जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं कि हमारा कृषि आश्रित समाज मात्र वह समाज भर नही है जो खेती किसानी करता था ? बल्कि वह समस्त खेती से जुड़ा समाज है जो गाँव ,में रहकर हमें तरह – तरह के खेती से सम्बंधित उपकरण एवं समूचे गांव के दैनिक उपयोग की वस्तुएँ देता था। उसी से बना था हमारे गाँव का एक समाजिक और आत्म निर्भर ढांचा जिसके हाथ में कभी समूची बिकास की धुरी ही घूमा करती थी। पर अब वह अतीत की चीज है। क्योकि पहले गांव से बन कर चीजें शहर जाती थीं अब शहर से चीजें गांव आती हैं।
प्राचीन समय में शुरू -शुरू में भले ही मनुष्य का भोजन हड़िया, तेलइया आदि मिट्टी के बर्तनों में बनता रहा हो, पानी रखने केलिए मिट्टी के कूँड़े , लकड़ी के कठौते व पत्थर के बर्तन उपयोग में लाए जाते रहे हों ? पर एक लम्बे समय से धातु के बर्तन भी हमारे उपयोग की वस्तु बन चुके थे जिनकी हांडा , बटुआ, कोपरी, कसहड़ी से लेकर लोटा, थाली, खोरबा, खोरिया तक एक लम्बी श्रंखला थी। वर्तनों में उपयोगी धातु को शोध कर वर्तन का आकार देने वाला समुदाय था ताम्रकार समाज। पर यह समाज हर एक गांव में नही बसता था। उसके लिए कुछ खास तरह के प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत भी होती थी। वह थे –
1– साँचा एवं भट्ठी बनाने हेतु चिकनी मिट्टी।
2– धातु गलाने हेतु सेहेरुआ (हर श्रंगार) की लकड़ी। 3– धातु ढालने में उपयोगी लकड़ी के साँचा बनाने हेतु चिल्ला की लकड़ी।
4– गर्म धातु कूटने की मोगरी बनाने हेतु तेंदू की बाधिल किस्म की लकड़ी।
5– पुराने बर्तनों में लगी जंग छुड़ाने के लिए आंवला,अमरोला, रीठी आदि के फल जिससे बर्तन से जंग छुड़ाने वाला घोल बनता था।
6– भमाई कर के बर्तन से जंग छुड़ाने के लिए खूंटा हेतु खैर की साल वाली लकड़ी।
7– धातु को रख कर कूटने के लिए विशेष प्रकार का मजबूत पत्थर जिसकी पहचान धातु शिल्पी ताम्रकारों को ही रहती थी।
8– बस्ती में आस पास ही यह तमाम वस्तुएं उपलब्ध कराने वाले श्रमिक एवं गधे खच्चर आदि में लाद कर जरूरी सामग्री लाने वाला समुदाय ।
9– चारों ओर सघन ग्रमीण क्षेत्र जहां निर्मित बर्तन बेंचे जा सकें।
इस तरह ताम्र शल्पियों का यह समुदाय वहीं बसता था जहां उनके उपयोग के लिए भरपूर मात्रा में यह तमाम प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध होते। फिर वह धातु शिल्पी किस प्रकार ताँबा एवं जस्ता के एक खास अनुपात से कभी पीतल, कभी कांसा तो कभी उसे फूल के वर्तनों में बदल देते। किस प्रकार सेहेरुआ की लकड़ी से धातु को गला कर पानी की तरह पिघला देते? चिल्ला के लकड़ी से साँचा बना एवं धातु को पत्थर में रख बाधिल किस्म के तेंदू के मोगरे से कूट – कूट कर उसको किस प्रकार बढ़ाते तथा अन्य औजारों से बर्तन को आकार देते ? यह दिलचस्प बात हुआ करती थी। तो आइए ताम्रकारों के बनाए 25 – 30 प्रकार के उन वर्तनों को भी देखें जो हमारे कृषि आश्रिति समाज से लम्बे समय से जुड़े थे? परन्तु बाजार में एक नई विकसित प्रणाली से निर्मित स्टील के बर्तन आजाने के कारण अब अधिकांश चलन से बाहर होते जा रहे हैं। लोटा — लोटा पूजा पाठ के लिए भले ही तांबे का बनता रहा हो परन्तु पानी पीने के लिए अमूमन कांसा ,का ही बनाया जाता था जो 100 के अनुपात में तांबा और 60 के अनुपात में जत्सा मिलाने से बनता था।इसकी डिजाइनें भले ही कई तरह की रही हों पर धातु एक जैसी ही होती थी। जब यह उपयोग करते – करते फूट भी जाता तो धातु शिल्पी इसे आधे दाम पर पुनः खरीद लेते । क्योकि सोने चांदी की तरह ही यह कांसे की धातु भी मूल्यवान मानी जाती थी। यहां तक कि यदि किसी गरीब आदमी के सामने कोई अति आवश्यक कार्य आजाता और उसे कहीं उधार न मिलता तो वह उस लोटे को गिरबी रख य बेंच कर अपनी जरूरत भी पूरी कर लेता था। वैसे लोटा तो अब भी उपयोग में है पर अब मूल्यवान नही बल्कि ( यूज ऐंड थ्रो ) स्टील धातु का जिसका फूट जाने पर बाजार में कोई मूल्य नही है। इसलिए पुराने लोटे का अब पुरा वस्तु का रूप धारण करना स्वाभाविक हैं। अस्तु अब उसे सम्हाल कर रखने की भी जरूरत है। आज नही तो कल फ्रीज में रखे बोतल का पानी पीने वाली मनुष्य की अगली पीढ़ी हो सकता है कभी उसे उलटा पलटा कर देखे। और पुरर्खों के अबदान पर चर्चा करे जैसे आज परमाणु युग में भी प्राचीन राजाओं के भाला, बरछी,ढाल- तलवार देखे जाते हैं। एवं उनके अतीत पर चर्चा होती है। टठिया (थाली) ——- अब तो बाजार में कई प्रकार की (यूज ऐंड थ्रो) स्टील थालियों की भरमार है। परन्तु प्राचीन समय में दो प्रकार की थाली ही होती थी जो काँसे की बनती थी ।
1– खड़ी बाटी की
2– पालस बाटी की
उस काँसे की थाली को बनाने के लिए 100 % ताँबा में 60 % जत्सा मिलाया जाता था। भट्टी में गर्म करके पहले उसका गोलाकार आकार बनाया जाता फिर पत्थर में रख कर तेंदू के मोगरे से कूट -कूट कर उसे बढ़ाया जाता।
लेकिन थाली का आकर देने के बाद भी उसे लौह के औजारों से छील कर चिकना रूप दिया जाता तब दूकान में बिक्री लायक वह थाली होती थी। पर अब स्टील के बर्तन आने के बाद फूल की थाली पूरी तरह चलन से बाहर हैं।यदि किसी के घर में हैं भी तो वह किसी अंधेरी कोठरी में जंग खा रही हैं ।
खोरबा खोरिया —– यानी कि कटोरा कटोरी का भोजन के बर्तन में पहले से ही बहुत बड़ा महत्व था और आज भी है। क्योंकि उसमें दाल ,सब्जी ,भुर्ता , दूध, मठ्ठा , शक्कर ,घी आदि अनेक वस्तुएं रख कर परोसी जाती थीं। यदि वह छोटे आकार की हुई तो खोरिया पुकारी जाती जिसमे,घी,शक्कर नमक आदि परोसा जाता और बड़े आकार का होने पर वही खोरबा कहलाने लगता जिसमें दाल सब्जी,दूध आदि परोस कर रखा जाता था। यह पीतल कांसा आदि दोनों धातुओं के बनते थे और उनकी अनेक डिजाइनें भी हुआ करती थीं। हां अनुपात यही था कि100 एवं 60 के माप में तांबे व जत्सा के मिला देने से जहां कांसा बन जाता था वही 100 और 40 के अनुपात में पीतल। बाकी भट्ठी में गर्म करना कुटाई पिटाई आदि बनाने का तरीका तो सभी वर्तनों का एक जैसी ही होता था। पर अब तो स्टील के कटोरी कटोरों की ही बाजार में भरमार है। अस्तु वह दिन दूर नही जब सभी पीतल काँसे के बर्तन पुरावशेष बन कर रह जाँयगे।
आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे नई जानकारी के साथ इस श्रृंखला की अगली कड़ी में।