पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम लेकर आए हैं, कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मृदा उपकरण या बर्तन। कल हमने मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले हंड़िया, तेलइंया, कड़ाही आदि कुछ बर्तनों को प्रस्तुत किया था। उसी श्रंखला में उन्ही द्वारा निर्मित आज कुछ अन्य बर्तन भी अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
दपकी
प्राचीन समय में जब आज जैसे पानी ले जाने के साधन नही थे तब दपकी पकी मिट्टी का हार पहाड़ में जाते समय पानी लेजाने का एक मात्र पात्र हुआ करता था। यूं तो पानी के लिए एक प्राचीन पात्र तुम्बा भी मौजूद था। पर मिट्टी शिल्पी के अनुभव जनित ज्ञान से निकले इस दपकी नामक पिटारे में तुम्बा के अपेक्षा भरा गया पानी काफी ठंडा रहता था।
इसे चाक के बजाय मिट्टी शिल्पी गीली मिट्टी कोसान हाथ से ही बनाता था जिसके पहले दो भाग होते थे। बाद में सूख जाने पर उन्हें उसी गीली मिट्टी से छाप आपस में जोड़ देता था और ऊपर पानी भरने का सुराही की तरह का एक छोटा सा मुँह भी बना देता था। अन्तर यह है कि सुराही गोल आकार की होती है पर दपकी चपटे आकर की।
आबा में पक जाने के पश्चात उसमें रस्सी भी बांधी जा सके अस्तु अगल बगल 2 कान की तरह उभरे हुए छेंद दार भाग भी रखे जाते थे। लेकिन भरा हुआ पानी छलक कर गिरे न अस्तु पानी ले जाते समय तुम्बा की तरह इसके मुंह में भी पलास के पत्ते की एक चोंगी लगा दी जाती थी। शायद इसका नाम दपकी इसीलिए पड़ा होगा कि कन्धे में लटका और कांख के नीचे दुबकाकर इस चपटे बर्तन को आराम से कहीं भी ले जाया जा सकता था।
अमूमन दपकी का उपयोग लोग बनोपज संग्रह य जंगल पहाड़ में लकड़ी काटने जाते समय करते थे। क्योकि इसमें भरा हुआ लगभग 2 लीटर पानी एक ब्यक्ति को सुबह से दोपहर तक पीने के लिए पर्याप्त हो जाता था।
कृषि आश्रित समाज में इसका एक उपयोग और था। वह यह कि तिल की बुबाई के लिए लोग इसमें तिल का बीज भर कर खेत ले जाते और निकाल कर बोते रहते। क्योकि छोटा सा मुँह होने के कारण इसमें रखे तिल के बीज की बरसात से पूरी सुरक्षा रहती थी। परन्तु अब यह चलन से पूरी तरह बाहर है।
डबुला
डबुला दूध ,तेल,अचार, कनेमन आदि अनेक वस्तुएं रखने के काम आने वाला बहु उद्देशीय पात्र होता था। इसे मृदा शिल्पी चाक में आकार देने के पश्चात कलात्मक एवं चमकदार बनाने के लिए घोट – घोट कर चिकना य खुरदरा तो बनाते ही थे पर मुख्य सूझबूझ और कारीगरी तो उसे काले रंग का करने में थी। काला रंग करने के लिए उसमें कोई काली पालिस नही पोती जाती थी। बल्कि जल रहे आबा में बार – बार पानी छिड़क धुंआ पैदा किया जाता।इस तरह धुंए को घनी भूत कर जब इन डबुलों के पास से निकाला जाता तो वे आंच में पक भी जाते और इन वर्तनों का रंग भी काला दिखने लगता। डबुला के आकार भले ही कई तरह के हों पर साइज और रंग एक जैसे ही होते थे। लेकिन चीनीमट्टी के जार और प्लास्टिक के बर्तनों ने इन्हें पूरी तरह चलन से बाहर का रास्ता दिखा दिया है।
डबलुइया
यह डबुला का ही एक लघु संस्करण है जो उसी तरह चिकनी और कलात्मक ढंग से काले रंग की बनाई जाती थी। पर इसका उद्देश्य शरीर और बालों में लगाने वाला तेल को रखना होता था। अस्तु इसकी बनावट चुकड़ी से कुछ बड़ी पर मोहड़ा छोटा होता था। इसमें सरसों य तिल का ताजा कोल्हू से पेरा हुआ तेल रखा जाता था। क्योकि प्राचीन समय में आज जैसे सीसी बोतल डिब्बे आदि कुछ नही हुआ करते थे जिनमें तेल रखा जा सके। अब यह डबलुइया पूरी तरह चलन से बाहर हो पुरावशेष बन चुकी है। आज के लिए बस इतना ही फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।