पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम लेकर आए हैं ,कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मृदा उपकरण व बर्तन।
विगत दिनों हम कई किश्तों में मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले तमाम बर्तनों की जानकारी प्रस्तुत कर चुके हैं। आज उसी श्रंखला में मिट्टी शिल्पियों द्वारा निर्मित कुछ अन्य बर्तनों की जानकारी भी प्रस्तुत हैं।
दोहनी
जैसा कि नाम से ही स्पस्ट है की जिसमें कुछ दोहन किया जाय या दूध दुहा जाय वह दोहनी। अब तो दूध दुहने और रखने के लिए तरह- तरह के बर्तन उपलब्ध हैं। परन्तु प्राचीन समय में गाय, भेड़ ,बकरी, भैंस सभी का दूध दुहने का एक मात्र बर्तन दोहनी ही हुआ करती थी। यही कारण है कि इसका वर्णन पौराणिक ग्रन्थों तक में मिलता है।
यहां तक कि संस्कृत भाषा में लड़की को (दुहिता ) शायद इसीलिए कहा गया है कि उस कालखंड में दूध दुहने का दायित्व बेटियों के जिम्मे ही रहता था।दोहनी डबुला से बड़ी और घइला से कुछ छोटी होती है। परन्तु घइला लाल रंग का होता है और वह काले रंग की चमकीली बनाई जाती है। दोहनी को भी डबुला, मेटिया आदि की तरह ही आबा में पानी सीच – सींच कर धुंआ के साथ पकाया जाता है।
दोहनी में दूध दुहने के बाद उसे हर बार आग मे सोधाना आवश्यक होता था। इसके लिए उसे धोकर चूल्हे में औंधा रख दिया जाता था। यदि दोहनी में दूध पकाया जाय तो वह बहुत स्वादिष्ट होता था जिसे उस जमाने में (अधावट दूध) कहा जाता था। पर वर्तमान में यह भी चलन से बाहर होकर पुरावशेष का रूप ग्रहण कर लिया है।
ठेकइया
ठेकइया दोहनी से छोटा और डबुला से कुछ बड़ा दोनों के बीच का एक मिट्टी का बर्तन है जो प्रायः दूध पकाने और मठ्ठा रखने के काम आता था। वैसे न तो हर घर में पशु पालन होता था न ,ही दूध को जमाकर मठ्ठा बनाया जाता था? परन्तु यह बर्तन दूसरे के घर से मट्ठा लाने के लिए भी हर घर में रहता था।
ठेकइया का मुँह दोहनी से कुछ चौड़ा होता था और इसमें पकाया गया दूध बहुत ही स्वादिष्ट। क्योकि उसमें पकाने से दूध में एक सोंधी – सोंधी खुश्बू आने लगती थी। यही कारण था कि प्राचीन समय में ठेकइया हर परिवार का एक अनिवार्य मिट्टी पात्र था। पर इसको आवा में पकाने का तरीका डबुला एवं दोहनी जैसा ही था। क्योकि यह भी काले रंग का ही बर्तन था। पर अब स्टील के वर्तनों के सामने पूरी तरह पुरातत्व की वस्तु बन चुका है।
ताई
ताई एक चौड़े आकर का कूंड़ें की तरह का बर्तन था जो 60 के दशक तक भरपूर चलन में रहा। पर उसी दशक में जब टीन य लौह की बाल्टी आगईं तो चलन से बाहर हो गया।पहले इसे बर्तन साफ करने के लिए मजनोरा में रखा जाता और इसमें घड़े द्वारा कुएँ से पानी निकाल कर भरदिया जाता था।
किन्तु जब कोई विकसित प्रणाली आ जाती है तो ओल्ड प्रणाली अपने आप समाप्त हो जाती है। यही कारण है कि बाल्टी से जब दोनों काम एक साथ होने लगे तो इसकी आवश्यकता ही समाप्त हो गई। ताई लाल और काले दोनों रंग की बनती थीं और दोनों का उपयोग भी समान था।
इसे मिट्टी शिल्पी चाक से ही बनाते थे। पर इसका दल अन्य वर्तनों से कुछ मोटा होता था। अगर घर में एक दो पशु होते तो इसमें भर कर उन्हें पानी भी पिला दिया जाता था। ताई हमेशा एक स्थान में ही स्थाई तौर पर रखी रहती थी।लेकिन अब पूरी तरह चलन से बाहर है। आज के लिए बस इतना ही,फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।