Babu Lal Dahiya: यद्दपि स्वर्णकार समुदाय हमारे कृषि आश्रित समाज के वस्तु विनिमय से उस तरह नही जुड़ा होता था जिस तरह अन्य शिल्पी जातियां। परन्तु कुछ खास ग्रामों में बस कर वह भी किसानों और कृषक महिलाओं के आभूषण बनाता था। साथ ही कर्ण छेदन आदि संस्कारों के समय बालक बालिकाओं के लिए सोने या तांबे की बालियां से कान भी छेदता था।
जिस तरह लौह शिल्पियों के अपने कार्य हेतु कई तरह के उपकरण होते हैं उसी प्रकार स्वर्णकारों के भी। पर लौह शिल्पी के हथौड़े संसी निहाई आदि जहां बहुत बड़े आकर के होते हैं वहीं स्वर्णकरों के छोटे — छोटे। यही कारण है कि उनके हथौड़ी हथौड़ा पर एक कहावत ही बन गई है कि –
(सौ सोनार की तो एक लोहार की)
क्योकि स्वर्णकार जितनी अपनी छोटी सी हथौड़ी से सौ बार ठुक-ठुक करेंगे उतना लौह शिल्पी का हथौड़ा एक बार में ही चोंट कर देगा।परन्तु इसके बाबजूद भी उनके कुछ अलग औजार भी रहते हैं।
परगहनी
इसमें रखकर स्वर्णकार धातुओं को गर्मकर पानी की तरह पिघला उसे आभूषणों के सांचों में ढालते हैं।
फुकनी
इससे फूंक कर भट्ठी की आग को गर्म किया जाता है।
चिमटी
इससे पकड़ -पकड़ कर स्वर्णकार गहनों को बनाने और उन्हें अलंकृत करने का काम करते हैं।
कैंची
यह एक सोने चांदी के टुकड़े काटने की स्प्रिंग दार कैंची होती है जिससे आभूषण बनाते समय उपयोग होता है।
छेनी
यह एक छोटे आकार की छेनी होती है जो बारीक टुकड़े काटने य आभूषणों को कलात्मक बनाने के काम आती है।
आज बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला में नई जानकारी के साथ।