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Hindi Diwas 2025 | विश्व हिंदी दिवस और हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास –

Hindi Diwas 2025 History

Hindi Diwas 2025 History

Hindi Diwas 2025 History | प्रत्येक वर्ष 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना, संयुक्तराष्ट्र द्वारा इसको स्वीकृति दिलवाना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। वर्ष 2006 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने 10 जनवरी विश्व हिंदी दिवस मनाने की घोषणा की। 10 जनवरी 1975 को प्रथम विश्व हिंदी सम्मलेन भारत के नागपुर में आयोजित हुआ था। जिसका उद्घाटन तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने किया था।

भारतीय सभ्यता के प्रारंभिक दौर में संस्कृत अत्यंत महत्वपूर्ण भाषा थी, संस्कृत जिसे देवभाषा भी कहते थे। लेकिन पाली भाषा के लिखित दस्तावेज उससे पहले प्राप्त होते हैं। प्रारंभिक अशोककालीन अभिलेख पाली भाषा में ही लिखे गए। उसके बाद के सातवाहन इत्यादि राजाओं के अभिलेख प्राकृत में मिलते हैं, संस्कृत का पहला अभिलेख 130 से 150 ईस्वी बीच लिखा गया शक-क्षत्रप रुद्रदामा का जूनागढ़ अभिलेख है।

लेकिन इन भाषाओं के विवाद में हम नहीं पड़ते हैं और यह मान लेते हैं संस्कृत, प्राकृत और पाली तीनों ही प्राचीन भाषाएं हैं और समय-समय में इन्हें राजकीय संरक्षण इत्यादि भी प्राप्त होते रहते थे। हालांकि इनके सामानांतर एक लोकभाषा भी चल रही थी और वह भाषा अपभ्रंश थी। जिसे प्राकृत भाषा का बिगड़ा हुआ स्वरुप माना जाता है। पतञ्जलि आदि विद्वानों ने भी प्राकृत और अपभ्रंश नामों का प्रयोग समान अर्थों में किया है, विद्वानों ने इसे गामेल्ल भाषा, अर्थात ग्रामीणों की भाषा भी कहा है। संस्कृत विद्वानों ने इसे अपभ्रंश कहा, कहीं-कहीं इसे अपभ्रष्ट भी कहा।

अपभ्रंश की अंतिम अवस्था अवहट्ट से ही हिंदी साहित्य का प्रादुर्भाव साहित्य के इतिहासकारऔर विद्वानों ने माना है, लगभग 7वीं 8वीं शताब्दी में इस भाषा में पद्य रचना भी प्रारंभ हो गई थी। ‘चंद्रधर शर्मा गुलेरी’ ने इसी भाषा को पुरानी हिंदी कहा है। राहुल सांकृत्यायन ‘सहरपा’ को हिंदी का पहला कवि मानते हैं। साहित्य की दृष्टि से जो प्रारंभिक पद्यबद्ध रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा के स्वरूप में ही मिलती हैं और उनके विषय मूलतः धर्म, नीति, उपदेश इत्यादि हैं।

उसके बाद के समय में राजाश्रित कवि और चारण नीति, शृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से भरपूर अपनी साहित्य की रचना की। यह रचना-परम्परा आगे भी हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसी आधार पर इसे साहित्य का वीरगाथा काल कहा है, कुछ विद्वानों ने इसे चारण काल भी कहा है। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशज भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने ‘देसी भाषा’ कहा है। किन्तु यह निश्चित नहीं कहा जा सकता है, इस भाषा को हिंदी कहना कब प्रारंभ किया गया। लेकिन हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारंभ में ‘हिन्दी’, हिंदुस्तानी, देहलवी या हिंदवी शब्द का प्रयोग तुर्क-अफगानों ने उस भाषा के लिए किया, जो हिंदुस्तान के लोग बोला करते थे।

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सल्तनत काल और मुगल काल के दौरान फ़ारसी राजकाज की भाषा थी, तो यह निश्चित था अभिजात्य वर्ग की भी यही भाषा थी। इसीलिए कहावत भी प्रसिद्ध है ” हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या ” यह कहावत उस समय फ़ारसी के महत्व को बताने के लिए काफी है, उस समय के ज्यादातर हिंदू राजा-महाराजा के यहाँ भी पत्र और दस्तावेजों के लिए फ़ारसी ही प्रत्युक्त होती थी। हालांकि फ़ारसी का चलन ब्रिटिश काल में भी बहुत था। आज भी दीवानी और अदालती मामलों के कागज अगर देखेंगे तो बहुतायत में फ़ारसी शब्द मिलेंगे। लेकिन फ़ारसी के अतिरिक्त एक और भाषा जो लोकभाषा थी, उसी के सामानांतर चल रही थी।

जिसे हिंदुस्तानी या हिंदवी कहा गया। चूंकि सल्तनत काल और मुग़लकाल में राजधानी दिल्ली थी, तो उसके आस-पास की ही बृजभाषा और खड़ी बोली को इन दरबारों में बोला और समझा जाता था, साथ ही इनमें तुर्क-अफगान और मुगलों के फ़ारसी का प्रभाव भी पड़ा, यही भाषा हिंदवी है। जो आज के उर्दू और हिंदी का मूल है। मध्ययुग में भक्तिआन्दोलन में हिन्दी खूब फली फूली। पूरे देश में ही भक्त कवियों ने अपनी वाणी को जन-जन तक पहुंचाने के लिये तब की लोकभाषा हिन्दी का ही सहारा लिया। मध्यकाल में बृजभाषा से ही ज्यादातर पद्य रचनायें की गईं, मध्यकाल के दोनों चरण भक्तिकाल और रीतिकाल बृजभाषा के साहित्य से सरोबार हैं, पद्य रचना के लिए इसी भाषा को स्टैण्डर्ड भाषा माना जाता था, हालांकि गोस्वामी तुलसीदास और मलिक मुहम्मद जायसी जैसे सुप्रसिद्ध मध्यकालीन कवियों की भाषा अवधी थी।

भक्तिकाल के बाद रीतिकालीन में भी रचनाओं की यही प्रकृति चलती रही, बस भक्ति की जगह अब प्रेम और श्रृंगार ने ले ली थी। ये काव्य रचनाएं सामंती संस्कृति से सरोबोर होकर, ब्रज और उसकी भाषा के रस और रास में आकंठ डूबी हुई थी। तब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने छंदबद्ध पद्यों के रचना का प्रवाह गद्य साहित्य की तरफ मोड़ा और आधुनिक साहित्य के बीज बोये। भारतेन्दु ने गद्य और पद्य दोनों रचा है, लेकिन उन्हें मूलतः लोकचेतना के विकास के लिए लिखे गए नाटकों के लिए अत्यधिक यश मिला।

उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। हालांकि भारतेन्दु से पहले ही रीवा के महाराज ‘विश्वनाथ सिंह’ ने ‘आनंद रघुनन्दन’ नाम का नाटक लिखा था, जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य का पहला नाटक कहा है। 1826 में हिंदी का पहला समाचार-पत्र उदंत-मार्तण्ड कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। यह एक साप्तहिक समाचार पत्र था, जो पंडित जुगल किशोर शुक्ल द्वारा निकाला गया था, हालांकि आर्थिक कारणों से यह बंद भी हो गया था। लेकिन इसके बाद ही आधुनिक साहित्य में उपन्यास, नाटक, कहानी, निबंध इत्यादि प्रचुर मात्रा में गद्य साहित्य लिखा गया।

आज जो हिंदी हम बोलते, पढ़ते या लिखते हैं, वह हिंदी है ‘खड़ी बोली’ जो शौरसैनी, अपभ्रंश, प्राकृत, खड़ी बोली, हिंदुस्तानी और संस्कृत का मिला-जुला परिष्कृत रूप है। जिसका बहुतायत में प्रयोग 20वीं शताब्दी से प्रारंभ हुआ। हिंदी साहित्य की सुप्रसिद्ध कवियत्री अनामिका कहती हैं “हिंदी खुली बांहों वाली भाषा है,उसने सबको स्वीकारा है” उसने तत्सम, तद्भव, देशज और वैदेशिक शब्दों को भी आत्मसात किया है। यह किसी साम्राज्यवाद के प्रोत्साहन से नहीं पनपी बल्कि आधुनिक युग में सम्राज्यवादी ब्रिटिश सरकार से टकराव के दौरान विकसित हुई शुद्ध जनतांत्रिक भाषा है। इस भाषा को राजनैतिक संरक्षण कम से कम शुरुआत में तो नहीं ही मिला।

बल्कि यह तो उस समय ब्रिटिशर्स द्वारा थोपी जा रही अंग्रेजी के लगभग समनांतर पनपने वाली जनवादी भाषा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रणेता और पितामह माना जाता है। उन्होंने बृजभाषा में लिखे जा रहे छंदबद्ध रीतिकालीन काव्यों की जगह गद्य साहित्य को अत्यधिक ज्यादा महत्व दिया, हालंकि उन्होंने काव्य साधना भी की। भारतेन्दु का अवसान अत्यंत अल्पायु में हो गया पर उन्होंने जो पुनर्जागरण के बीज बोये, वह आगे भी जारी रहे। और अंततः हिंदी ने अपनी भाषा, लिपि और साहित्य सब कुछ प्राप्त कर लिया।

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हालांकि हिंदी आज भी फ़ारसी के प्रभाव से मुक्त नहीं है लेकिन संस्कृतनिष्ठ है और देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, देवनागरी लिपि में शब्द बाएं से दाएं लिखे जाते हैं जबकि उर्दू जिसे हिंदी की सहोदर बहन भी कहते हैं, अरबी- फ़ारसी से युक्त है और नस्तालीक लिपि में लिखी जाती है और इस लिपि में शब्द दाएं से बाएं तरफ लिखे जाते हैं। यहीं दोनों में अलगाव हो जाता है, बाकी दोनों का मूल दिल्ली और मेरठ के आस पास बोले जाने वाली खड़ी बोली या खरी बोली से ही है।

हिंदी में अंग्रेजी शब्द भी हैं और अंग्रेजी में कई हिंदी शब्द मिले हुए हैं, यानी की भाषाओं का लेन देन। भले ही हिंदी के पास दूसरी भारतीय भाषाओं संस्कृत, तमिल और बांग्ला की तरह अधिक समृद्ध साहित्य की विरासत नहीं है लेकिन जितने अनुवाद विदेशी भाषाओं और दूसरी भारतीय भाषाओं का हिंदी में हुआ है उतना किसी और भाषा में नहीं हुआ है और यह पर्याप्त है इसके महत्व और समृद्धि को बताने के लिए।

एक किस्सा आता है की किसी हिंदी सम्मलेन के मंच से बोलते समय महात्मा गाँधी ने कहा था “हिंदी में कोई रविंद्रनाथ टैगोर नहीं हुआ” तो उसी मंच में उपस्थिति सुप्रसिद्ध कवि ‘निराला’ को यह बात नागवार गुजरी उन्होंने कहा “गाँधी जी आपको हिंदी का क्या पता, आपने मेरी रचनाएँ पढ़ी हैं? हालांकि मैंने उस घटना का संक्षिप्त जिक्र किया है, बाकी निराला ने तो बड़े विस्तार से लिखा है। गाँधी हिंदी को जनमानस की भाषा मानते थे और कहते थे हिंदी राष्ट्रभाषा बने या ना बने लेकिन वह हिंदी का मोह नहीं छोड़ सकते।

लेकिन क्या किसी भाषा का मूल्यांकन इस हिसाब से होना चाहिए कि उसके पास कालिदास, टैगोर, शेक्सपीयर या लियो टॉल्स्टॉय क्यों नहीं है। मंदारिन, स्पेनिश और अंग्रेजी के बाद आज हिंदी विश्व की चौथी सर्वाधिक बोले जाने वाली भाषा है, लेकिन संयुक्त राज्य ने इसे अपनी आधिकारिक भाषा नहीं बनाया है। भारत में हिंदी को राजभाषा का दर्जा 14 सितम्बर 1949 को मिला, इसीलिए इस दिन हिंदी दिवस भी मनाया जाता है। लेकिन यह भारत की राष्ट्र भाषा नहीं है।भारत के साथ साथ यह विश्व के कई देशों में भी बोली समझी व पढ़ी जाती है। आज हिंदी दिवस है, हमें हिंदी को और समृद्ध करने के प्रयास करने चाहिए।

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