आज हम लेकर आए हैं पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी के अंतर्गत छठवीं कड़ी यानी कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मृदा उपकरण व बर्तन। बिगत दिनों हमने मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले कुछ बर्तनों को प्रस्तुत किया था। उसी श्रंखला में उन्ही द्वारा निर्मित आज कुछ अन्य बर्तन भी प्रस्तुत हैं।
मेटिया
मेटिया की कई कलात्मक डिजाइनें होती थी।मेटिया मुख्य रूप से अचार और घी रखने के काम आती थी। दरअसल प्राचीन समय में कुछ पशु पालक जातियों को छोड़कर दूध बेचना किसानों के परिवार में निंदनीय कार्य माना जाता था। गांव में जब 40–50 के दशक तक वनस्पति घी नही आया था तब किसानों के घरों में जो भी प्रतिदिन खाने से दूध बचता तो उसका जामन डाल दही बनाकर घी निकाला जाता। अस्तु विवाह एवं यज्ञ भंडारे आदि में घी की ही पूड़ियां बनती थीं। लोगों की आवश्यक्ता देख उस घी के रख रखाव के लिए मिट्टी शिल्पी बड़े- बड़े मजबूत मोटे दल के कलात्मक चिकने बर्तन बनाते जिन्हें (मेटिया) कहा जाता था। यह भी दोहनी डबुला की तरह काले रंग की ही होती थी। परन्तु उनसे मोटी चिकनी और काफी मजबूत।
पशु पालक समुदाय तो इन्ही मेटिया में भर कर राजाओं को कर के रूप में घी देता जिसे ‘घी भरी मेट की भेट ‘ कहा जाता। यही कारण है कि उसका वर्णन यादव समुदाय के विरहा गीत में अभी भी मिलता है कि,
“सामन समनी ना पाए राजा,
धउ पाए न घिउ कय मेंट।
कउन जरब तोही अइसा पर गय,
जउन रउरे से भेजे बोलाव।।”
पर इसकी एक उपयोगिता अचार रखने में भी थी। क्योकि यदि इस मेटिया में तेल नमक के साथ अच्छी तरह से दाब कर आम का अचार रख दिया जाता तो वह दो वर्ष तक खराब नही होता था और उसे आराम से खाया जा सकता था।
अब न तो घी का उस तरह उपयोग रहा न, ही प्लास्टिक के जार के सामने इस मेटिया की अचार हेतु उपयोगिता ही बची। यही कारण है कि अब यह चलन से भी बाहर हो गई है।
डब्बी (ढेबरी)
डब्बी में केरोशिन (मिट्टी का तेल ) जलाया जाता था। इसका इतिहास बहुत पुराना नही है। जो है वह 40 के दशक तक का है। इसके पहले प्राचीन समय में प्रकाश के लिए एक अन्य वस्तु हुआ करती थी वह थी मिट्टी की छोटी सी (दिया ) जिसमें अलसी का तेल जलाया जाता था।
हजारों वर्ष तक वही दिया प्रकाश देती रही जो आज भी अनेक धार्मिक संस्कारों में शामिल है। पर अंग्रेजों ने जब कैरोसीन की खोज करली और उसको जलाने के लिए खूब सूरत चिमनी ,लालटेन आदि भी बनालिया तो 30-40 के दशक में यहां के मिट्टी शिल्पियों के अक्ल ने भी जोर मारा एवं उनने मिट्टी का उसी तरह का एक लैम्प बनालिया जिसे डब्बी य ढिबरी कहा जाने लगा।
यह दो खण्ड में होती थी पहला तेल भरने के लिए कुण्ड नुमा खोखला भाग और दूसरा ऊपर का ढक्कन नुमा खण्ड जिसमें कपड़े य रुई की बाती डालने के लिए एक छिद्र भी बना होता था। इस छिद्र से निकाल बाती का एक सिरा तेल में डुबाया रहता और दूसरा सिरा डब्बी के ऊपरी भाग में होता था जिसमें आग जला देने से प्रकाश होने लगता था।
डब्बी काले रंग की होती थी जिसे घोट कर चिकनी बनाया जाता था। इसे मिट्टी शिल्पी चाक के बजाय अपने हाथ से ही बनाते थे एवं उसे हाथ से पकड़ने केलिए एक नोक भी बढ़ा देते थे। पर 80 के दशक के बाद हर जगह विद्युतीकरण हो जाने के कारण अब यह पूर्णतः विलुप्तता की ओर है। आज के लिए बस इतना ही फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।