King Harshvardhan History In Hindi: भारतीय इतिहास में कई सुप्रसिद्ध शासक और योद्धा हुए हैं, जिन्हें आज भी याद किया जाता है। ऐसे ही एक शासक थे हर्षवर्धन, जिन्होंने सातवीं शताब्दी के प्रारंभिक दौर में कन्नौज को राजधानी बनाकर पूरे उत्तर-भारत पर राज्य किया। उन्हें बौद्ध धर्म, साहित्य के संरक्षक के तौर पर याद किया जाता है।
कौन थे हर्षवर्धन
प्राचीन भारत के इतिहास में सम्राट हर्षवर्धन (राज्यकाल: 606–647 ई.) एक ऐसा नाम है, जिनका शासनकाल राजनीतिक स्थिरता, धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक उत्कर्ष के लिए जाना जाता है। उनके शासनकाल से संबंधित बांसखेड़ा (628 ई.) और मधुबन (631 ई.) ताम्रपत्र अभिलेख न केवल उनके वंशवृत्त, बल्कि धार्मिक दृष्टिकोण और प्रशासनिक प्रणाली पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं। इस लेख में अभिलेखीय साक्ष्यों, ह्वेन-सांग के विवरण और आधुनिक इतिहासकारों के मतों के आधार पर हर्ष के वंश और धर्म के प्रश्नों का समीक्षात्मक विश्लेषण किया गया है।
हर्ष का प्रारंभिक जीवन और उनके पूर्वज
हर्षवर्धन का जन्म थानेश्वर (वर्तमान हरियाणा) में हुआ था। उनके पिता प्रभाकरवर्धन और माँ का नाम यशोमती था। जबकि बड़े भाई राज्यवर्धन थे और बहन का नाम राज्यश्री था। राज्यश्री यक विवाह कन्नौज के वर्मन वंश के राजा गृहवर्मन के साथ हुआ था। उनकी दादी महासेनगुप्ता देवी मगध के गुप्त वंश से संबंध रखती थीं।
बांसखेड़ा और मधुबन ताम्रपत्रों के अनुसार, वर्धन वंश की शुरुआत महाराज नरवर्धन से होती है। उनके वंशज क्रमशः राज्यवर्धन, आदित्यवर्धन, प्रभाकरवर्धन तथा राज्यवर्धन (ज्येष्ठ पुत्र) और अंततः हर्षवर्धन हैं। अभिलेखों में सभी पूर्वजों को सूर्योपासक, पितृभक्त, और धार्मिक आचरण में स्थिर बताया गया है। इसके विपरीत बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में, वर्धन वंश का आरंभ पुष्यभूति नामक राजा से बताया गया है।
विपरीत परिस्थितियों में बने शासक
हर्षवर्धन अपने भाई की हत्या के बाद हर्ष ने 16 वर्ष की आयु में पहले स्थानेश्वर और फिर कन्नौज के शासक बने। उनके पिता का जब देहांत हुआ, उस समय उनके भाई राज्यवर्धन हूणों के विरुद्ध अभियान पर गए थे। पिता की मृत्यु के बाद माँ सती हो गईं। बाद में उनके भाई शासक बने, लेकिन प्रभाकर वर्धन का मृत्यु का जानकर गौड़ का शासक शशांक और मालवा का देवगुप्त, कन्नौज हड़पने के लिए चढ़ गए और हर्षवर्धन के बहनोई गृहवर्मन को पराजित कर मार डाला और राज्यश्री को कारागार में कैद कर लिया गया।
अपने बहन-बहनोई का यह हाल सुनकर राज्यवर्धन कन्नौज की तरफ बढ़ा और देवगुप्त को पराजित कर मार डाला, लेकिन गौड़ के राजा शशांक ने छल से राज्यवर्धन की हत्या कर डाली। इन परिस्थितियों में राज्याधिकारियों द्वारा समझाने पर हर्षवर्धन राजा बने, और सेनाओं के साथ कन्नौज की तरफ कूच किया। उनकी सेनाओं को आगे बढ़ते हुए सुन शशांक कन्नौज से वापस लौट गया। लेकिन पिता और भाई की मृत्यु से दुखी राज्यश्री कन्नौज से विंध्याटवी के जंगलों की तरफ से चली गई थी। इसीलिए हर्षवर्धन अपनी बहन को ढूँढने के लिए चला गया, उसको राज्यश्री तब मिली जब वह अग्निदाह करना चाहती थी। लेकिन हर्ष ने उसे समझाया और वापस कन्नौज लौट आए। बाद में स्थानेश्वर के साथ ही साथ कन्नौज का शासक भी बन गई।
धार्मिक दृष्टिकोण सूर्योपासना से शैव परंपरा तक
इन अभिलेखों में हर्ष के सभी ज्ञात पूर्वज प्रभाकरवर्धन सहित, सभी को अभिलेखों में सूर्य उपासक बताया गया है। हर्ष के ज्येष्ठ भ्राता राज्यवर्धन भी इसी परंपरा में थे। लेकिन इन अभिलेखों में हर्षवर्धन को शिव-भक्त (शैव) कहा गया है, जिसे “शिव के समान प्रजा-कल्याणकारी” कहकर वर्णित किया गया है। हालाँकि, चीनी यात्री ह्वेन-सांग के विवरणों से यह भी संकेत मिलता है कि हर्ष में बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव था, प्रयागकुम्भ मेले में बुद्ध, सूर्य और शिव तीनों की पूजा का वर्णन मिलता है।
हर्ष ने कई बौद्ध भिक्षुओं को संरक्षण दिया और बौद्ध साहित्यिक ग्रंथों का संरक्षण करवाया। फिर भी, किसी निश्चित दीक्षा या पूर्ण बौद्ध अनुयायिता का स्पष्ट प्रमाण प्रारंभिक जीवनकाल में नहीं मिलता। इतिहासकार आर.सी. मजूमदार भी मानते हैं कि हर्ष मूलतः शैव थे लेकिन बौद्धों के प्रति सहिष्णु और उदार थे।
हर्षवर्धन का साम्राज्य विस्तार
हर्ष और उनके पूर्वजों के शासन का प्रारंभिक केंद्र थानेश्वर था, लेकिन बाद में परिस्थितियों वश उन्होंने कान्यकुब्ज को अपनी राजधानी बनाया। उन्होंने उत्तर भारत में एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया, जिसमें पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, और मध्य भारत के कुछ हिस्से शामिल थे। मालवा, बंगाल, और उड़ीसा के शासकों जैसे-शशांक के साथ युद्ध लड़े। दक्षिण में चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय ने उन्हें नर्मदा नदी के पास रोका, जिससे दक्षिण भारत में उनका विस्तार सीमित ही रहा।
विद्वान और विद्वानों का संरक्षक
उन्होंने साहित्य और कला को प्रोत्साहन दिया। उनके दरबार में कई विद्वान थे। हर्षचरित और कादंबरी के लेखक सुप्रसिद्ध साहित्यकार बाणभट्ट को भी हर्ष ने संरक्षण दिया था। उन्होंने स्वयं नागानंद, रत्नावली, और प्रियदर्शिका नाम के तीन नाटक लिखे थे, यह उनके दरबार की प्रमुख सांस्कृतिक उपलब्धि थी। नालंदा महाविहार उनके शासन में बौद्ध शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। जिसको हर्ष ने बहुत दान भी दिए थे।
हर्षवर्धन की मृत्यु और साम्राज्य का पतन
हर्षवर्धन की मृत्यु 647 ईस्वी में हुई। उनके कोई उत्तराधिकारी नहीं था, जिसके कारण पुष्यभूति वंश का पतन हो गया और साम्राज्य विखंडित हो गया। हर्षवर्धन को भारतीय इतिहास में उनके प्रशासनिक कौशल, सांस्कृतिक योगदान और धार्मिक सहिष्णुता के लिए याद किया जाता है।