Rewa Dussehra Utsav | महाराजा गुलाब सिंह की दशहरा घोषणा

Rewa Dussehra Utsav: महाराजा गुलाब सिंह की दशहरा घोषणा भारत के स्वतंत्रता संग्राम की गाथा जब भी कही जाती है, उसमें ऐसे भी जिक्र मिलते हैं, जब उत्सव और त्योहार जनजागरण के माध्यम बने, बंगाल की दुर्गा पूजा और महाराष्ट्र के गणेश पंडालों के आयोजन का एक मुख्य कारण यह भी था। ऐसा ही एक त्योहार अपने विंध्य क्षेत्र के इतिहास में भी दर्ज है, दशहरा जिसे बघेली भाषा में दशराहा कहा जाता है, वह राजशाही के दौर में रियासत का मुख्य राजकीय त्यौहार होता था। यह मात्र केवल एक धार्मिक पर्व नहीं था, बल्कि रियासत की राजनीति, संस्कृति और सामान्य जनजीवन का प्रतिबिंब भी था। इस दिन राज्य से संबंधित कई प्रमुख घोषणाएं भी की जाती थी। एक ऐसी ही घोषणा वर्ष 1945 के दशहरे में महाराज गुलाब सिंह ने भी थी, जो महज घोषणा मात्र नहीं था, बल्कि ब्रिटिश सरकार के प्रति उनके मूक विद्रोह का प्रतीक भी था।

रीवा में कहाँ मनाया जाता था दशहरा

इस दिन राज्य की राजधानी रीवा में बहुत ही भव्य और विशाल आयोजन होता था, दशहरा का दरबार सजता था, सामंत और जागीरदार दरबार में आते थे, महाराज को भेंट और उपहार देते थे, महाराज द्वारा भी लोगों को सनद इत्यादि दिए जाते थे और राज्य से संबंधित कई प्रमुख घोषणाएं की जाती थी। महाराज गुलाब सिंह के जमाने में तो सामंतों को सख्त आदेश होता था दशहरा दरबार में उपस्थित होने का। फिर हाथी, घोड़े और बग्घियों से विशाल सैन्य परेड और जुलूस आयोजित होता था, जो मछरिहा दरवाजे से निकलते हुए, कोतवाली टावर होता हुआ घंटाघर की तरफ बढ़ता था, वहाँ से आज के प्रकाश चौक, धोबिया टंकी और गुढ़ चौराहा होते हुए पहुँच जाता था बिछिया, वहाँ के जगन्नाथ मंदिर के सामने विशाल मैदान में आयोजित होता रीवा का दशहरा उत्सव था। यह जुलूस नगर भर के लिए कौतूहल का विषय होता था, उस समय जो जुलूस निकलता था, उसे हजारिहा परेड कहा जाता था।

रीवा में कैसे मनाया जाता था दशहरा

और फिर अंत में रावण दहन किया जाता था, कहते हैं रावण को मिट्टी से बनाया जाता था, उसका मुख और पेट घड़ों से बनाया जाता था, पेट वाले घड़े में लाल रंग का पानी भरा जाता था, जिससे जब राम का स्वांग कर रहा व्यक्ति उस तीर मारे तो खून निकलने का एहसास हो, रावण के दशमुख मटकों से बनाए जाते थे और मुख्य मुख के ऊपर मिट्टी से बने गधे का सर लगाया जाता था, खूब आतिशबाजियाँ और कलाबाजियाँ होती थीं, लोग दूर-दूर से रीवा इस पर्व को देखने आते थे। कहते हैं ब्रिटिशकालीन भारत में मैसूर के बाद सबसे प्रमुख दशहरा उत्सव रीवा में ही मनाया जाता था। दशहरा का यहाँ के लोकसंस्कृति में भी बड़ा महत्व है, इस दिन शुभता का प्रतीक नीलकंठ पक्षी देखने का बड़ा महत्व है, इसके अलावा इस दिन पान खाने का भी रिवाज प्रचलित है।

महाराज गुलाब सिंह के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति विद्रोही विचार

लेकिन जैसा हमने पहले भी बताया था, इस दिन यहाँ राज्य से संबंधित कुछ प्रमुख घोषणाएं भी की जाती थीं। एक ऐसी ही घोषणा वर्ष 16 अक्टूबर 1945 को दशहरे के रीवा महाराज गुलाब सिंह ने भी थी, जब उन्होंने राज्य की जनता के समक्ष भाषण देते हुए, रीवा में पूर्ण उत्तरदायित्वपूर्ण शासन की घोषणा कर दी।

दरसल रीवा में भारत छोड़ो आंदोलन से पहले ही, रीवा महाराज गुलाब सिंह को निर्वासित कर दिया गया था। जिसके बाद यहाँ राजा बहोरा आंदोलन और उसी के साथ भारत छोड़ो आंदोलन भी प्रारंभ हो गया। 25 जुलाई 1944 को नागपंचमी के दिन उनकी रीवा वापसी हुई, लेकिन बहुत सारी शर्तों के साथ, महाराज के मन में लादी गई उन शर्तों के प्रति विद्रोह पनप रहा था, इसके अलावा महराज बहुत सुधारवादी नरेश था, उन्होंने यूरोप की यात्राएं की थी और वहाँ की व्यवस्था से अत्यंत प्रभावित थी, इसीलिए वह रीवा राज्य में पूर्ण उत्तरदायी सरकार चाहते थे, इसका मौका उन्हें मिला राजकीय उत्सव दशहरा के दिन, और इस दिन का उनका दिया गया भाषण अपने आप में इतिहास बन गया, जब दूसरी रियासतों में राजाओं का निरंकुश शासन था, महाराज ने उस दौर में शासन में जनता को भागीदारी देने का विचार किया, यह अपने आप में ही अभूतपूर्व था।

क्या थी महाराज गुलाब सिंह की दशहरा घोषणा

अब आइए देखते सुनते हैं दशहरा पर दिया गया महाराज गुलाब सिंह का प्रसिद्ध भाषण, उन्होंने कहा- “उत्तरदायित्वपूर्ण शासन से अब रीवा की उन्नति होगी, हम इसकी घोषणा अपने युवराज के विवाह के उपलक्ष्य में ही करना चाहते थे, परंतु विधि-विधान कुछ और था।” हमारा दृढ़ विश्वास है कि रिमहों की भावी उन्नति और उत्कर्ष के लिए रीवा में पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना परम आवश्यक है, हम रीवा निवासियों को इस योग्य मानते हैं। अतः अपने 18 लाख प्रजा को साक्षी मानते हुए, विजयदशमी के इस शुभ पर्व के दिन, आपको फुल रिस्पांसबल गवर्नमेंट अर्थात पूर्ण उत्तरदायी शासन प्रदान करते हैं।

महाराज गुलाब सिंह ने की स्वायत्त शासन की घोषणा

इस शासन में प्रत्येक धर्म और संस्कृति की सम्मान और रक्षा की जाएगी। किसी को भी विशेषाधिकार नहीं दिए जाएंगे। हम चाहते हैं, हमारी वर्तमान सरकार इस घोषणा की पूर्ति करने का शीघ्र प्रयास करे, ताकि युद्ध उपरांत जो भी परिवर्तन हों, जिनका असर हम रिमहों पर पड़ने वाला है और उससे संबंध में जो कुछ भी निर्णय होने वाला हो, वो सब रिमहों के बहुमत से संप्रेरित तथा रिमहों से संपूजित और विश्वासित, सर्वोत्तरदायित्वपूर्ण शासन द्वारा ही संपादित हो।”

“रीवा रिमहों का है अस्तु……

रिमहों का शासन, रिमहों के लिए……..

रिमहों द्वारा हो।”

महाराज गुलाब सिंह एक यशस्वी नरेश के साथ ही, दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति और स्पष्टवादी उत्तम वक्ता भी थे। उनकी इस घोषणा के बाद, देश के प्रमुख नेताओं में से एक पंडित नेहरु ने भी रीवा महाराज को इस सराहनीय कार्य के लिए बधाई दी। इसके साथ ही उन्होंने रीवा निवासियों और यहाँ के कांग्रेस नेताओं को भी बधाई दी।

स्वायत्त शासन में मुश्किलें

महाराज गुलाब सिंह ने यह घोषणा तो कर दी, लेकिन इसको पारित होने में बड़ी रुकावटें थीं। दरसल यह उनके ऊपर ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए शर्तों का स्पष्ट उलंघन थी, जिसके अनुसार राज्य के सभी कार्य मंत्रिपरिषद द्वारा ही शुरू किए जाएंगे, राजा बिना उनके परामर्श के कोई कार्य नहीं कर सकता है। राजा द्वारा लिए गए प्रत्येक निर्णय में मुख्यमंत्री के भी हस्ताक्षर होंगे। मंत्रिपरिषद के द्वारा लिए गए निर्णय में राजा तब तक फेरबदल नहीं कर सकते हैं जब तक राज्य के रेजिडेंट भी उस पर अपनी स्वीकृति ना दे दें।

महाराज गुलाब सिंह दे रहे थे आंदोलन को हवा

महाराज जानते थे रीवा में उत्तरदायी शासन वह स्थापित नहीं कर पाएंगे, क्योंकि मंत्रिमंडल उनसे कभी सहमत नहीं होगा। वह यह भी जानते थे, नाममात्र का वैधानिक शासक होने के कारण उनको इस घोषणा का अधिकार भी नहीं था, लेकिन उनका प्रमुख उद्देश तो ब्रिटिश शासन द्वारा उन पर लगाए गए नियमों तोड़कर ब्रिटिश शासन के प्रति सत्याग्रही विद्रोह था, महात्मा गांधी की ही तरह। दरसल महाराज की मंशा रीवा में ब्रिटिशों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ना था, वह चाहते थे ब्रिटिश सरकार उन्हें गद्दी से उतारकर उनको पुत्र को राजा बनाए, इससे संभवतः उनके नाम से जमा पैसा जब्त होने से बच जाएगा और यदि ब्रिटिश शासन ऐसा नहीं करता है तो, इस घोषणा के बाद कांग्रेस और जनता उत्तरदायी शासन की स्थापना की मांग करेंगे, यदि ब्रिटिश सरकार ऐसा नहीं करती तो उनके विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो सकता है।

क्योंकि दशहरा घोषणा के बाद महाराज राज्य भर के भ्रमण पर निकल चुके थे, इस दौरान उनका वस्त्र बहुत साधारण था, वह सफेद छकलिया-परदनी और मुरैठा बांधने लगे थे और हाथ में लिए रहते थे चांदी की मूठ की छड़ी, जिसे बकुली कहते हैं। इस दौरान वह अपनी प्रजा से मिल रहे थे।

महाराज गुलाब सिंह का निर्वासन

हालांकि ब्रिटिश सरकार ने घोषणा के तुरंत बाद रीवा महाराज पर तुरंत तो कोई एक्शन नहीं लिया गया, लेकिन यह तो तय था कि पहले से रुष्ट ब्रिटिश सरकार आगे चलकर कुछ ना कुछ तो करने ही वाली थी। ब्रिटिश सरकार भी यही मानती थी, रीवा नरेश का मुख्य उद्देश उसके बनाए नियमों का उल्लंघन था। और इसका परिणाम आया 31 जनवरी 1946 को जब महाराज का कैंप त्योंथर के निकट सोनौरी में पड़ा हुआ था, तभी उन्हें सेंट्रल इंडिया के ब्रिटिश रेजिडेंट का खरीता मिला, उनके राज्याधिकार छीन कर रीवा राज्य से निर्वासित करके नजरबंद कर दिया गया। देश की आजादी के बाद 9 अप्रैल 1948 को उन पर से पहरा हटा लिया गया, जिसके कारण वह 13 अप्रैल को रीवा आ गए, लेकिन 16 अप्रैल को उन्हें पुनः देहरादून नजरबंदी में भेज दिया गया था। इस नजरबंदी से छूटने के लिए वह छटपटाते रहे, सरकार को पत्र लिखते रहे, लेकिन किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी।

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