~डॉ रामानुज पाठक सतना (म.प्र.)
21वीं सदी में जब मानवता तकनीकी ऊँचाइयों को छू रही है, तब एक अदृश्य संकट धरती की छाती पर लगातार भारी होता जा रहा है—जलवायु परिवर्तन। यह संकट केवल तापमान, समुद्री स्तर या सूखे-बाढ़ तक सीमित नहीं, बल्कि यह वैश्विक न्याय का भी प्रश्न बन चुका है। क्या सभी देश समान रूप से उत्तरदायी हैं? क्या सभी को एक समान दंड या बोझ उठाना चाहिए? इन प्रश्नों के उत्तर खोजते समय हमें उन असमानताओं की गहराई तक जाना होगा जो ऐतिहासिक, भौगोलिक और आर्थिक दृष्टि से मानव समाज में व्याप्त हैं। आज आवश्यकता है इन्हीं जटिलताओं की परतें खोलते हुए एक ऐसे दृष्टिकोण की मांग की जिसमें केवल जलवायु नहीं, बल्कि न्याय भी बचे।
वर्तमान युग एक ऐसे ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है, जहाँ जलवायु परिवर्तन केवल पर्यावरणीय चुनौती नहीं, बल्कि वैश्विक न्याय, सामाजिक समरसता, आर्थिक असमानता और मानवीय अस्तित्व के संकट का पर्याय बन गया है। यह संकट जितना प्राकृतिक और वैज्ञानिक है, उससे कहीं अधिक यह नैतिक, दार्शनिक और नीति-निर्माण की जटिलताओं से जुड़ा हुआ है। आज आवश्यकता है कि हम इस मुद्दे को केवल वायुमंडलीय तापमान, उत्सर्जन नियंत्रण या कार्बन क्रेडिट जैसे तकनीकी दायरों में न सीमित रखें, बल्कि इसे व्यापक मानवीय और न्यायपूर्ण दृष्टिकोण से देखें।
पिछले कुछ दशकों में वैश्विक जलवायु संवाद का केंद्रबिंदु कुल हरित घर (ग्रीनहाउस गैस) उत्सर्जन रहा है। परंतु यह आंकड़ा केवल सतही सच्चाई को दर्शाता है। किसी देश की विशाल जनसंख्या के कारण उसके कुल उत्सर्जन अधिक हो सकते हैं, लेकिन यदि हम प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की दृष्टि से देखें, तो तस्वीर पूरी तरह बदल जाती है। विकसित देशों में, जहाँ जीवनशैली अत्यधिक ऊर्जा पर निर्भर है, प्रति व्यक्ति उत्सर्जन कहीं अधिक होता है, जबकि विकासशील देशों में, जहाँ जनसंख्या अधिक है लेकिन संसाधनों की खपत सीमित, वहां प्रत्येक नागरिक का कार्बन पदचिह्न अपेक्षाकृत कम है।
इस असमानता को नज़रअंदाज़ कर यदि सभी देशों पर समान दायित्व थोप दिए जाएँ, तो यह ‘जलवायु न्याय’ के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। उदाहरणस्वरूप, अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लातिन अमेरिका के अनेक देशों की ऐतिहासिक कार्बन उत्सर्जन में भागीदारी बहुत कम रही है, लेकिन वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों—जैसे सूखा, बाढ़, चक्रवात और खाद्य संकट—के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। दूसरी ओर, औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दौर से ही उत्सर्जन में अग्रणी रहे देशों ने अब तक पर्याप्त उत्तरदायित्व नहीं निभाया है।
इसके अतिरिक्त, वैश्विक मंचों पर अक्सर कोयले के प्रयोग को चरणबद्ध ढंग से समाप्त करने की मांग उठाई जाती है, किन्तु उसी कठोरता से न तो प्राकृतिक गैस, न ही जैव ईंधन या परमाणु ऊर्जा की आलोचना की जाती है। यह दृष्टिकोण एकतरफा और सुविधाजनक प्रतीत होता है। यदि वास्तव में जलवायु संकट को दूर करना है, तो जीवाश्म ईंधनों के सभी स्रोतों को समान स्तर पर चुनौती देनी होगी, और समाधान को सार्वभौमिक रूप से लागू करना होगा—चुनिंदा प्राथमिकताओं के आधार पर नहीं।
विकासशील देशों की स्थिति इस संदर्भ में अत्यंत जटिल है। उन्हें न केवल अपनी बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करानी हैं, बल्कि वैश्विक विकास की दौड़ में भी पीछे नहीं रहना। यह दुविधा तब और गहराती है जब उन पर वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने का दबाव डाला जाता है, जबकि उनकी ऐतिहासिक जिम्मेदारी सीमित रही है। उदाहरण के लिए, भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील जैसे देश अभी भी औद्योगिक संरचना के निर्माण के चरण में हैं, और यदि उन्हें सौर ऊर्जा या पवन ऊर्जा की ओर स्थानांतरित होने के लिए तकनीकी तथा वित्तीय सहायता नहीं मिलती, तो यह परिवर्तन असंभव सा प्रतीत होता है।
यह संतोषजनक है कि अनेक विकासशील देशों ने अपनी क्षमता के अनुसार जलवायु संकट से निपटने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। उन्होंने गैर-जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दिया है, ऊर्जा दक्षता को प्राथमिकता दी है, और जलवायु शमन व अनुकूलन की दिशा में रचनात्मक कार्य किए हैं। भारत जैसे देशों में हरित ऊर्जा एक राष्ट्रीय लक्ष्य भर नहीं, बल्कि जनांदोलन का रूप ले चुकी है। गाँव-गाँव में सौर पैनल, शहरी क्षेत्रों में इलेक्ट्रिक वाहन और स्कूलों में जलवायु शिक्षा—ये सब एक नई चेतना के संकेत हैं।
फिर भी, यह स्पष्ट है कि केवल प्रतिबद्धता पर्याप्त नहीं है। जलवायु कार्यवाही को प्रभावी बनाने के लिए एक वैश्विक संरचना की आवश्यकता है जो न्याय, समावेश और पारदर्शिता पर आधारित हो। वित्तीय और तकनीकी सहायता का स्पष्ट, समयबद्ध और उत्तरदायी ढाँचा होना चाहिए। हरित जलवायु (ग्रीन क्लाइमेट) फंड जैसे अंतरराष्ट्रीय कोषों को केवल घोषणात्मक नहीं, बल्कि क्रियाशील और जवाबदेह बनाना होगा। इसके साथ ही जलवायु वित्त को ‘ऋण’ की बजाय ‘अनुदान’ के रूप में दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह सहायता किसी पर उपकार नहीं, बल्कि साझी जिम्मेदारी का हिस्सा है।
एक अन्य गंभीर पक्ष यह है कि जलवायु परिवर्तन की मार सभी पर समान नहीं पड़ती। समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्ग—जैसे आदिवासी समुदाय, महिला किसान, शहरी गरीब, द्वीपीय राष्ट्रों के निवासी—सबसे पहले और सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। उनकी आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा इस संकट के कारण सबसे ज्यादा खतरे में पड़ जाती है। अतः जलवायु नीति निर्माण में सामाजिक न्याय और समावेशन की अनिवार्यता को स्वीकार करना आवश्यक है। जाति, वर्ग, लिंग और भौगोलिक असमानता को ध्यान में रखे बिना कोई भी समाधान अधूरा रहेगा।
यहां यह समझना भी जरूरी है कि जलवायु संकट केवल प्रौद्योगिकी से हल नहीं होगा। यह एक सांस्कृतिक और जीवनशैली आधारित संकट भी है। हमारी उपभोक्तावादी प्रवृत्तियाँ, विलासिता की आकांक्षाएं, और संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग—ये सभी इस संकट को जन्म देने वाले मूल कारक हैं। अतः समाधान भी यहीं से निकलना होगा—सोच और व्यवहार में बदलाव लाकर। सादगी, स्थायित्व और संतुलन जैसे मूल्यों को पुनर्स्थापित करना होगा।
उत्पादन और उपभोग के वर्तमान मॉडल की पुनर्व्याख्या करनी होगी। कृषि में जैव विविधता आधारित पद्धतियों को अपनाना, स्थानीय उत्पादों और बाजारों को प्राथमिकता देना, शहरी जीवन में साइकिल, पैदल यात्रा और सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना—ये सभी छोटे-छोटे परिवर्तन मिलकर बड़ी स्थिरता ला सकते हैं। सरकारों को हरित अवसंरचना में निवेश करना चाहिए, जैसे हरित भवन,
पुनर्चक्रण इकाईयां (रीसाइक्लिंग यूनिट्स), जल संरक्षण प्रणालियाँ और इलेक्ट्रिक ग्रिड का आधुनिकीकरण।
शिक्षा की भूमिका भी अत्यंत निर्णायक है। जलवायु शिक्षा को केवल पर्यावरण विज्ञान के एक अध्याय के रूप में न देखा जाए, बल्कि इसे जीवन कौशल और नागरिक जिम्मेदारी के रूप में स्थापित किया जाए। युवा पीढ़ी को जलवायु विज्ञान, सतत विकास, नीतिगत प्रक्रिया और नवाचारों की जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे समस्या के समाधानकर्ता बन सकें, न कि केवल दर्शक। मीडिया, साहित्य, लोककला, फिल्में और डिजिटल प्लेटफॉर्म जनचेतना को गहराई और गति देने में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव हमारे सभी जीवन क्षेत्रों में परिलक्षित होता है। अनियमित वर्षा से फसलें प्रभावित होती हैं, जिससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ती है। बर्फबारी में कमी और समुद्री जलस्तर में वृद्धि, पहाड़ी और द्वीपीय क्षेत्रों के अस्तित्व को संकट में डालती है। गर्मी की तीव्रता से स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बढ़ रही हैं—हीट स्ट्रोक, जलजनित रोग, मलेरिया जैसी बीमारियाँ पुनः उभर रही हैं। इन प्रभावों का प्रभावी प्रबंधन तभी संभव है जब जलवायु रणनीति बहु-क्षेत्रीय और समन्वित हो।
न केवल सरकारें, बल्कि निजी क्षेत्र, नागरिक समाज, स्थानीय निकाय और आम नागरिक—सभी को अपनी भूमिका स्पष्ट करनी होगी। नीति निर्माण से लेकर उसके कार्यान्वयन तक हर स्तर पर सहभागिता जरूरी है। पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और सहभागिता के सिद्धांतों पर आधारित शासन प्रणाली ही जलवायु संकट से जूझने में सक्षम हो सकती है।
अंततः, हमें यह स्वीकार करना होगा कि जलवायु संकट वैश्विक असमानताओं को और अधिक गहरा कर सकता है यदि हम समय रहते न्यायपूर्ण उपाय नहीं अपनाते। आज जो देश और समुदाय निर्णय लेने की स्थिति में हैं, उन्हें केवल अपने हितों की नहीं, बल्कि वैश्विक समुदाय और आने वाली पीढ़ियों की जिम्मेदारी भी उठानी होगी। यह केवल पर्यावरणीय दायित्व नहीं, बल्कि नैतिक कर्तव्य है।
यह समय केवल प्रतिक्रिया का नहीं, बल्कि पुनर्रचना का है—एक ऐसी पुनर्रचना जो प्रकृति के साथ संतुलन, समाज में समरसता और वैश्विक स्तर पर न्याय को फिर से स्थापित कर सके। यह पुनर्रचना तब ही संभव है जब दृष्टिकोण वैज्ञानिक ही नहीं, मानवीय भी हो; जब तकनीक के साथ-साथ सहानुभूति भी हो; और जब समाधान के केंद्र में केवल विकास नहीं, बल्कि संतुलन और समावेशन हो।
यदि हम आज यह व्यापक परिवर्तन करने में विफल रहते हैं, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें केवल जिम्मेदार ही नहीं ठहराएँगी, बल्कि वे इस असंतुलित और असुरक्षित धरती पर जीने को भी विवश होंगी। समय की मांग है कि हम जलवायु संकट को एक वैश्विक न्याय के रूप में देखें और एकजुट होकर वह दुनिया बनाएं जो न्यायसंगत, टिकाऊ और सुंदर हो—हम सबके लिए और हमारी आने वाली संतानों के लिए।यह समझना आवश्यक है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने की प्रक्रिया केवल एक वैज्ञानिक या तकनीकी प्रकल्प नहीं है, बल्कि यह मानव सभ्यता के भविष्य की नैतिक परीक्षा है। इसमें केवल उत्सर्जन को कम करना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि हमें अपने सामाजिक और आर्थिक ढाँचों की पुनर्व्याख्या करनी होगी। इस वैश्विक संकट के समाधान के लिए नीतिगत बदलाव के साथ-साथ, मानवीय संवेदनाओं और वैश्विक एकात्मता की भी आवश्यकता है। जब तक हम विकास की परिभाषा को केवल सकल घरेलू उत्पाद या औद्योगिक उत्पादन से जोड़ते रहेंगे, तब तक सततता और न्याय एक दूर का सपना बने रहेंगे।
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