पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज आपके लिए लेकर आए हैं, कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे लौह उपकरण। कल हमने भूले बिसरे लौह उपकरणों में करछुली, कांटा ,झझरिया, छन्ना आदि तमाम उपकरणों की जानकारी दी थी। आज उसी श्रंखला में कुछ अन्य उपकरणों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।
मूसल की साम
यह मूसल के किनारे मोटे भाग में बने खांचे में लगने वाला 1अंगुल मोटा चपटा एक छल्ला होता है जो कांड़ी में चावल कूटते समय उसे मजबूती प्रदान करता है। पर अब चलन से बाहर है।
तबा
यह रोटी पकाने का एक लोह उपकरण है जो लगभग एक बीता लम्बा चौड़ा गोल आकार का होता है। इसमें पहले रोटी बनाकर गर्म की जाती हैं फिर घरी में खड़ी रखकर सेंकी जाती है। तबा आज भी प्रचलन में है।
डोल
यह लोह के पतुरों को जोड़ कर बनी एक प्राचीन बाल्टी हुआ करती थी जिसमें ऊपर तार के कड़े लगाए जाते थे पर जबसे बाजार में टीन की बाल्टी आईं यह पूरी तरह चलन से बाहर है।
सांकल कुंडा
यह किवाड़ और चौकठ में ठोंका जाने वाला सांकल एवं उसका कुंडा हैं जो दोनों पीछे की ओर चोंखे रहते हैं और इन्हे गर्म करके किवाड़ में ठोक इस तरह मोड़ दिया जाता है कि उसे कोई अलग न कर सके। यदि घर के सभी सदस्य कहीं जाएं तो इनमें बाहर से ताला भी लगाया जा सकता है। अब इसका स्थान भी अब स्टील के कुंडे ने ले लिया है।
घन
यह लगभग 6 इंच लम्बा 4 इंच चौड़ा गोल आकार का एक लौह पिण्ड होता है जिसमें लकड़ी का बना डेढ़ हाथ का बेंट लगा रहता था। इसका उपयोग किसान छेनी के साथ कुँए की पत्थर की चट्टान तोड़ने में करते थे।
पर अब यह सिर्फ लौह शिल्पी के उपयोग की चीज बन कर रह गया है।
छेनी
यह लगभग 6से 9 इंच लम्बी दो इंच गोल किन्तु नीचे पतली धार दार एक लोह की पिंडी होती है जो पहले कुँए में पड़ी पत्थर की परत को घन य हथौड़े के साथ तोड़ने के काम आती थी। अब यह लौह शिल्पियों के काम की वस्तु बन कर ही रह गई है।
आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।