EPISODE 29: कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे लकड़ी उपकरण FT. पद्मश्री बाबूलाल दाहिया

Babulal Dahiya

पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में ,आज आपके लिए प्रस्तुत है ,कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे लकड़ी उपकरण। कल हमने लकड़ी के चौकी,पटा,पाटी मोगरी आदि तमाम वस्तुओं की जानकारी दी है। आज उसी श्रंखला में अन्य लकड़ी उपकरणों की जानकारी प्रस्तुत है।

ठेगुरा

यह उन गाय बैलों के पैर में लगाया जाता है जो समूह को छोंड़ कर इधर-उधर भाग जाते हैं। यह उपकरण एक बित्ते लम्बी और चार इंच चौड़ी लकड़ी का बनता है। इसे रोखने से इतना कोल देते हैं जिससे हरहे जानवर के पैर में फँसा रहे और फिर उसी में एक खूँटी लगा दी जाती है जिससे वह पैर से अलग न हो। ठेगुरा के लगा देने से वह भागने वाले जानवर के पैर में टकराने लगता है। अस्तु उसकी गति धीमी हो जाती है। यह धबा, चिल्ला आदि किसी बाधिल लकड़ी का बनता है।

लेहेचुआ


यह गरियार बैलों के दमने का एक उपकरण है जिसे जमीन में दो हाथ ऊंचा एक खूंटा गड़ा उसमें 5 हाथ की बल्ली को कोल कर लगा बैल को उसी में नध दिया जाता है । जब कई दिन तक वह गरियार बैल नधा रहता है और चारा पानी भी उसे उसी स्थिति में नधे- नधे ही दिया जाता है तो बाद में वह लेहेचुआ में नधा चारोँ ओर घूमने लगता है और हल में भी चलने लगता। परन्तु आज जब बैलों का उपयोग ही नही है तो यह भी चलन से बाहर है।

गड़हर

गड़हर किसी मोटे छाल वाले पलास लभेर आदि की दो हाथ लम्बी गीली लकड़ी को बीच से आधी काट वह गरियार बैल के कंधे में डाल दी जाती है। फिर 10-12 किलो का वजन जब दिन भर कंधे में लादा रहता है तो उस गरियार बैल का कंधा मजबूत हो जाता है और वह हल में भी चलने लगता है।

खरिया की कोइली


यह लकड़ी को कोल कर य लचकाकर गोलाकार बना ली जाती थी और गेंहूँ चना आदि की लाँक अथबा भूसा एवं पुआल को बांधने वाली सुतली से खरिया में लगा दी जाती थी। कोइली तीन तरह की बनती हैं।तेंदू की ढाई इंच की चौकोर लकड़ी को कोल कर। दूसरी खरहरी की 6 इंच की गीली लकड़ी को गर्म पानी मे डाल बाद में लचका और सुतली बांध कर और तीसरी धबई की स्वाभाविक टेढ़ी लकड़ी को काट और सुतली गांस कर। इन्हें खरिया में लगा देने से नारा फँसा कर गेहूँ, चना ,भूसा,पुआल आदि सभी बस्तुओं को बांधने में आसानी होती है और सुतली में कटाव नही होता।

बैल गाड़ी

यह दो पहिये के साथ जुड़ा लकड़ी का एक ढांचा होता है। इसमें दो बैल एक साथ जोते जाते हैं। एवं पहिये की मजबूती के लिए उस के किनारे के भाग में लोह की हल चढ़ा दी जाती थी। प्राचीन समय में बैल गाड़ी का वर्णन बौद्ध काल से ही मिलता है जब सार्थवाह लोग गाड़ियों में ब्यापार की बस्तुए लाद कर दूर- दूर ले जाते थे। जब तक टैक्टर ट्राली आदि नही थे तब तक किसानों के सारे खेती किसानी के काम बैल गाड़ी से ही होते थे।पर अब चलन से बाहर है। आज इस श्रृंखला में बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारियों के साथ.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *