Avadhesh Pratap Singh Biography In Hindi, APS University History: विंध्य की राजनीति में वैसे तो कई प्रभावशाली एक से बढ़ कर एक दिग्गज राजनेता रहे हैं, लेकिन उनमें कप्तान अवधेश प्रताप सिंह की बात ही अलग है। क्योंकि वह विंध्य के इतिहास में ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर यहाँ आधुनिक लोकतांत्रिक राजनीति की नींव डाली।
जिनके नाम से रीवा में एक विश्वविद्यालय स्थापित है, लेकिन इसके बावजूद भी उनके बारे में लोग बहुत कम जानते हैं, उनके जीवन संदर्भ के बारे में किताबें इत्यादि भी कम ही मिलती हैं।
कौन थे अवधेश प्रताप सिंह | Avadhesh Pratap Singh Biography
कप्तान अवधेश प्रताप सिंह भारत के एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वह उनका जन्म वर्ष 1888 में तब के रीवा रियासत और आज के मध्य प्रदेश के सतना जिले के रामपुर बघेलान में हुआ था। वह एक जागीरदार परिवार से सबंध रखते थे।
उन्होंने इलाहाबाद से कानून की पढ़ाई की थी और कुछ समय तक रीवा रियासत की सेना में कैप्टन और मेजर के रूप में सेवा की। लेकिन बाद में, उन्होंने रियासत की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया और राजेंद्रनाथ लहरी जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की योजना बनाई, हालांकि यह योजना सफल नहीं हुई।
कांग्रेस से जुड़कर आंदोलन में की भागीदारी
बाद में वह कांग्रेस से जुड़ गए, विंध्य क्षेत्र से वह कुछ उन प्रारंभिक व्यक्तियों में थे, जिन्होंने यहाँ बघेलखंड में कांग्रेस की आधारशिला रखी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़कर उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया, जिसके कारण वे 1921 से 1942 के बीच लगभग चार वर्ष जेल में भी रहे।
सामाजिक सुधार के लिए उठाए क्रांतिकारी कदम
अवधेश प्रताप सिंह राजनेता के साथ-साथ ही एक सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। चूंकि वह रीवा रियासत के एक पवाईदार परिवार से संबंध रखते थे। इसीलिए महात्मा गांधी से प्रभावित होकर उन्होंने अपने क्षेत्र में सामाजिक सुधार के कार्यक्रम भी प्रारंभ किए।
इसी कड़ी में उन्होंने एक क्रांतिकारी फैसला लेते हुए 1920 में अपने परिवार के दो मंदिर दलितों के लिए खुलवा दिए, उस समय के समय के रूढ़िवादी और सामंतवादी परिवेश में सामाजिक क्षेत्र में यह बहुत ही बड़ा और महत्वपूर्ण फैसला था। उनके इस फैसले का उनके ही कई परिजनों ने विरोध किया, लेकिन कैप्टन का फैसला दृढ़ था।
विंध्य प्रदेश के पहले प्रधानमंत्री | Vindhya Pradesh Ke Pahle Pradhan Mantri
15 अगस्त 1947 में दो सौ सालों की ब्रिटिश गुलामी से भारत आजाद हुआ, रीवा रियासत और बुंदेलखंड एजेंसी की 35 छोटी-छोटी रियासतों को मिलाकर एक नए राज्य विंध्य प्रदेश का निर्माण किया गया। तब इस राज्य का पहला प्रधानमंत्री कप्तान अवधेश प्रताप सिंह को ही बनाया गया। उन्हीं के नेतृत्व में मंत्रीमंडल का गठन हुआ, वह छोटी-छोटी अवधियों के लिए दो बार विंध्य के प्रधानमंत्री बने। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने उन्होंने विंध्यप्रदेश में शिक्षा के प्रसार पर विशेष ध्यान दिया। वर्ष 1946-1950 तक वह भारतीय संविधान सभा के सदस्य भी थे। और बाद में वह 1952 से लेकर 1960 तक भारतीय उच्च सदन अर्थात राज्यसभा के सदस्य भी रहे।
पंडित नेहरू से मुलाकात का एक मजेदार किस्सा
लेकिन विंध्यप्रदेश का प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनकी सादगी बहुत कमाल की थी। कप्तान साहब का एक किस्सा बड़ा मशहूर है, कि वे हाफपैंट पहना करते थे। दफ्तर में भी प्रायः उनकी यही ड्रेस हुआ करती थी।
संभवतः कांग्रेस सेवादल से जुड़ने के कारण ऐसा रहा होगा। कप्तान अवधेश प्रताप सिंह का तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के साथ मुलाकात का एक किस्सा रीवा के वरिष्ठ पत्रकार जयराम शुक्ला बताते हैं। एक बार कप्तान साहब दिल्ली गए नेहरू जी से मिलने।
तीन मूर्ति भवन में बाहर खड़े संत्री से कहा..पंडित जी को बता दीजिये विन्ध्यप्रदेश का प्रधानमंत्री उनसे मिलने आया है। कप्तान साहब की हाफपैंट वाली ड्रेस देखकर संत्री सटपटा गया। उसने समझा कोई सिरफिरा है, यही सोचकर उसने यह खबर अंदर तक नहीं पहुंचाई। बेफिक्र कप्तान साहब मूंगफली चाबते तीनमूर्ति के बाहर लेफ्ट राइट करते रहे।
घंटों बाद जब नेहरू बंगले के अंदर से निकले और उनको खबर लगी, तो संत्री को ड़ाटा..कि नेहरू के दरवाजे पर कोई खुद को प्रधानमंत्री कह रहा है तो वह प्रधानमंत्री ही होगा। उसके बाद पंडित नेहरू ने सम्मान से कप्तान साहब को बुलाया और नाश्ते की मेज पर राजकाज की बातें की।
दार्शनिक विचारों वाले विद्वान व्यक्ति थे कप्तान साहब
अवधेश प्रताप सिंह बेहद विद्वान व्यक्ति माने जाते थे और थोड़ा दार्शनिक विचारों के भी थे। उनको ‘द्वंद्वात्मक भौतिकवाद’ और ‘इतिहास के अर्थशास्त्रीय अध्ययन’ का गहरा ज्ञान था। हालांकि विंध्य में कांग्रेस को स्थापित करने वाले, वह कांग्रेस के सच्चे कार्यकर्ता थे, लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में, वे कांग्रेस में सत्ता की प्रवृत्तियों के प्रखर आलोचक बन गए थे।
कानपुर में हुआ निधन
उनका निधन 16 जून 1967 को कानपुर में हो गया था। विंध्य के राजनीति का यह सितारा हमेशा के लिए डूब गया, लेकिन उनकी प्रभा की लौ, विंध्य रूपी आकाश में अभी भी विद्यमान है, बस जरूरत है, उस लौ को पहचानने की। बाद में मध्यप्रदेश सरकार ने जब रीवा में विश्वविद्यालय की स्थापना की, तो उसका नामकरण अवधेश प्रताप सिंह के नाम से किया गया।
चौथी पीढ़ी राजनीति में
अवधेश प्रताप सिंह का विवाह महराज कुमारी से हुआ था। जिससे उन्हें एक बेटा और एक बेटी हुई। उनके बेटे गोविंद नारायण सिंह 1967 में संविद सरकार के दौरान मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। बाद में वह बिहार के राज्यपाल भी बने थे। उनके पोते हर्षनारायण सिंह भी चार बार विधायक और मंत्री थे। एक और पोते ध्रुवनारायण सिंह भोपाल से विधायक थे। जबकि उनके चौथी पीढ़ी में परपोते विक्रम सिंह अभी मध्यप्रदेश के रामपुर विधानसभा से विधायक हैं।