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MP: डबल बेंच की टिप्पणी-हाईकोर्ट कोर्ट खुद को सवर्ण और जिला-कोर्ट को शूद्र समझता है

MP HIGHCOURT

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MP High Court News: कोर्ट ने कहा कि दोनों के बीच का रिश्ता सामंती व्यवस्था जैसा है, जहां उच्च न्यायालय खुद को सवर्ण और जिला न्यायपालिका को शूद्र समझता है। यह टिप्पणी जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस दिनेश कुमार पालीवाल की डबल बेंच ने व्यापमं केस से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दी।

MP High Court News: मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने एक अहम फैसले में उच्च न्यायालय और जिला न्यायपालिका के बीच रिश्तों पर तीखी टिप्पणी की है। कोर्ट ने कहा कि दोनों के बीच का रिश्ता सामंती व्यवस्था जैसा है, जहां उच्च न्यायालय खुद को सवर्ण और जिला न्यायपालिका को शूद्र समझता है। यह टिप्पणी जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस दिनेश कुमार पालीवाल की डबल बेंच ने व्यापमं केस से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान दी।

जज की बर्खास्तगी और याचिका

याचिका भोपाल के पूर्व एससी-एसटी कोर्ट जज जगत मोहन चतुर्वेदी ने दायर की थी, जिन्हें एक आरोपी को अग्रिम जमानत देने के बाद बर्खास्त कर दिया गया था। कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को सिर्फ स्वतंत्र सोच और निर्णय के कारण दंडित किया गया।

“जिला जजों की रीढ़विहीनता”

बेंच ने कहा कि जब जिला कोर्ट के जज उच्च न्यायालय के जजों से मिलते हैं, तो उनकी शारीरिक भाषा ऐसी होती है मानो वे रीढ़विहीन प्राणी हों, जो गिड़गिड़ा रहे हों। रेलवे स्टेशन पर स्वागत करना, जलपान कराना जैसी प्रथाएं आम हैं। हाई कोर्ट की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्त जजों को शायद ही कभी बैठने को कहा जाता है।

न्यायिक फैसलों पर डर का असर

कोर्ट ने चिंता जताई कि यह डर और हीनता की मानसिकता जिला जजों के फैसलों को प्रभावित करती है। कई बार योग्य मामलों में जमानत नहीं दी जाती या सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि हो जाती है, सिर्फ इसलिए कि फैसला “गलत” न समझा जाए। बेंच ने कहा, “डर के साए में न्याय नहीं, सिर्फ दिखावा होता है।”

जिला न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर जोर

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्य की न्याय प्रणाली की असल ताकत जिला कोर्ट की स्वतंत्रता में निहित है, न कि केवल उच्च न्यायालय में। लेकिन हाई कोर्ट का छोटी-छोटी बातों पर सख्त रवैया जिला जजों में डर पैदा करता है। इससे वे परिवार, नौकरी और प्रतिष्ठा के डर से स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पाते।

कोर्ट का आदेश

हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता जज के पक्ष में फैसला सुनाते हुए आदेश दिया कि उनकी सेवा समाप्ति की तारीख से सेवानिवृत्ति तक का बकाया वेतन 7% ब्याज सहित दिया जाए। साथ ही, उनकी पेंशन और अन्य सेवा लाभ बहाल किए जाएं। मानसिक क्षति और सामाजिक अपमान के लिए 5 लाख रुपये का मुआवजा भी देने का निर्देश दिया गया।

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