He Saved His Moustache,Yet Made History-Pankaj Dheer as Karna – पंकज धीर ,एक ऐसा नाम जो 80 के दशक के टेलीविजन इतिहास में महाभारत के “कर्ण” के रूप में अमर हो गया। 9 नवंबर 1959 को जन्मे पंकज धीर वर्तमान में 65 वर्ष के हो गए हैं,लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि जिस किरदार ने उन्हें घर-घर में लोकप्रिय बनाया, वो उन्हें सीधे नहीं मिला था। इस किरदार तक की उनकी यात्रा में भावनाएं, आत्म-सम्मान, और नाटकीय मोड़ शामिल थे। जब वो अर्जुन के रोल के लिए स्टूडियो पहुंचे तब स्क्रीन टेस्ट पास करने के बाद, बी.आर.चोपड़ा ने उन्हें अपने ऑफिस से बाहर निकाल दिया था, लेकिन फिर वही चोपड़ा साहब उन्हें बुलाकर बोले “कर्ण का रोल करोगे ? इस लेख में जानिए पंकज धीर की जिंदगी से जुड़ा वह रोचक और प्रेरक किस्सा, जो सिर्फ एक किरदार नहीं, बल्कि कला, आत्मविश्वास और समर्पण की मिसाल बन गया।
बीआर चोपड़ा से सीधी भिड़ंत : पंकज धीर का कर्ण बनने तक का सफर
जब भी टीवी इतिहास की सबसे प्रतिष्ठित भूमिकाओं की बात होती है, तो महाभारत के “कर्ण” का नाम अवश्य आता है और इस किरदार को जीवंत करने वाले अभिनेता पंकज धीर की कहानी उतनी ही प्रेरणादायक है जितनी खुद कर्ण की। शुरुआत में पंकज धीर को बी.आर. चोपड़ा की महाभारत में “अर्जुन” की भूमिका के लिए चुना गया था। लेकिन एक शर्त ने पूरा दृश्य बदल दिया। चोपड़ा साहब ने उनसे मूंछें कटवाने की बात कही, जिससे पंकज धीर को आपत्ति हुई और उन्होंने रोल करने से साफ इनकार कर दिया, क्योंकि उनका मानना था कि इससे उनके चेहरे का संतुलन बिगड़ जाएगा। इस बात पर बी.आर. चोपड़ा इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने गुस्से में कहा “तुम एक्टर हो कि क्या हो ? निकलो यहां से ” और उन्हें ऑफिस से बाहर निकाल दिया। बाहर निकलते वक्त पंकज को किसी ने टोका भी कि “इतनी सी बात पर क्या कर दिया”, लेकिन उन्होंने चुपचाप स्वीकार किया। कई महीने बीते। फिर एक दिन वही चोपड़ा साहब का फोन आया-इस बार सवाल था, “क्या कर्ण का रोल करोगे?” जवाब देने से पहले पंकज धीर ने पूछा, “क्या मूंछें कटवानी होंगी ?” और जैसे ही उत्तर मिला “नहीं, इस रोल में नहीं”… उन्होंने मुस्कराते हुए हामी भर दी-“तो मैं ज़रूर करूंगा” और बस पंकज धीर को यहीं से मिली थी एक नई पहचान महाभारत के कर्ण के रूप में।
दिनकर की रश्मि-रथी और शिवाजी सामंत की मृत्यंजय पढ़कर – पंकज बने कर्ण
कर्ण का किरदार साधारण नहीं था इसे आत्मसात करने के लिए पंकज धीर ने बेइंतहा मेहनत की। लेखक राही मासूम रज़ा ने उन्हें सलाह दी कि हिंदी अखबार ज़ोर-ज़ोर से पढ़ो जिससे उनका उच्चारण और संवाद अदायगी में गहराई आए। उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर की रश्मि-रथी और शिवाजी सावंत की मृत्युंजय जैसी महान रचनाएं पढ़ीं जो कर्ण को समझने की कुंजी साबित हुईं जिनसे पंकज के अंतस में कर्ण को मानों हूबहू स्थापित किया और संवादों के उच्चारण, शब्दों के उतार-चढ़ाव, और भाव-प्रेषण में उन्होंने एक अलग ही समर्पण दिखाया। उनकी परफॉर्मेंस की एक खासियत थी,कर्ण की आंखें कभी झपकती नहीं दिखीं। हर दृश्य में उन्होंने पलकें बिना झपकाए अभिनय किया जिससे दर्शक कर्ण की इस गंभीरता, धैर्य और आत्मबल को महसूस कर सकें। उनका शांत, संयमित, संतुलित स्वभाव,शकुनि और दुर्योधन जैसे पात्रों के बीच,एक अद्भुत प्रभाव छोड़ता था। यही वजह थी कि टीवी पर जब-जब कर्ण स्क्रीन पर आता, दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते। इस समर्पण का परिणाम ये हुआ कि पंकज धीर ने दर्शकों के दिलों में गहरी जगह बना ली। उस समय एक लोकप्रियता पोल हुआ, जिसमें पहले स्थान पर राजीव गांधी, दूसरे पर अमिताभ बच्चन और तीसरे स्थान पर पंकज धीर आए जो उस दौर में किसी भी टीवी एक्टर के लिए अविश्वसनीय था।
दर्शकों की चाहत में जब चांदी से तौले गए पंकज ,महाभारत के कर्ण
कर्ण की मृत्यु वाला एपिसोड प्रसारित होने के बाद, एक ऐसा दृश्य भारत के बस्तर इलाके में देखने को मिला, जिसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वाकया था महाभारत के चित्र पटल पर पंकज धीर यानि दर्शकों के कर्ण की मृत्यु जिस के बस्तर आदिवासियों ने पंकज धीर के सम्मान में अपने सिर मुंडवा लिए थे और यह श्रद्धा किसी अभिनेता के लिए नहीं, एक जीवित प्रतीक के लिए थी। तब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने उन्हें आमंत्रित किया और वे हेलिकॉप्टर से बस्तर पहुंचे, जहां उन्हें चांदी में तौलकर सम्मानित किया गया। पंकज धीर ने उस वाकये को याद करते हुए अपने एक इंटरव्यू में कहा और उस बीते दौर को याद करते हुए स्वीकारा कि. ….मूंछें ना काटने का फ़ैसला अब बचपना लगता है,तब मैं युवा था, नासमझ था लेकिन जो हुआ, उसी ने मुझे कर्ण बना दिया। यह कहानी न केवल एक अभिनेता की जद्दोजहद और सफलता की दास्तान है, बल्कि उस आत्मविश्वास और संकल्प की भी मिसाल है जो किसी कलाकार को ऊंचाइयों तक ले जाता है। पंकज धीर के जीवन का यह अध्याय हर उभरते कलाकार के लिए प्रेरणा है- कि हमेशा अपने आत्मसम्मान के आगे समझौता न करना या उसके लिए बड़े से बड़े प्रस्ताव को भी अस्वीकृति के पीछे एक बड़ी मंज़िल छुपी हो सकती है, बस अपने फैसलों पर यकीन रखना चाहिए। कभी-कभी हार कर भी जीत होती है। अर्जुन का रोल भले छिन गया लेकिन कर्ण जैसा किरदार उन्हें मिल गया ऐसा किरदार जो उन्हें अमर बना गया।
जनश्रुति पर आधारित लेख से प्रेरणा – “कभी-कभी हार कर भी जीत होती है”
महाभारत में अर्जुन का रोल पंकज धीर से छिन गया लेकिन किस्मत ने उन्हें ऐसा किरदार दिया जो सदा के लिए उनके नाम से जुड़ गया,कर्ण। इस पूरे सफर में आत्मसम्मान, परिश्रम, और अभिनय का अद्भुत मेल दिखता है। पंकज धीर का यह जीवन प्रसंग हर कलाकार के लिए एक प्रेरणा है कि अगर आप खुद पर विश्वास रखते हैं, तो देर से सही, सही किरदार खुद आपके पास आता है। अतः ये किस्सा सीख देता है की हमें कभी अपनी वैल्यूज से समझौता नहीं करना चाहिए वो भी अपने निर्णय प् भरोसे के साथ।