पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम लेकर आए हैं , कृषि आश्रित समाज के भूले बिसरे मिट्टी की वस्तुए या बर्तन।
कल भी हमने मिट्टी शिल्पियों द्वारा बनाए जाने वाले बर्तनो या वस्तुओं की जानकारी दी थी। आज उसी श्रंखला में उन्ही द्वारा निर्मित कुछ अन्य वस्तुओं की जानकारी भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
पहले बात करते हैं , हूंम गोरसी की,
हमारा कृषि आश्रित समाज किसानों के साथ- साथ कृषि श्रमिकों एवं शिल्पियों का भी था जिसमें जबारे बोने से लेकर भुयार गिरी और देवी देवताओं के हूंम ग्रास जैसी उपासना विधि शामिल थी। यह हूंम जमीन में आग के अंगारे में घी डाल कर दी जाती थी।पर उसे किसी सुव्यवस्थित पात्र में कण्डे की आग में दिया जाय इसके लिए मिट्टी शिल्पियों ने एक ( हूंम गोरसी) ही निर्मित करली थी जिसका धार्मिक कार्य से जुड़े रहने के कारण आज भी महत्व है।
करबा
यह चुकरी से बड़ा उसी तरह के आकार का बनने वाला एक मिट्टी का बर्तन है जो अक्षय तृतीया के दिन घइला के साथ पूरक के रूप में इसे भी मिट्टी शिल्पी दे जाते हैं।और यह भी उसी पूजा में शामिल किया जाता है। इसे बघेली में (तुतुइया) कहा जाता है।
क्योकि पानी निकासी के लिए इसमें एक टोटी सी बनी रहती है। प्राचीन समय में हो सकता है इसका उद्देश्य घड़े से इसमें पानी भर फिर टोटी के द्वारा पीने का रहा हो।पर बाद में पीतल काँसे के बर्तनों के आजाने से उसके उपयोग की जरूरत ही न रही हो? अस्तु वह परम्परा में तो शामिल रहा आया पर यथार्थ में नही है।
करई
कृषि आश्रित समाज में कुछ ऐसा समाज भी शामिल था जिनमें प्राचीन समय में दारू पीने को एक सामाजिक मान्यता मिली हुई थी।कुछ लोग उसे ( देव मदाइन) कह देवी के रूप में भी महत्व देते थे। हो सकता है की उस समय हर वर्ष हैजा जैसी जानलेबा बीमारी के आने और दारू उसकी कारगर दबा होने के कारण यह लोक मान्यता बनी हो। पर मिट्टी शिल्पियों ने सामूहिक मद्य पान हेतु भी एक मिट्टी का पात्र तैयार कर दिया था। वह था ( करई) जिसे कुल्लड़ भी कहा जा सकता है। यह सभी वर्तनों से अलग गिलास की तरह का बनता था। पर अब कांच की गिलास आजाने के कारण यह पूरी तरह उपयोग से बाहर है।
चुकरी
चुकरी और दिया मिट्टी शिल्पियों के सब से छोटे बर्तन हैं जो चाक से ही बनाए जाते हैं।चुकरी मुख्यतः पूजा की वस्तु है जो हरछठ के दिन महुआ की डोभरी, भैंस का दही और सात प्रकार के अनाजों का लावा उनमें रख कर पूजा जाता है। बांकी पूजा के बाद इसकी कोई खास उपयोगिता नही होती। हाँ मरने के पश्चात दशगात्र के पहले 9 दिन तक अवश्य मृतक को दिया में भोजन और चुकड़ी में पानी रखने की परम्परा है। कुछ लोग पहले इसमें हल्दी नमक कनेमन आदि रखते थे। पर प्लास्टिक और कांच के वर्तनों ने उन्हें भी समाप्त कर दिया है। आज के लिए बस इतना ही कल मिलेंगे कुछ और जानकारी के साथ इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।