क्या महिला, पुरुष एक दूसरे से बिल्कुल जुदा सोच रखते हैं ?

न्याज़िया
मंथन।
क्या औरत का दिल आदमियों से कुछ अलग धड़कता है उसके एहसासात, जज़्बात कुछ अलग होते हैं जिन्हें किसी पुरुष के लिए समझना इतना मुश्किल होता है कि औपचारिक रूप से दोनों के एक हो जाने के बाद भी दिल नहीं मिलते और दिल न मिलने की शिकायत भी पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं को होती है और जिन्हें नहीं होती शायद उन्हें धीरे धीरे एक चिढ़ सी होने लगती है खुद से भी और जीवन साथी से भी ।

ऐसा क्यों होता है आख़िर ऐसा क्या चाहती है औरत जो आदमी नहीं दे पाता

औरत कितनी उम्मीदें लगा कर वो अपना घर बार छोड़कर उसके पास आती है ,ज़िंदगी के उतार चढ़ाव में उसका साथ देती है अपना एक परिवार बनाती है आदमी भी जीवन की गाड़ी चलाने में बराबर का साथ देता है,दोनों के सहयोग से ज़िंदगी की गाड़ी चलती भी है ठीक ठाक पर फिर शिकायत अक्सर महिलाओं को क्यों होती है शायद इसी लिए की उन्होंने ज़्यादा समझौते किए हैं अपनी परवरिश के चलते उन्हें पता था ये पुरुष प्रधान समाज है और शादी शुदा ज़िंदगी अक्सर मसले का हल ढूंढने से नहीं ,चुप रहने से चलती है और वो चुप रह गईं , और ये चुप्पी इस क़दर बढ़ गई कि एक दिन उन्हें एहसास हो गया कि अब बोलने से भी कोई फायदा नहीं ,अब कोई उनकी बात सुनने को ही तैयार नहीं, ज़िंदगी एक ऐसे ढर्रे पे चल पड़ी है जहां उनके शब्दों की एहमियत नहीं रही। एक शादी शुदा जोड़ा एक दूसरे के लिए क्या महसूस करता है ये सबको दिखता है, हालांकि कैसे ज़िंदगी गुज़ारना है ये सब कुछ दो लोगों पर ही निर्भर था लेकिन अब ये परिवार के हर सदस्य को मालूम है कि कैसे गुज़र रही है और अब कोई फैसला होगा तो कौन करेगा ,किसी काम को करने के लिए किससे इजाज़त लेनी चाहिए।

औरत क्या भाप जाती है

बस यहीं से एक औरत को घर में उसकी स्थिति दिख जाती है, उसकी वैल्यू उसे नज़र आ जाती है जो उसके त्याग और बलिदान को फीका करके बेइज़्ज़ती का एहसास दिलाने के लिए काफी होती है ,और रही सही कसर वो जीवन साथी निकाल देते हैं जो ग़ुस्सैल होते हैं ,औरत की बुद्धि को इस तरह कम आंकते हैं कि उसे ये एहसास दिला देते हैं कि तुमने यही किया है ज़िंदगी भर और तुमसे इसके अलावा और कुछ नहीं बन सकता कोशिश भी मत करना और कुछ करने की।

इंतहा कब होती है

जब पति की आज्ञा मान कर पत्नी अपने लिए एक दायरा एक सीमा तय कर लेती है ,जिसके बाहर वो कभी जाती तो नहीं है लेकिन अपनी क्षमताओं को कम समझने की आदत उसे पड़ जाती है शालीनता उसे बांध देती है वो खुद कहती है ये तो मैं नहीं कर सकती ये तो वो ही करेंगे लेकिन इस बात की टीस दिल में तब उठती है जब पति के दिखाए रास्ते पे चलते हुए खुद को उसके सांचे के अनुरूप ढालते हुए पूरा यौवन बीत जाता है और बुढ़ापा आ जाता है,अब उसके लिए वो चीज़ें भी मायने नहीं रखती जो कल रखती थी ,आज वो उस जीवन साथी का साथ भी नहीं चाहती जिसके लिए बीते हुए कल में वो तरसा करती थी जबकि आज उस पुरुष के पास थोड़ा बहुत वक़्त है उसे देने के लिए क्योंकि अब उसके दिल बहलाने के साधन थोड़े कम हो गए हैं या दायरा थोड़ा सीमित हो चला है हालांकि उसपे भी कुछ पुरुष अपने मनोरंजन के साधन इस उम्र में भी तलाश लेते हैं लेकिन उस महिला के बारे में सोचना नहीं चाहते जिसने उनका साथ देने में पूरी ज़िंदगी बिता दी ,इतनी ख़िलाफत होती है दोनों की सोच में।

ये रिश्ता सच्चा है या सिर्फ ,दिखावा

ये कैसी विडंबना है जो मान-सम्मान के झूठे भरम के लिए एक इंसान को तोड़ देती है लेकिन बंधन तोड़ कर उन्मुक्त गगन में उड़ने की अनुमति नहीं देती।वहीं ये चुप्पी जब पुरुष साथी इख़्तेयार करता है तब ये स्थिति और भी बुरी हो जाती हैं क्योंकि वो भी अपनी परवरिश से मजबूर है उसे बर्दाश्त करना नहीं सिखाया गया था और आज वो अपने अस्तित्व को ताक में रख कर इसलिए चुप है कि वो अपने रिश्ते का मज़ाक नहीं बनाना चाहता ।

हमारी परंपरा तो नहीं, हमें ये सिखाती

क्यों एक औरत ,एक आदमी एक दूसरे को खुद से इतना जुदा समझते हैं कि उन्हें ये मालूम होता है कि हम कुछ दायित्वों को निभाने के लिए एक हुए हैं तो वहीं ये विश्वास भी होता है कि एक दूसरे को समझना हमारे बस की बात नहीं है हमारी फीलिंग्स एक दूसरे से एक दम अलग हैं ,वो चाहती है -मै उसकी तारीफ करूं ,कैसा भी खाना बना हो ,वो कैसी भी दिख रही हो ।
या वो चाहता है -मै उसके पास बैठी रहूं ,सिर्फ उसके बारे में बात करूं और किसी की शिकायत उससे न करूं ,उसके लिए अच्छा खाना बनाऊं ,उसके हिसाब से दिखूं। पर इन दोनों तरफ की चाहतों के बाद जवाब एक ही होता है ये तो मुझसे न होगा ! हमारे माता पिता भी तो ऐसे ही जीते आए हैं। उन्हें तो एक दूसरे से कोई परेशानी नहीं हुई तुम्हें ही क्यों सारी दिक्कतें हैं।

हम क्या कर सकते हैं ?सुखमय दाम्पत्य जीवन के लिए

हम किसी नतीजे पे पहुंचना चाहे तो हम कह सकते है कि जब हम अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत करते हैं तो हमें सब कुछ पीछे छोड़ देना चाहिए अपने माज़ी की वो निशानियां भी हमें नहीं रखनी चाहिए जो हमारे इस नए रिश्ते में दरार डाल सकती हैं , एक दूसरे के साथ से बढ़कर हमारे लिए कुछ नहीं होना चाहिए और अक्सर महिलाएं ऐसा कर भी लेती हैं जिससे उनकी नज़र में उनकी कुर्बानी बड़ी होती है, लेकिन जब उनकी क़द्र नहीं होती तो वो मायूस हो जाती हैं ख़ैर आगे बढ़ते हैं इस ज़िंदगी में जो कुछ हो ,सब आपस में सांझा हो,दुख ,सुख ,प्यार, हंसी-खुशी, इसके बावजूद अपने मन का काम करने की एक दूसरे को आज़ादी होनी चाहिए।

एक दूसरे की नज़र में बराबर इज़्ज़त भी होनी चाहिए क्योंकि ज़िम्मेदारियां किसी की कम नहीं होतीं एक घर बनाने में ।
एक दूसरे को समझने की, जज़्बातों की क़द्र करने की भरपूर कोशिश होनी चाहिए और आख़िर में एक दूसरे पर भरोसा होना चाहिए ,अगर ये भरोसा हमारी फितरत के मुताबिक नहीं भी है यानी अगले को लगता है कि हम उसके अलावा और कहीं से खुशी ढूंढने की कोशिश नहीं करेंगे लेकिन हमारी तो आदत ही है ऐसा करने की या हम आवारा भंवरे भी हैं ,हमारा दिल जल्दी भर जाता है तो भी हमें अपने साथी के भरोसे पे खरा उतरने की चाहत होनी चाहिए तभी तो हम एक दूसरे को सहारा दे पाएंगे और हमारा साथ सार्थक होगा। इतना करके तो देखें कैसे ,एक खुशहाल परिवार नहीं बनता कैसे किसी के आंसुओं की ,या पोशीदा कली के चटखने ख़बर हमें नहीं होती। ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बात पर फिर मिलेंगे मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद

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