पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में ,आज आपके लिए प्रस्तुत है, कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे उपकरण. कल हमने लकड़ी के उपकरणों की जानकारी दी थी। आज यह काष्ठ शिल्पियों के उपकरणों की अंतिम श्रंखला है जिसमें बंचे खुचे उपकरणों की जानकारी प्रस्तुत है।
ढगा
यह लगभग दो –ढाई हाथ लम्बा और तीन इंच मोटा लकड़ी का एक ठोंगा होता है जिसके एक सिरे में रस्सी बांध उस रस्सी का दूसरा सिरा गेरमा की तरह हरहे गाय बैलों के गले में बांध दिया जाता है। गले में बांध देने से चलते समय वह उनके पैरों के बीच जमीन में फिसलता हुआ चलता है अस्तु गोल छोड़ कर भागने वाले हरहे पशु की गति धीमी पड़ जाती है।
ढोलक
कृषि आश्रित समाज में जहां गांव में काश्तकार, शिल्पकर निवास करते हैं वही एक बहुत बड़ा वर्ग कृषि श्रमिकों का भी होता है जिनके अनेक तरह के लोकगीत होते हैं। आज तो तमाम मनोरंजन के साधन हैं परन्तु प्राचीन समय में दिन भर तो वे खेतों खलिहानों में काम करते पर शाम के समय प्रायः रोज ही गम्मत होती। और उन गम्मतों का मुख्य वाद्य ढोलक ही होता। फागुन और चैत में फाग और भगत गीत भी होते। ढोलक का उपयोग अब भी है पर अब सीमित कार्यक्रमों में ही।
लकड़ी की पेटी
जब तक बाजार में चद्दर य टीन की आकर्षक सन्दूकें चलन में नहीं थीं तबतक काष्ठ शिल्पियों की बनाई कुछ लकड़ी की पेटियां भी प्रचलन में हुआ करती थीं।पर अब पूर्णतः चलन से बाहर हैं। यह पेटियां किसी खम्हार आदि हल्की लकड़ी को चीर कर उनके पटरे से बनाई जाती थीं।
आरी जोती
यह लकड़ी का मात्र छः इंच का एक उपकरण है जिसे चकरे में ऊपर निकली लकड़ी में लगाकर सुतली से कस दिया जाता था ।इसके कस देने से चकरे का वजन उसमें बट जाने के कारण घुमाने में कोई कठिनाई नही होती थी। यह किसी बाधिल और मजबूत लकड़ी की बनती थी।
डोड़ा
यह तालाबों में सिंघाड़ा लगाने वाले सिंगरहा समुदाय की एक छोटी नाव के रूप में होता है। इसे लगभग तीन फीट मोटे पेड़ को काट उसके 5-6फीट लम्बे ठोंगे की बीच की लकड़ी अलग कर खोखे नुमा बना दिया जाता है जिसमें सिंगरहा पानी में चलाते समय उसमें बैठ भी सके और तोड़ -तोड़ कर उसी के अन्दर अपनी सिघाड़ भी रख सके। यह आम,कथा आदि की लकड़ी का बनता है और अब भी चलन में है।
डोड़ी
इसे भी लगभग एक फीट चौड़ी और आवश्यकता नुसार 6-7 फीट लम्बी लकड़ी लेकर डोड़ा की तरह ही अन्दर की लकड़ी काट कर के खोखा नुमा बनाया जाता है। और गर्मी के दिनों में कुँए से पानी निकाल इसमें भर कर जानवरों को पिलाया जाता है। परन्तु अब यह चलन से बाहर है।
पड़रा
इसका उपयोग ढेकली से पानी भर कर सिंचाई करते समय होता था। क्योकि कुँए को लकड़ी से पाट कर उतना ही रखा जाता जितना कुँए से पानी खींचने की बाल्टी य मर्के को जगह चाहिए थी। परन्तु कुँए का पानी बाहर जाकर क्यारियों में पहुँचे अस्तु पाट से लेकर कुँए के भीट तक पड़रे को रखा जाता था जिससे होकर पानी बाहर तक जाता था। पड़रा भी डोड़ी की तरह ही अन्दर की लकड़ी को काटकर अलग कर के खोखे नुमा बनाया जाता था। पर इसका किनारे का एक छोर खुला रहता था जिससे पानी बहता हुआ क्यारियों में जा सके। यह मुख्यतः पलास की लकड़ी का बनता था।
ढिकुरी थामा थून्ही
ढिकुरी य ढेकली कुँए से पानी निकालने वाला एक उपकरण था जिसे शहारा देने के लिए दो लकड़ी य दो फन की एक ही मोटी सी लकड़ी जमीन में गडा कर उसमें एक ढिकुरी और थामा को जोड़ने वाली लकड़ी लगाई जाती थी। उस लकड़ी को भमरा कहा जाता था। फिर ढेकली के पिछले भाग में पानी खींचने वाले मरके के वजन बराबर गीली मिट्टी लपेट दी जाती और आगे वाले सिरे में रस्सी बांध कुँए से पानी खींचा जाता। साथ ही बाकी कुँए को लकड़ी से ढक कर उतनी ही जगह खुली रखी जाती जितने से मरका कुँए के अन्दर आ जा सके। ढेकली प्रायः ऐसी लकड़ी की बनती जो 15-20फीट पतली लम्बी बल्ली होती। ढेकली अक्सर तेंदू की लकड़ी की बनती थी। पर अब पूरी तरह चलन से बाहर है। आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारी के साथ।