Guru Govind Singh Ji aur unka kavya paksh: बृजभाषा में लिखी गई और भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित यह कविता किसी रीतिकालीन छंदबद्ध दरबारी कवि की नहीं, बल्कि गुरु गोविन्द सिंह जी की है, जो सिखों के 10वें और अंतिम गुरु थे। वह एक योद्धा, कवि और दार्शनिक भी थे।
रुखन से रस चूवन लाग, झरैं झरना गिरि से सुखदाई।
घास चुगैं ना मृगा बन के, खग रीझ रहे जो धुन सुन पाई।
देवगंधार बिलावल सारंग की रिझ कै जिह तान बसाई।
देव सबै मिल देखत कौतुक, जौ मुरली नंदलाल बजाई।
उनका जन्म विक्रम सम्वत 1723 की पौष सुदी सप्तमी अर्थात 22 दिसंबर 1666 को पटना बिहार में तब हुआ, जब उनके पिता गुरु तेगबहादुर अपनी पत्नी गूजरी और कुछ शिष्यों के साथ पूर्वी भारत की यात्रा पर थे। अपनी गर्भवती पत्नी और कुछ शिष्यों को पटना में छोड़कर गुरु जी बंगाल और आसाम की यात्रा पर चले गए थे। वहीं उन्हें पुत्र जन्म का शुभ समाचार प्राप्त हुआ था। गुरु तेग बहादुर जब अपने परिवार को पटना की संगत में छोड़कर आगे वह पूरब की तरफ जा रहे थे, तो मुंगेर से उन्होंने सिख संगत को पत्र लिखा था कि राजा जी के साथ वह आगे जा रहे हैं, इसलिए उनके परिवार के निवासादि की उत्तम व्यवथा कर दी जाए। वह राजा कौन था, जिसके साथ गुरु तेगबहादुर सुदूरपूर्व की तरफ गए थे। सूरजप्रकाश के रचायिता भाई संतोष सिंह के अनुसार इस राजा का नाम बिशन सिंह था। लेकिन मैकलिफ इत्यादि परवर्ती लेखकों ने मिर्जा राजा जयसिंह के पुत्र मिर्जा राम सिंह को वह राजा माना है। विचित्र नाटक के सप्तम अध्याय में गुरु गोविन्द सिंह जी अपने जन्म के विषय में लिखते हैं –
मुर पित पूरब कियसि पयाना, भांति भांति के तीरथ नाना।
जब ही जात त्रिवेणी भये, पुण्य दान दिन करत बितये।
तहिं प्रकाश हमारा भयो, पटना शहर बिखे भव लयो।
1675 में वह नौ वर्ष की उम्र में गुरु गद्दी पर तब बैठे, जब उनके पिता गुरु तेगबहादुर द्वारा इस्लाम न स्वीकारने के कारण बादशाह औरंगजेब के आदेश पर उनका सर काट दिया गया था। विचित्रनाटक में गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता के बलिदान को इस प्रकार वर्णन किया है –
तिलक जंञू राखा प्रभु ताका॥
कीनो बडो कलू महि साका॥
साधन हेति इती जिनि करी॥
सीसु दीया परु सी न उचरी॥
धरम हेत साका जिनि कीआ॥
सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥
पिता के बलिदान के बाद गुरु गोविन्द सिंह 8 वर्ष तक आनंदपुर में रहे। वहीं रहकर उन्होंने विधिवत शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। उनकी शिक्षा का प्रबंध गुरु तेगबहादुर ही कर गए थे। संस्कृत और फ़ारसी के पृथक-पृथक शिक्षक नियुक्त किये गए थे। पंजाबी और बृजभाषा उन्होंने स्वयं सीख ली थी। हिंदी की कविताओं का मानक उस समय बृजभाषा ही थी। शास्त्रों के साथ-साथ उन्होंने शस्त्र विद्या भी प्राप्त की थी। घुड़सवारी, तीरंदाज़ी में वह निपुण थे। पिता द्वारा किये गए शिक्षा प्रबंध विचित्रनाटक में ही प्राप्त होता है –
कीनी अनिक भान्ति तन रच्छा।
दीनी भांति-भांति की सिच्छा।
युद्धकला में आखेट का भी प्रमुख स्थान है, विचित्र नाटक में वह लिखते हैं –
भांति-भांति के खेल शिकारा
मारे रीछ रोंझ झखारा।
उस समय हिंदुस्तान में मुग़ल बादशाह औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब की महत्वकांक्षा और सुदूर दक्षिण पर नियंत्रण को लेकर शिवाजी के नेतृत्व में मराठों से लगातार युद्ध हो रहे थे। अपने पुरखे अकबर की सुलह कुल की नीति को उसने त्याग दिया। उसकी धर्मान्धता, धार्मिक द्वेष और जिद के कारण उसके समय में विद्रोह भी बहुत हुए – गोकुला के नेतृत्व में 1667 में मथुरा के जाट किसानों का विद्रोह, 1669 और 72 में पश्चिमोत्तर प्रान्त के पठानों का विद्रोह, 1672 का सतनामी विद्रोह, 1675 में गुरु तेगबहादुर के नेतृत्व में सिख विद्रोह और 1681 में दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में मारवाड़ (जोधपुर) के राठौड़ों का विद्रोह, इत्यादि प्रमुख हैं।
उस समय के संक्रमण काल के अनुसार उनके अनुयायियों का सैन्यीकरण जरुरी था, इसीलिए उन्होंने खालसा पंथ की स्थापना की। जो उनके जीवन की सबसे बड़ी सफलता था। 1699 में आनंदपुर साहब के केशगढ़ में दयाराम, धर्मदास, मुहकमचन्द, साहिबचन्द और हिम्मत इन पंजप्यारों को मृत्युंजयी बनाकर ‘सिंह’ बनाया और अमृत चखाया। स्वयं उनसे दीक्षा लेकर गोविन्दराय से गोविन्दसिंह बने। उन्होंने खालसा पंथ को संगठित और शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए, खालसा पंथ में सब सिक्ख बराबर हैं, इसीलिए सभी को सिंह उपनाम लगाने के लिए कहा, उन्होंन पंचककार (केश, कच्छा, कंघा , कड़ा और कृपाण) अनिवार्य कर दिया। और अपने सभी अनुयायियों को ‘सत श्री अकाल’ कहकर नमस्कार करने को कहा। उन्होंने एक नया जयघोष भी दिया-
वाहै गुरु जी का खालसा, वाहै गुरु जी की फतह।
कहते हैं अमृत चखने की प्रणाली का ब्राम्हणों और खत्रियों ने विरोध किया था। इस बात का संकेत गुरु गोविन्द सिंह जी के दरबारी कवि सेनापति ने गुरुशोभा नाम के ग्रन्थ में भी किया है। उनके उच्च वर्ग के कुछ अनुयायियों को दिक्कत थी, गुरु जी अपने संगठन में निम्न वर्ग के लोगों को उच्च पद दिया है। इसका जिक्र गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी रचनाओं में भी किया है। निम्न वर्ग से आने वाले अपने अनुयायियों की प्रसंशा करते हुए वह लिखते हैं –
जुद्ध जिते इनहि की प्रसादि इनहि की प्रसादि सु दान करें
अघ अउध टरै इनहि की प्रसादि इनहि की कृपा पुन धाम भरे
इनहि की प्रसादि सु बिदिआ लइ इनहि की कृपा सब सत्रु मरे
इनहि की कृपा ते सजे हम है नही मौ सौ गरीब करोर परे।
अपने इन अनुयायियों की महत्ता बताते हुए वह दूसरे छंद में लिखते हैं –
सेव करो इनहि की आवत और की सेव सुहात ना जी को
दान दया इनहि को भलौ अरु आन के दान न लागे नीको
आगै फलै इनहि कौ दयौ जग मे जसु अउर दयौ सम फीको
मो गृह मो तन ते मन ते सिर सउ धन है सबही इनको।
इतिहास के पन्नों पर गुरु गोविन्द सिंह एक राष्ट्रनिर्माता, रणनीतिक कुशल योद्धा, महान व्यक्तित्व के त्यागी महात्मा के रूप में ही केवल प्रख्यात नहीं हैं। वह कई भाषाओं के ज्ञाता और कवि भी थे। हालांकि साहित्य रसिकों और समालोचकों का ध्यान इस तरफ थोड़ा देर से आकृष्ट हुआ। वह हिंदी (ब्रज), फ़ारसी और पंजाबी तीनों पर सामान अधिकार रखते थे। और इन्हीं तीन भाषाओं में उन्होंने अपना साहित्य सृजन भी किया। परन्तु हिंदी में किया गया उनका साहित्य हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। गुरुमुखी लिपि में लिखी गईं और 1428 पृष्ठों में मुद्रित उनकी सभी रचनायें ‘दशम ग्रंथ’ में संग्रहीत हैं। फ़ारसी और पंजाबी में लिखित साहित्य लगभग 50 पृष्ठों में ही सीमित है, शेष विशाल भाग उनकी विविध हिंदी रचनाओं का ही संग्रह है।
उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘जापजी’, ‘अकाल उसतत’, ‘विचित्र नाटक’, ‘वार श्री भगउती जी की’, ‘ज्ञान प्रबोध’, ‘चौपाया’, ‘शास्त्र नाममाला’, ‘चंडी चरित्र’, तथा ‘जफरनामा’ और ‘हिकायन’ इत्यादि प्रमुख हैं। ‘जाप साहिब’ में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन है। ‘अकाल उसतत’ में अकाल पुरुष की स्तुति है। ‘विवित्र नाटक’ पौराणिक काव्य-रचना है। ‘चण्डी चरित्र’ दुर्गा-सप्तशती के आधार पर लिखा गया है। ‘ज्ञान प्रबोध’ में दान, धर्म एवं राजधर्म का वर्णन है। ‘शास्त्र नाममाला’ में शास्त्रों के नाम के माध्यम से परमात्मा का स्मरण है। ‘जफरनामा’ सन् 1706 ई० में औरंगजेब को लिखा हुआ पत्र है, जिसमें गुरु गोविन्दसिंह के आदर्शों की व्याख्या है।
उनकी वाणी में भक्ति तथा देशप्रेम का अलौकिक वर्णन है। उनकी कविताओं में शान्त एवं वीर-रस की प्रधानता है। परमात्मा के वैविध्य रूपों की स्तुति में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का भी अनूठा संगम है। राम और कृष्ण अवतारों की कथा और स्तुतियां हैं। अवतारों का भी जिक्र है, हालांकि उन्होंने अवतारों का भी निर्माण करने वाले सर्वशक्तिमान परमब्रम्ह जिसे अकाल या अकाल पुरुष के रूप में अभिहित किया है, उसी पर अपनी अंतिम आस्था केंद्रित की है। दुर्गा शप्तशती पर आधारित देवी युद्धों के वर्णन में वीर-रस प्रधान है। रौद्र और वीभत्स रस उसके अंगीभूत हैं। लेकिन सबसे प्रमुख है इसमें अलौकिकता से ज्यादा मानवीकरण हैं। वैसे तो उनकी रचनाओं में लगभग सभी अलंकार उपस्थित हैं, किन्तु उपमा, रूपक और दृष्टान्त का बाहुल्य है। शब्दालंकारों में अनुप्रास की प्रधानता है। छन्दों की दृष्टि से इसमें विविधता पायी जाती है। छप्पय, भुजंगप्रयात, कवित्त, चरपट, मधुभार, भगवती, रसावल, हरबोलनमना, एकाक्षरी, कवित्त, सदैया, चौपाई, तोमर, पाधड़ी, तोटक, नाराच, त्रिभंगी आदि अनेक छन्द प्रयुक्त हुए हैं। गुरु गोविन्द सिंह की काव्यभाषा प्रधानतया ब्रजभाषा है, किन्तु बीच-बीच में अरबी, फारसी और संस्कृत शब्दों का भी प्रयोग बहुतायत में किया गया है।
गुरु गोविन्द सिंह ने जीवन पर्यन्त मुग़लों से कई लड़ाइयां लड़ी, उनके चारों पुत्र उनके जीवनकाल में ही धर्म और देश की रक्षा के लिए क़ुर्बान हो गए। उन्होंने जीवन का एक आदर्श प्रस्तुत किया। उनका जीवन संघर्ष, त्याग और सेवा के संयोग का एक अनुपम उदाहरण है। उनका नाम धर्मसुधारकों और राष्ट्रनायकों में अग्रणी है। 1708 में दक्क्न की यात्रा में नांदेड़ के पास एक पठान के हमले वे घायल हो गए थे। यही चोट उनके लिए घातक साबित हुई। गुरुगद्दी के भावी संघर्षों का अनुमान लगाते हुए, जीवन के अंतिम समय में उन्होंने किसी व्यक्ति की जगह ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ को आखिरी गुरु घोषित कर दिया।
उन्होंने जीवनपर्यन्त समाज, धर्म और राष्ट्र के हित के लिए जो कार्य किए, जो क़ुर्बानियां दी वह अप्रतिम है, जिसके लिए अत्यंत साहस और शक्ति आवश्यकता थी। इसलिए शक्ति स्वरूपा देवी की स्तुति करते हुए वह लिखते हैं –
देह शिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरौं।
न डरौं अरि सो जब जाइ लरौं निसचै करि आपन जीत करौं ॥
अरु सिख हौं अपने ही मन कौ इह लालच हौं गुन तौ उचरौं।
जब आवकी अउध निदान बनै अतही रन में तब जूझ मरौं ॥