Gen-Z Movement Of Nepal-जनता का लोकतांत्रिक अलर्ट : आग कभी “ओहदा या रुतबा” नहीं पहचानती

Gen-Z Movement Of Nepal-जनता का लोकतांत्रिक अलर्ट : आग कभी “ओहदा या रुतबा” नहीं पहचानती – देशभक्ति और लोकतंत्र की बातें सहज लगती हैं,ऐसी आदर्श बातें जिनमें सच्चाई की नमी नहीं होती। लेकिन जब सत्ता भ्रष्टाचार, असमानता और जनभावनाओं की अनदेखी के कारण धधक उठे तो वही आदर्श हम सबको झकझोरते हैं। नेपाल में जिस तरह “Gen-Z” आंदोलन ने राजनीतिक परिवेश को पलट दिया, वह सिर्फ एक देश की कहानी नहीं बल्कि लोकतंत्र में नियंत्रण और जवाबदेही की एक सार्वभौमिक चेतावनी है। इस लेख में नेपाल की इस हालिया गहरी राजनीति-सामाजिक उथल-पुथल सहित सरकार का पतन, मंत्रियों पर हमले, संसद और उच्च न्यायालय की आग, युवाओं की ऊर्जा और लोकतंत्र की कमियों को एक समीक्षात्मक और शिक्षण-पूर्ण दृष्टिकोण से समझने का प्रयास किया गया है जिसका उद्देश्य सिर्फ घटनाओं का वर्णन नहीं, बल्कि उसे भारत और व्यापक लोकतांत्रिक देशों के संदर्भ में सोचने और सुधारने की चेष्टा के साथ मौजूद परिस्थितियों से सबक लेना-सतर्क रहना है।

नेपाल में आखिर कहां से भड़की चिंगारी ?

सोशल मीडिया प्रतिबंध पर युवाओं की नाराज़ी – सितंबर 2025 में नेपाल सरकार ने कई सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म – जैसे फेसबुक, X (पूर्व में ट्विटर), यूट्यूब आदि पर ,इनके अनाधिकृत होने की बात कहकर प्रतिबंध लगाया और साइबर अपराध व अभद्र भाषा रोकने के लिए इस प्रतिबंध को अनिवार्य कर दिया गया लेकिन इस कदम ने युवा वर्ग में व्यापक नाराज़गी और असंतोष को जन्म दिया और उनकी मांग की आवाज को सिरे से दरकिनार कहें या नजर-अंदाज कर दिया यानी युवाओं की इस पसंदीदा और वर्तमान युग की सफल विस्तृत साइटों के नाम पर गला घोंट दिया गया,बस इस घुटन में युवा छटपटा उठे और नौबत तख्तापलट से समूचे नेपाल के सुलगने तक आ गई।

“Gen-Z” यानी युवा भावनाओं का ज्वालामुखी – Gen-Z यानी जनरेशन ज़ेड के अनुसार वो युवा,जिनका जन्म 1997 से 2012 के बीच हुआ। जिन्हें जन्म के साथ ही इंटरनेट, स्मार्ट फोन,सोशल मीडिया का साथ खेल-खिलौनों की तरह मिला उनके लिए यह प्रतिबंध स्वाभाविक तौर पर स्वीकारना शायद संभव नहीं था।अतः युवा वर्ग, विशेष कर ‘Gen-Z’, ने इस प्रतिबंध को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना और विरोध स्वरूप सड़कों पर उतर आए। इस श्रेणी में भ्रष्टाचार विरोधी, असमानता विरोधी और अनियमित वर्गीकरण’ के खिलाफ व्यापक नाराज़गी शामिल रही।

जवाब में तकरार मिली तो मांग बनी हिंसा – जब युवा वर्ग से मांगे सड़कों पर गूंजने लगीं तो जैसे किसी के कानों में जूं तक न रेंगी। फिर क्या था प्रदर्शन में तेज़ी आई जिसे देख,पुलिस ने गोलीबारी की, जिसमें कम से कम 19 युवा मारे गए और फिर युवा ख़ून खौल उठा और उफ़ान मारने लगा। सुरक्षा बलों ने पुलिस, वाटर कैनन, आंसू गैस आदि का इस्तेमाल किया। युवाओं ने गुस्से, बेबसी और जवाब में प्रदर्शन को और तेज किया और उग्रता में सांसदों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री के आवास और संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट परिसर जैसे सरकारी प्रतिष्ठानों पर आग लगाने की घटनाएं अंजाम दे डाला।

प्रधानमंत्री की नाकामी बनाम इस्तीफ़ा – 9 सितंबर 2025 को तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली ने राष्ट्रपति को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया। सोशल नेटवर्किंग से प्राप्त जानकारी के अनुसार, इस्तीफे के बाद वो एक सेना के अड्डे में चले गए, कुछ रिपोर्ट के अनुसार अन्य मंत्री और नेता आरक्षित हेलीकॉप्टर्स व सेना की मदद से सुरक्षित निकाले गए। हालात इतने बेकाबू हो चले कि वित्तमंत्री विष्णु प्रसाद पौडेल सड़क पर भीड़ द्वारा पीछा किया गया और वीडियो में वह पथ पर भागते और लात-घूंसे खाते दिखाई दे रहे हैं जो लोकतंत्र तंत्र के मर्यादित आचरण से परे है।

मंत्रियों के इस्तीफ़े और संसद पर कब्ज़ा – गृह मंत्री रमेश लेखक सहित कई मंत्रियों ने गरिमापूर्ण इस्तीफ़ा दे दिया जबकि कुछ समाचारों के अनुसार कृषि मंत्री आदि समेत 21 सांसदों द्वारा भी अपना पद छोड़ दिया गया है ऐसा बताया गया और इसके परिणाम स्वरूप संसद और मीडिया कार्यालयों पर आंदोलनरत छात्रों ने अपने कब्ज़े में ले लिया।

सुलगता नेपाल, भारत के लिए लोकतांत्रिक सबक-लोकतंत्र का सुरक्षा जाल कहां हुआ फेल – ?

सत्ता का अभिजात्य दृष्टिकोण – सत्ता के निकट वर्गों जिन्हें “नेपो-किड्स” कहा गया के भव्य सुख-सुविधाएं संघर्षरत देश की ज़मीनी वास्तविकता से दूर थीं। यह असंतुलन युवा वर्ग में गहरी नाराज़गी का कारण बना।

अभिव्यक्ति पर सेंसर – सोशल मीडिया प्रतिबंध ने सिर्फ गुस्से को बढ़ावा दिया, जिसे मात्र निरंकुशता और असंवेदनशीलता ही माना गया।

हिंसा का वहशी रूप लोकतंत्र की कमज़ोरी – प्रतिरोध लोकतांत्रिक अधिकार के अंतर्गत आता है, पर हिंसा और लक्षित हमले लोकतंत्र को कमजोर करते हैं। न्यूज़ रिपोर्ट बताती हैं कि विपक्ष का निष्क्रिय होना, मीडिया पर हमले और संसद की आग लोकतंत्र की मूलधाराओं को हिला देता है।

तानाशाही से नहीं चलती सरकारें , भारत के लिए सीख ?
उत्तरदायी राजनीति और पारदर्शिता – सत्ता में बैठे लोग यदि जवाबदेही से भागे और केवल ताक़त पर टिके रहें, तो लोकतंत्र कारगर नहीं रह पाता।
भ्रष्टाचार पर प्रभावी रोकथाम – युवा वर्ग बढ़ती असमानता और भ्रष्टाचार से अधिक संवेदनशील होता है। मंच-नियंत्रण और अभिव्यक्ति की उन्नति – सोशल मीडिया या मीडिया की सेंसरशिप निष्क्रियता को बढ़ाती है,खुला संवाद ही नियंत्रण और सामाजिक समझ देता है।
पुलिस-न्याय और सुरक्षा संरचनाओं का संवेदनशील प्रशिक्षण – अत्यधिक बल का इस्तेमाल स्थानीय न्याय को कमजोर करता है।

लोकतंत्र की सीमाएं जब पार हो जाएं – “जब आग लगती है तब घर में रहने वाले का “ओहदा, रुतबा नहीं देखता” ये बात दर्शाती है कि जब गुस्सा ज़्यादा बढ़ता है तो लोग संस्थाओं के बजाय इंसानों को देख पाते हैं। यह लोकतंत्र की सीमा को छूने जैसा है, अगर सत्ता निरंकुश हो, तो जनता उसका न्याय सुनिश्चित कर सकती है फिर चाहे विध्वंस में ही सही,जो हमेशा हुआ है और भले ही इसे लोकतंत्र में “उग्र लोकतांत्रिक प्रतिक्रिया” ही कहा जाए या कहा जाता रहेगा।

अनुकरणीय संदेश – नेपाल का यह अध्याय हमारे लोकतंत्र, भारतवासियों और लोकतांत्रिक संरचनाओं के लिए एक चेतावनी-भरा सबक है क्योंकि – देश की जनता हो या युवा, कभी भी निरंकुश व तानाशाह सत्ता को बर्दाश्त नहीं करती। यदि सत्ता असंतुलित और अपारदर्शी हो, तो प्रतिक्रिया तीव्र होगी। लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं, पर यदि निरंकुशता का सामना करना पड़ जाए तो लोकतंत्र की रक्षा में जनता सड़क पर तो उतरती ही है वो किसी भी हद तक जा सकती है। अपेक्षाकृत नेपाल के भारत देश में भी भ्रष्टाचार, असमानता, अभिव्यक्ति की सेंसरशिप, और राजनीतिक परिवारवाद पर रहा है जिसमें हमें तत्काल सुधार की ज़रूरत है वो भी लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व, पारदर्शिता और युवा संवाद के माध्यम से। क्योंकि शांतिपूर्वक संवाद लोकतंत्र का आधार है, लेकिन संवाद तक पहुंच अहम ढंग से बंद कर दी जाए या संवाद बंद करा दिया जाए तो एक धीमी धार भी विकराल रूप धारण कर सुनामी बन सकती है।

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