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पर्यावरण संरक्षण: व्यक्तिगत जिम्मेदारी बनाम सरकारी नीतियाँ |

~डॉ रामानुज पाठक सतना (म.प्र.)

21वीं सदी के आरंभिक दशकों में विश्व एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ विज्ञान, विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है। पर्यावरण संकट अब केवल वैज्ञानिक या पारिस्थितिकीय चिंता नहीं रह गया है, बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक और नैतिक मुद्दा भी बन चुका है। भारत सहित विश्व के अनेक देश जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, जैव विविधता के विनाश, जल और वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में यह विचार अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किसका योगदान अधिक महत्वपूर्ण है – व्यक्तिगत जिम्मेदारी का या सरकारी नीतियों का?


इस बहस का एक समग्र, विज्ञानसम्मत और सामाजिक विश्लेषण प्रस्तुत करना समयानुकूल है, जो नीति-निर्माताओं, नागरिकों और शिक्षाविदों के लिए एक उपयोगी दृष्टिकोण विकसित करने में सहायक सिद्ध हो सकता है।


व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भूमिका: छोटे कदम, बड़े परिणाम


पर्यावरण संरक्षण की यात्रा व्यक्ति से ही शुरू होती है। प्रत्येक नागरिक के छोटे-छोटे कदम सामूहिक रूप से बड़ी उपलब्धियों में बदल सकते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो मानव व्यवहार पर्यावरणीय प्रभावों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है।

कुछ प्रमुख बिंदुओं पर दृष्टि डालें:


ऊर्जा संरक्षण: शोध बताते हैं कि घरेलू क्षेत्र में कुल ऊर्जा खपत का लगभग 25–30% हिस्सा अनावश्यक उपयोग में चला जाता है। यदि हर नागरिक ऊर्जा कुशल उपकरणों का उपयोग करे और अनावश्यक विद्युत उपकरण बंद रखे, तो राष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा बचत संभव है।


जल संरक्षण: जल संकट का मुख्य कारण केवल जल की कमी नहीं, बल्कि उसका अपव्यय और प्रदूषण है। जब व्यक्ति अपने घरों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग जैसे उपाय अपनाते हैं या दैनिक कार्यों में जल की बचत करते हैं, तो इससे भूजल स्तर बनाए रखने में मदद मिलती है।


अपशिष्ट प्रबंधन: कचरा पृथक्करण, जैविक अपशिष्ट का खाद में परिवर्तन, और पुनःचक्रण (रिसाइकलिंग) की आदतें न केवल पर्यावरण को स्वच्छ बनाती हैं, बल्कि स्वच्छता के साथ रोजगार और स्थायी विकास के अवसर भी सृजित करती हैं।
नैतिकता और प्रकृति का रिश्ता: भारतीय संस्कृति में ‘प्रकृति को पूज्य मानने’ की परंपरा रही है। जब व्यक्ति इस भाव को अपने जीवन में अपनाता है, तो पर्यावरण के प्रति उसकी जिम्मेदारी केवल व्यवहारिक नहीं, बल्कि नैतिक भी बन जाती है।


सरकारी नीतियों की शक्ति: नीति, कार्यान्वयन और नेतृत्व


सरकारें व्यापक योजनाओं, कानूनों और संसाधनों के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण को दिशा दे सकती हैं। जब कोई समस्या राष्ट्रीय या वैश्विक स्तर पर होती है, तब केवल व्यक्तिगत प्रयास पर्याप्त नहीं होते, नीति-निर्माण और शासन-तंत्र की भी आवश्यकता होती है।

वैज्ञानिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से कुछ प्रमुख पहलुओं पर ध्यान देना आवश्यक है:


कानून और प्रतिबंध: पर्यावरणीय विनियमन, जैसे वायु (प्रदूषण नियंत्रण) अधिनियम, जल अधिनियम, प्लास्टिक प्रतिबंध, और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की स्थापना जैसे उपाय केवल सरकार ही लागू कर सकती है।


सार्वजनिक परिवहन और हरित शहरीकरण: नगर नियोजन, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली का विकास, इलेक्ट्रिक वाहन को प्रोत्साहन, और हरित भवन निर्माण जैसे प्रयास नीति-स्तर पर ही संभव होते हैं।


जलवायु रणनीतियाँ और अंतरराष्ट्रीय सहयोग: पेरिस समझौते जैसे वैश्विक प्रयासों में भागीदारी, राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना (एन ए पी सी सी), और राज्य स्तर पर कार्यान्वयन के लिए सरकारों का नेतृत्व अनिवार्य है।


प्रेरणा और समर्थन: सब्सिडी, प्रोत्साहन योजनाएँ, पर्यावरण शिक्षा का पाठ्यक्रम में समावेश और जागरूकता अभियान नागरिकों को पर्यावरण-अनुकूल व्यवहार अपनाने हेतु प्रेरित करते हैं।


विज्ञान का मत: समन्वय ही समाधान है


विज्ञान कहता है कि किसी भी जटिल पारिस्थितिकीय समस्या का समाधान एकल दृष्टिकोण से संभव नहीं। पर्यावरण संरक्षण में अनेक कारक शामिल होते हैं – वायुमंडलीय रासायनिक प्रतिक्रियाएँ, पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता, जनसंख्या का दबाव, ऊर्जा संतुलन, आदि। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि व्यक्तिगत व्यवहार और नीति निर्णय जब परस्पर सहयोग करते हैं, तभी दीर्घकालिक सकारात्मक परिवर्तन संभव होते हैं।


उदाहरण के लिए, यदि सरकार सौर ऊर्जा को सब्सिडी दे रही है लेकिन नागरिक उसे अपनाने को इच्छुक नहीं, तो नीतियाँ निष्क्रिय रह जाएँगी। वहीं यदि नागरिक जागरूक हों लेकिन सुलभ विकल्प उपलब्ध न हों, तो उनकी इच्छाशक्ति भी दिशा नहीं पाएगी। इस प्रकार, नीति और नागरिक एक-दूसरे के पूरक हैं।


समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण: जिम्मेदारी की सामाजिक श्रृंखला


पर्यावरण संरक्षण केवल वैज्ञानिक समस्या नहीं, यह एक सामाजिक चुनौती भी है। जब समाज में पर्यावरणीय नैतिकता जागती है, तो नीतियाँ अधिक प्रभावी बनती हैं। उदाहरण स्वरूप:


सामूहिक चेतना: यदि एक मोहल्ला या गाँव मिलकर स्वच्छता अभियान चलाता है, तो वहाँ कचरे का ढेर नहीं लगेगा, भले ही सरकार की उपस्थिति सीमित हो।


नागरिक आंदोलन और नीति परिवर्तन: चिपको आंदोलन या नदी बचाओ आंदोलनों जैसे ऐतिहासिक प्रयास बताते हैं कि जागरूक नागरिक किस प्रकार नीति निर्माण को दिशा दे सकते हैं।


स्थानीय शासन की भूमिका: पंचायतें और नगरीय निकाय जब स्थानीय स्तर पर पर्यावरणीय निर्णयों में नागरिकों को शामिल करते हैं, तो परिणाम अधिक स्थायी होते हैं।


भारतीय संदर्भ में वर्तमान स्थिति और आवश्यक सुधार

भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर अनेक सरकारी योजनाएँ और कानूनी प्रावधान हैं, जैसे:


‘लाइफ मिशन’ – पर्यावरण-अनुकूल जीवनशैली के लिए वैश्विक आह्वान


इन योजनाओं के बावजूद चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं – जैसे शहरीकरण का दबाव, औद्योगिक प्रदूषण, वन कटाव, और अनियंत्रित कचरा प्रबंधन। इनका सामना तब ही संभव है जब नीतियाँ ज़मीनी स्तर पर उतरे और नागरिक उन्हें अपनाने को तैयार हों।


साझा भविष्य के लिए साझा प्रयास


पर्यावरण संरक्षण न तो अकेले सरकार की जिम्मेदारी है और न ही केवल नागरिकों की। यह एक साझा प्रयास है जिसमें नीति, विज्ञान, शिक्षा, सामाजिक चेतना और नैतिकता – सभी का योगदान आवश्यक है।


यदि सरकार दिशा दे और नागरिक गति दें, तो पर्यावरण संरक्षण एक यथार्थ बन सकता है।


हमें यह समझना होगा कि पर्यावरण केवल ‘बाहर की चीज़’ नहीं, बल्कि हमारे जीवन का अभिन्न अंग है – हमारी हवा, हमारा पानी, हमारी धरती और हमारा भविष्य। इसलिए पर्यावरण संरक्षण को एक सरकारी एजेंडा नहीं, बल्कि जनांदोलन बनाना होगा – ऐसा आंदोलन जो हर नागरिक के जीवन में रच-बस जाए।
व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भूमिका: छोटे कदम, बड़े परिणाम


व्यक्तिगत जिम्मेदारी की बात करें तो इसमें प्रत्येक व्यक्ति का दैनिक जीवन और जीवनशैली निर्णायक भूमिका निभाते हैं। एक विज्ञानसम्मत समाज में नागरिकों का पर्यावरण के प्रति सचेत और उत्तरदायी होना उतना ही आवश्यक है जितना कि किसी वैज्ञानिक योजना का निर्माण। उदाहरण के तौर पर, यदि एक व्यक्ति प्लास्टिक बैग की जगह कपड़े का थैला उपयोग करना आरंभ करता है, तो यह छोटा कदम लाखों टन प्लास्टिक कचरे को कम करने की दिशा में एक प्रभावी पहल बन सकता है। यदि करोड़ों नागरिक इस आदत को अपनाएँ, तो इसका राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।


शहरी क्षेत्रों में वायु प्रदूषण मुख्यतः वाहनों और निर्माण गतिविधियों से उत्पन्न होता है। जब नागरिक निजी वाहनों की बजाय साइकिल या सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता देते हैं, तो कार्बन उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकती है। इसके अतिरिक्त, पर्यावरण-अनुकूल उपभोग (ग्रीन कंजंप्शन) की अवधारणा भी व्यक्तिगत जिम्मेदारी का भाग है, जहाँ व्यक्ति स्थानीय और जैविक उत्पादों का समर्थन करते हैं, जिससे न केवल पारिस्थितिकी को बल मिलता है, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सशक्त होती है।


शिक्षा का इस भूमिका में महत्वपूर्ण स्थान है। यदि विद्यालय स्तर से ही बच्चों को पर्यावरणीय नैतिकता, पुनःचक्रण, अपशिष्ट प्रबंधन, जल संरक्षण आदि के बारे में व्यावहारिक शिक्षा दी जाए, तो यह पीढ़ियों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बना सकता है। इस प्रकार, व्यक्तिगत जिम्मेदारी न केवल आचरण है, बल्कि एक संस्कार है – जिसे समाज में निरंतर विकसित करने की आवश्यकता है।


सरकारी नीतियों की शक्ति: नीति, कार्यान्वयन और नेतृत्व


सरकारों के पास पर्यावरणीय संरक्षण को संरचित और प्रभावी रूप देने की क्षमता होती है। सरकारी नीतियाँ न केवल दिशा देती हैं, बल्कि संसाधन, प्रवर्तन और संस्थागत ढांचे के माध्यम से व्यापक क्रियान्वयन सुनिश्चित करती हैं। उदाहरण के लिए, स्वच्छ भारत अभियान की सफलता इस बात को दर्शाती है कि जब सरकार और नागरिक एकजुट होते हैं, तो सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन संभव होता है।


भारत सरकार द्वारा विकसित “राष्ट्रीय जैव विविधता कार्य योजना” (एन बी ए पी), “राष्ट्रीय इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन”, “ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता” (ई सी बी सी) जैसी योजनाएँ यह दर्शाती हैं कि सरकार पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान हेतु बहुआयामी दृष्टिकोण अपना रही है। किंतु केवल नीति निर्माण पर्याप्त नहीं होता, उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए उचित निगरानी तंत्र, पारदर्शिता, और उत्तरदायित्व भी आवश्यक है।


इसके अतिरिक्त, सरकारों को “जस्ट ट्रांजिशन” यानी कि पर्यावरणीय परिवर्तन के साथ सामाजिक और आर्थिक न्याय को जोड़ने पर भी ध्यान देना होगा। उदाहरणस्वरूप, कोयला खनन बंद होने की स्थिति में उस क्षेत्र के लोगों को वैकल्पिक आजीविका प्रदान करना, ताकि पर्यावरणीय सुधार सामाजिक असंतुलन का कारण न बने।


नीति निर्माण में “साक्ष्य-आधारित” दृष्टिकोण अपनाना भी आवश्यक है, जहाँ वैज्ञानिक शोध, आँकड़े और स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर योजनाएँ तैयार हों। जब वैज्ञानिक और प्रशासनिक तंत्र एकजुट होकर पर्यावरणीय नीतियों को लागू करते हैं, तो परिणाम अधिक स्थायी और प्रभावी होते हैं।


निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पर्यावरण संरक्षण की चुनौती इतनी जटिल और बहुआयामी है कि इसे किसी एक पक्ष – सरकार या नागरिक – के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह समस्या एक “साझी चुनौती” है और इसका समाधान भी “साझे प्रयास” से ही संभव है। विज्ञान बताता है कि पारिस्थितिकी तंत्र पर होने वाले प्रभावों को कम करने के लिए “सिस्टम थिंकिंग” आवश्यक है – जिसमें समाज, सरकार, शिक्षा, विज्ञान और संस्कृति सभी एक तंत्र की तरह कार्य करें।


आवश्यकता इस बात की है कि नागरिक अपने व्यवहार में पर्यावरणीय नैतिकता को आत्मसात करें और सरकारें पर्यावरणीय न्याय को नीतिगत प्राथमिकता दें। जैसे-जैसे हम जलवायु संकट की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हमें यह समझने की जरूरत है कि यदि अभी निर्णय नहीं लिए गए, तो भविष्य में केवल समाधान की तलाश ही शेष रह जाएगी – संसाधन नहीं।


सरकारों को चाहिए कि वे दीर्घकालिक योजनाओं को स्थानीय समुदायों के साथ मिलाकर लागू करें, जिससे एक जीवंत और सहभागी तंत्र विकसित हो सके। वहीं नागरिकों को चाहिए कि वे अपने हर छोटे फैसले – जैसे ऊर्जा का प्रयोग, परिवहन का तरीका, भोजन की पसंद, अपशिष्ट का निपटान – में पर्यावरणीय दृष्टिकोण अपनाएँ।


यदि हम सच में एक स्वच्छ, हरित और समृद्ध भारत तथा विश्व की कल्पना करते हैं, तो पर्यावरण संरक्षण को जनांदोलन बनाना होगा – ऐसा जनांदोलन जो विज्ञान पर आधारित हो, नीति द्वारा समर्थित हो, और सामाजिक चेतना द्वारा पोषित हो। तभी हम उस पृथ्वी को बचा पाएँगे जो हमारे जीवन का मूल आधार है।


आइए, हम सब मिलकर यह प्रण लें कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी को न टालें, न बाँटें – बल्कि इसे गर्व और समर्पण के साथ निभाएँ। क्योंकि यह पृथ्वी केवल एक आवास नहीं, बल्कि हमारी अस्तित्व की शर्त है – और इसे बचाना हमारा कर्तव्य ही नहीं, हमारे भविष्य की रक्षा भी है। हम सब मिलकर वह परिवर्तन बनें जिसकी यह पृथ्वी हमसे अपेक्षा कर रही है।


(लेखक रसायन विज्ञान विषय में स्नातकोत्तर एवं पीएचडी हैं। शासकीय उत्कृष्ट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय वेंकट क्रमांक एक सतना मध्यप्रदेश में रसायन विज्ञान विषय का अध्यापन करते हैं।पर्यावरण संरक्षण और विज्ञान विषयों पर स्वतंत्र लेखन कार्य करते हैं।

संपर्क;7697179890/7974246591.)

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