Dharmveer Bharti: सुधा, चंदर, विनती, प्रोफेसर शुक्ला और इलाहाबाद। यानी गुनाहों का देवता। आपको पता है लोकप्रियता के पैमाने पर पूरे विश्व में आपको तमाम साहित्य मिल जाएंगे लेकिन प्रेम से पगे शब्दों की रूमानियत आपको “गुनाहों का देवता” के अलावा और कहीं नहीं मिलेगी। ना ही सुधा से किए वो चंदर के वादे मिलेंगे, ना चंदर के प्रति सुधा की वो अटूट श्रद्धा मिलेगी और ना ही सुधा की राख से भरी गई विनती की वो सुनी मांग। गुनाहों का देवता मानवीय भावों का वो अथाह सागर है जिसमे डूब हमारा प्यार दो धड़ों में बंट जाता है। पहला, सुधा के प्रेम की मोतियों को फोड़ उसमे चंदर को ढूंढ रहा होता है तो दूसरा, कही एकांत में बैठे हुए अपने साए में सुधा के होने की परिकल्पना कर रहा होता है। पर इन दोनो धड़ों में बटने से ज्यादा सुख, खुद को इस सागर के उस भाग में छोड़ देने में है जहां इसे लिखने के दौरान धर्मवीर भारती ने स्वयं को छोड़ दिया होगा।
कौन थे धर्मवीर भर्ती?
आज 25 दिसंबर है और पूरी दुनिया क्रिसमस के शोर में गुम है पर आज हम आपको किसी और दुनिया में ले जाना चाहते हैं। एक ऐसी दुनिया जहा साहित्य होगा, समाजवाद होगा, प्रेम होगा और केंद्र में होंगे Dharmveer Bharti।
भारती कोई ऐसे नाम नही जिसे आज आप पहली बार सुन रहे होंगे, साहित्य को पढ़ने-जानने वालों के लिए यह नाम जादू से कम नही है। साहित्य सुधियों का मानना है कि इनकी लेखनी सुकून देती हैं, इनकी रचना को पढ़ने से मन मे स्फुटित प्रेम की ज्योति को अमरत्व का वरदान मिल जाता है, दृढ़-निश्चय का भाव मन पर ऐसा प्रभाव छोड़ता है कि आंखों के सामने लक्ष्य के सिवा पूरी दुनिया शून्य हो जाती है। अगर आपको ये बातें बनी बनाई लग रहीं है तो शायद आपने अबतक धर्मवीर भारती को नही पढ़ा। तो फिर चलिए ले चलते हैं आपको धर्मवीर भारती की दुनिया में।
Dharmveer Bharti का जन्म उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद यानी आज के प्रयागराज में 25 दिसंबर 1926 को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री. चिरंजीवलाल वर्मा था और माता का नाम श्रीमती चंदादेवी था। भारती का बचपन छोटी बहन वीरबाला के साथ खेल- कूद और प्रकृति के साथ बड़े सुचारू ढंग से बीत रहा था कि तभी दोनों मासूमों के बचपन को वक़्त की नज़र लग गयी। तबियत खराब होने से माँ की मृत्यु के बाद भारती, काहानी और कविताओं में अपना सुकून ढूंढने लगे। किताबों का खुमार यूं सिर चढ़ा कि स्कूल से वापिस लौटते ही अपना बस्ता फेंक वाचनालय यानी सार्वजनिक पुस्तकालय भाग जाया करते।
कैसे बढ़ी साहित्य में रूचि?
अभी इंटरमीडिएट में पहुंचे ही थे कि गांधीवाद का असर दिमाग पर हाबी होने लगा था। शुरू से ही “नेता जी बोष” के प्रशंसक थे लिहाजन शास्त्रों के प्रति आकर्षण भी जाग उठा था। ‘सशस्त्र क्रांतिकारी दल’ में शामिल होने के सपने को संजो हर समय साथ मे हथियार लेकर चलने लगे थे। सबने समझाया पर किसी के भी बातों का कोई असर नही पड़ा आखिरकार मामा के समझाने और 1 वर्ष इधर-उधर नुकसान कराने के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यायल में स्नातक की पढ़ाई के लिए दाखिला ले ही लिया। कोर्स की पढ़ाई तो चल ही रही थी कि साहित्य में रुचि साथ छोड़ने को तैयार नही थी। इन्होंने स्नातक के दौरान शैली, कीट्स, वर्ड्सवर्थ, टॅनीसन, एमिली डिकिन्सन तथा अनेक फ़्रांसीसी, जर्मन और स्पेन के कवियों के अंग्रेज़ी अनुवाद पढ़े, एमिल ज़ोला, शरदचंद्र, गोर्की, क्युप्रिन, बालज़ाक, चार्ल्स डिकेन्स, विक्टर हयूगो, दॉस्तोयव्स्की और तॉल्सतोय के उपन्यास ख़ूब डूब कर पढ़े। जिसका असर इनके अधिकतर साहित्यों और रचनाओं में भी देखने को मिलता है।
साहित्यकार से कैसे बने पत्रकार?
ट्यूशन के सहारे स्नातक और स्नातकोत्तर में सफलता मिल रही थी कि इसी दौरान भारती, श्री पद्मकान्त मालवीय और इलाचंद्र जोशी के साथ ‘अभ्युदय’ और ‘संगम’ से जुड़े। इसे इनके पत्रकारिता जीवन की शुरुआत भी माना जा सकता है। अभ्युदय और संगम के बाद कुछ समय तक ये ‘हिंदुस्तानी अकादमी’ का भी हिस्सा रहें। चाहें समय कैसा भी रहा हो ना भारती ने कभी साहित्य का साथ छोड़ा ना साहित्य ने कभी भारती का। दोनों निरंतर एक साथ चलते गए। छात्र जीवन में भारती पर शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, जयशंकर प्रसाद और ऑस्कर वाइल्ड का बहुत प्रभाव हुआ। पत्रकारिता करते हुए भारती ने खूब सारी कहानियां भी लिखी। इसी समय मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ नामक इनके दो कहानी संग्रह भी छपे। पत्रकारिता के दौरान ही वह दादा माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में आए। रिश्तों की कड़ी ऐसे जुड़ी कि दादा माखनलाल कब भारती के लिए पिता तुल्य हो गए यह पता ही नही चला।
कभी नहीं छोड़ा साहित्य का साथ
स्नातक की पढ़ाई पपूरी हो चुकी थी, सर्वाधिक अंक भी मिल गया था और प्रख्यात “चिंतामणि गोल्ड मैडल” भी. पर भारती आगे की पढ़ाई अंग्रेजी में करना चाहते थें मगर डॉक्टर धीरेन्द्र वर्णमा और चिंतामणि गोल्ड मैडल ने इस मोह को भी भंग कर दिया. अब डॉक्टर धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में “सिद्ध साहित्य” पर शोध कार्य जारी था. कवकिताओं की संख्या इतनी हो गयी थी की इन्हे दंड लोहा नमक पुस्तक का रूप देना पड़ा. इस समय लेखन का कार्य प्रगति पर था. यह वहीँ समय था जब भारती द्वारा गुनाहों का देवता जैसा और महान सूरज का सातवां बड़ाव जैसा अनोखा साहित्य लिखा गया.
इलाहबाद विश्वविद्यालय से शोधकार्य पूरा करने के बाद भर्ती की नियुक्ति वही हिंदी प्राध्यापक के रूप में हो गयी। भारती बहुत काम समय में एक लोकप्रिय अध्यापक के रूप में उभरे। इसी दौरान इनकी बहुत सी कहानियां और नाटक भी छपी. साथ ही इन्होने कबीर, जायसी और सुर को परिपक्व मन और पैनी हो चुकी समझ के साथ पुनः समझा।
विवाह और धर्मयुग
इसी बीच 1954 में एक पंजाबी शरणार्थी लड़की कांता कोहली से इनका विवाह हुआ. संस्कारों के तीव्र वैषम्य के कारण वह विवाह असफल रहा। बाद में सम्बंध विच्छेद हो गया। परन्तु लेखन का काम अबाध्य रूप से चलता रहा. ‘सात गीत वर्ष’, ‘अंधायुग’, ‘कनुप्रिया ‘ और ‘देशांतर’ प्रकाशित हो चुके थे। अभी कुछ समय बीता ही था कि मुम्बाई से धर्मयुग के सम्पादन का प्रस्ताव आया. अब संपादक के प्रस्ताव और निकष की असफलता भारती को मुंबई जाने से रोक न सकी. और यही से शुरू हुआ पत्रकारिता का एक नया युग धर्मयुग। सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, खेलकूद, साहित्यिक सभी पक्षों को समेटते हुए इस पत्रिका की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर हर अंक में सामग्री दी जाती रही. बच्चों और महिलाओं के लिये भी रोचक और ज्ञानप्रद सामग्री ‘धर्मयुग’ की अतिरिक्त विशेषता थी. उच्चतम स्तर का निर्वाह करते हुए असाधारण लोकप्रियता के साथ लाखों की संख्या में सर्वाधिक बिक्री के आँकड़े किसी चमत्कार से कम नहीं थे। धर्मवीर भारती के द्वारा संपादित ‘धर्मयुग’ आज पत्रकारिता की कसौटी बन चुका है। आज के पत्रकारिता के विद्यार्थी उनकी शैली को ‘धर्मवीर भारती स्कूल ऑफ़ जर्नलिज़्म’ के नाम से जानते हैं।
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भारती को अब यह समझ आने लगा था की लेखन के माध्यम से देश के लिए बहुत बड़े काम किए जा सकते हैं. अतः उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरे समर्पण के साथ धर्मयुग के साथ जुड़ गए. इसी दौरान इनका दुसरा विवाह पुष्पलता शर्मा से हुआ. पुष्पलता शिक्षायतन कॉलेज में हिंदी की प्राध्यापक थी. बाद में यही पुष्पलता पुष्पा भारती के नाम प्रख्यात हुई.
धर्मवीर भारती और धर्मयुग का रिश्ता केवल शब्द और कागज का रिश्ता नहीं था। ये दोनों एक – दूसरे के इस हद तक पर्याय और पूरक बन गये थे कि एक धर्म ( वीर ) के बिना दूसरे धर्म ( युग ) की कल्पना भी असंभव हो गई थी। उनमें सच्चे अर्थों में शरीर और आत्मा का रिश्ता था। धर्मयुग शरीर था और धर्मवीर आत्मा। वैसे तो पत्रिका ‘ अचल ’ होती है और सम्पादक ‘ चल ’ किंतु धर्मयुग का यह सम्पादक जब टाइम्स बिल्डिंग से विदा लेकर बाहर निकला तो सभी को ऐसा लगा मानो धर्मयुग के शरीर से उसकी आत्मा निकाल ली गई हो।