे पहले वे जनयुग सँभाल चुके थे। साहित्य जगत में ख्याति उन्होंने आलोचना जैसी शुद्ध साहित्यिक पत्रिका से मिली थी। 

विन्ध्यप्रदेश की पत्रकारिता और साहित्यकारिता को जिन्होंने राष्ट्रीय ऊँचाई दी उन्हें भी स्मरण करना अनिवार्य है। उनमें से हैं संपादक प्रवर पं. बनारसी दास चतुर्वेदी। पं. चतुर्वेदी 1931 में शांतिनिकेतन से ओरछा तब पधारे जब  नरेश वीर सिंह का राज्यारोहण हुआ। उनके अनुरोध पर टीकमगढ़  के कुंडेश्वर में अपना ठिकाना बनाया और इसे साहित्य का तीर्थ बना दिया। यहाँ से उन्होंने मधुकर नाम का पाक्षिक पत्र निकाला जो साहित्य व सामाजिक सरोकारों से जुड़ा था।

गाँधी के ग्राम सुराज को मधुकर के माध्यम से आगे बढ़ाया। उन्हीं की पहल पर देव पुरस्कार स्थापित हुआ जो आज के ज्ञानपीठ पुरस्कार से बढ़कर था। यह इसलिए कह सकते हैं कि उसकी चयन समिति में देश के तत्कालीन ग्यारह श्रेष्ठ साहित्यकार होते थे और पुरस्कार स्वरूप दो सहस्त्र रजत मुद्राएं दी जाती थीं। पं. चतुर्वेदी इससे पहले ‘विशाल भारत’ के संपादक के तौर पर यश अर्जित कर चुके थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वे विन्ध्यप्रदेश के कोटे से ही राज्यसभा सदस्य बनाए गए।

विन्ध्यप्रदेश के समय ओरछा और रीवा दो साहित्य के केन्द्र थे 1952 में पं. विद्यानिवास मिश्र के रीवा आने के बाद यहाँ की साहित्यिक गतिविधियां परवान पर थीं। श्री मिश्र राज्य के सूचना अधिकारी होते हुए तीन-तीन पत्रिकाएं विन्ध्य संदेश, विन्ध्य शिक्षा व एक अन्य पत्रिका का संपादन कर रहे थे। उन्होंने समूचे विन्ध्यक्षेत्र का भ्रमणकर ललित निबंध, रिपोर्ताज और यात्रावृत्तांत लिखे। मेरे राम का मुकुट भींग रहा है तथा रुपहला धुआँ जैसे संग्रह में यह सब प्रकाशित हैं। जगदीश जोशी थे तो प्रखर समाजवादी नेता पर उन्होंने भी पत्रकारिता पर हाथ आजमाया। कुछ वर्षों तक एक बघेली पत्रिका का संपादन किया। जीवन के उत्तरार्ध में नवभारतटाइम्स, जनसत्ता और देशबंधु में उनके नियमित स्तंभ छपे। शैलरेखा उनकी महत्वपूर्ण काव्यकृति है। ‘मैं नहीं युग बोलता है’  समेत पाँच निबंध संग्रह उनके निधनोपरांत प्रकाशित हुए। जागेश्वर पान्डेय  एक क्रांतिकारी संपादक थे जो सामंतों व सरकार की बराबरी से खबर लेते थे।

1990 के दशक तक देश में संपादक की स्वमेव शर्त एक अच्छा साहित्यकार और व्याकरण का मर्मज्ञ होना थी। ग्लोबलाइजेशन के बाद मीडिया का स्वरूप बदला और संपादक पत्रकार जो कभी अच्छे साहित्यकार भी हुआ करते थे, में प्रबंधन का गुण प्राथमिकताओं में हो गया। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या कि हिन्दी अखबार का संपादक अँग्रेजी का व्यक्ति होता है जिसके लिखे का अनुवाद संपादकीय में छापा जाता है। हिन्दी पत्रपत्रिकाओं में अनूदित सामग्री की भरमार है। सबकुछ ऐसा गड्डमगड्ड हो चुका है और इसी में हिन्दी की पत्रकारिता और साहित्यकारिता ऐसे उलझकर रह गई जैसे कि अपने ही जाल में खुद मकड़ी।

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