Mukesh Birthday Special: रिश्तेदार की शादी में गाकर मिला मुंबई जाने का मौका, बड़े-बड़े स्टार्स के लिए गाए हिट गाने!

Singer Mukesh Biography In Hindi, Singer Mukesh Death Reason, Songs

Singer Mukesh Biography In Hindi, Singer Mukesh Death Reason, Songs: यूं तो मोतीलाल एक अभिनेता थे पर उन्होंने एक ऐसी आवाज़ को हमारे लिए चुना जिसने अपनी मखमली आवाज़ मे हमें कई बेश कीमती नग़्मे दिए ,कभी उल्फत, कभी नसीहत ,कभी अरमानों का पैग़ाम लेकर जैसे:-
“एक प्यार का नग़्मा है”,”डम डम डिगा डिगा”,”मेरा जूता है जापानी” ,”ये मेरा दीवानापन है “,”मैने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने”, “इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल”, “मैं पल दो पल का शायर हूँ”,”कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है” ,”दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी”, बेशक आप हमारा इशारा समझ गए होंगे, ये अनमोल गीत गाए हैं मुकेश ने जिन्हें उनके दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना जब उन्होंने अपनी बहन की शादी में उन्हें गाते हुए सुना और उनकी मीठी आवाज़ से इतना मोतासिर हुए कि उन्हें अपने साथ बम्बई ले आए ,यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिए उनके रियाज़ वगैरह का भी पूरा इन्तज़ाम किया और उनकी कोशिशें रंग भी लाईं पर चूंकि वो एक आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक थे और दिली ख्वाहिश भी हीरो बनने की थी इसलिए उन्होंने इस दौरान पहले 1941 में “निर्दोष” फ़िल्म में बतौर एक्टर सिंगर काम किया , बतौर पार्श्व गायक उन्हें अपना पहला काम १९४५ में फिल्म पहली “नज़र “में मिला।

के. एल सहगल भी पड़े दुविधा में

मुकेश ने हिन्दी फिल्म में जो पहला गाना गाया, वो था” दिल जलता है तो जलने दे” जिसमें अभिनय मोतीलाल ने किया और जो बेहद पसंद किया गया ,
इस गीत में मुकेश पर के एल सहगल का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखता है पर उसके बाद वो खुद को पहचान गए और अपनी ही शैली को निखारा, फिर क्या था वो एक से बढ़कर एक कर्ण प्रिय गीत हमारे लिए लाने लगे,इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था, लेकिन के एल सहगल को इनकी आवाज़ बहुत पसंद आयी और उनके गाने को सुनकर ख़ुद के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गये थे।

कुछ नया करने की चाह ने बनाया गायक और निर्माता

22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर जन्में मुकेश जब छोटे थे तब उनकी बड़ी बहन संगीत की शिक्षा लेती थीं जिसे मुकेश बड़े चाव से सुना करते थे, और यहीं से उनका संगीत के प्रति रुझान शुरू हो गया था और यहां हम आपको ये भी बताते चलें कि पार्श्व गायक के तौर पर जब उन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री में अपना एक मकाम हासिल कर लिया था तब भी , कुछ नया करने की चाह उनके मन में जगी और इसलिए वो फ़िल्म निर्माता बनें और साल 1951 में फ़िल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ निर्मित की।

अभिनय की भी थी, लगन

अभिनय का शौक भी बचपन से होने के कारण ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आये। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फ़िल्में फ्लॉप रहीं। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे। बतौर अभिनेता-निर्माता मुकेश को सफलता नहीं मिली और ग़लतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आये। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर पार्श्व गायन के शिखर पर पहुँच गये। यहूदी, मधुमती, अनाड़ी जैसी फ़िल्मों ने उनकी गायकी को एक नयी पहचान दी और फिर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ के गाने के लिए वे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए।

राजकपूर ने कहा, मेरी आत्मा हैं मुकेश

उस दौर में मुकेश की आवाज़ में सबसे ज़्यादा गीत दिलीप कुमार और राजकपूर पर फ़िल्माए ये लेकिन राजकपूर के ऊपर उनकी आवाज़ खूब पसं की गई उनके ऊपर फिल्माए गीतों को सुनकर तो यूं लगता है मानो राजकपूर खुद ही गा रहे हों ,50 के दशक में उन्हें एक नयी पहचान मिली, जब उन्हें राजकपूर की आवाज़ कहा जाने लगा। कई साक्षात्कार में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूँ मेरी आत्मा तो मुकेश है।

नए पड़ावों के साथ शुरू हुआ सम्मानों का सिलसिला

1959 में अनाड़ी फ़िल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायन का फिल्मफेयर पुरस्कार भी मिला था फिर 60 के दशक की शुरुआत में मुकेश ने कल्याणजी-आनंदजी, के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एस॰ डी॰ बर्मन के नग़्मों से की थी और फिर राज कपूर की फ़िल्म संगम में शंकर-जयकिशन द्वारा संगीतबद्ध किये गीत गाए, जिसके लिए उन्हें फिर से फ़िल्मफेयर पुरस्कार में नामांकित किया गया।

बन रहे थे नए अभिनेताओं की आवाज़

60 केदशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था और अब मुकेश अपनी गायकी में नये प्रयोग कर रहे थे, उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी।

जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाये गीत। 70 के दशक का आगाज़ मुकेश ने जीना यहाँ मरना यहाँ गाने से किया। उस वक्त के बड़े फ़िल्मी सितारों की ये आवाज़ बन गये थे।

साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फ़िल्म पहचान के गीत के लिए दूसरा फ़िल्मफेयर मिला और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फ़िल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार दिया गया।

अब मुकेश ज़्यादातर कल्याणजी-आंनदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर॰ डी॰ बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। साल 1974 में फ़िल्म रजनीगंधा के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये।

एक नई पारी के साथ गाए 70 के दशक के गीत

70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फ़िल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फ़िल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी के बेहतरीन नग़्में। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी कभी के शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी।

आखिरी सांस तक निभाया दोस्त का साथ

मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फिल्म के लिए ही गाया था और फिर 1978 को 27 अगस्त को दिल का दौरा पड़ने से वो इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए और हमारे लिए छोड़ गए अपनी उम्र भर की साधना का फल , अपने अनमोल गीतों के रूप में।

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