Author: डॉ रामानुज पाठक | 21वीं सदी मानव इतिहास के उस मोड़ पर खड़ी है जहाँ विज्ञान, तकनीक और वैश्विक सहयोग ने अभूतपूर्व प्रगति की है, परंतु साथ ही साथ मानवता ने अपने अस्तित्व के लिए गंभीर संकट भी खड़ा कर लिया है—और वह संकट है जलवायु परिवर्तन। यह संकट केवल मौसम का परिवर्तन नहीं, बल्कि पारिस्थितिक तंत्रों का विघटन, जैव विविधता का ह्रास, जल स्रोतों की कमी, खाद्य सुरक्षा पर खतरा और लाखों लोगों के लिए विस्थापन का कारण बनता जा रहा है। यह एक ऐसा संकट है जो सीमाओं, धर्मों, जातियों और वर्गों से परे, समस्त मानवता को प्रभावित कर रहा है।
यह समस्या जितनी व्यापक है, समाधान भी उतना ही समावेशी और विज्ञान-सम्मत होना चाहिए। केवल सरकारों के नीति-निर्धारण से बात नहीं बनेगी; जब तक समाज—विशेषतः युवा पीढ़ी—इस परिवर्तन की अगुआई नहीं करती, तब तक सार्थक परिणाम असंभव हैं। युवा न केवल भविष्य के कर्णधार हैं, बल्कि वर्तमान में भी सामाजिक बदलाव की धुरी बन सकते हैं। उनकी वैज्ञानिक समझ, नवाचार की क्षमता, और तकनीकी साक्षरता जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध एक शक्तिशाली साधन बन सकती है।
अंतरसरकारी पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज(आई पी सी सी)की नवीनतम छठवीं असेसमेंट रपट 2023 के अनुसार
1880 के बाद से पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, और पिछले चार दशकों में प्रत्येक दशक पूर्ववर्ती की तुलना में अधिक गर्म रहा है।आर्कटिक क्षेत्र में तापमान वृद्धि वैश्विक औसत से चार गुना अधिक हो रही है—जिससे ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र स्तर तेजी से बढ़ रहा है।समुद्री बर्फ (सी आइस) की औसत गहराई और घनत्व में 1979 के बाद से 40 फीसद की कमी दर्ज की गई है।
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2023 में भारत ने 2.9 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन किया, जो वैश्विक उत्सर्जन का 7 फीसद है—हालाँकि भारत की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर अभी भी विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है (करीब 2 टन/व्यक्ति/वर्ष, जबकि अमेरिका में यह 14 टन/व्यक्ति/वर्ष है)।
1950 के बाद से वैश्विक स्तर पर चरम मौसमी घटनाओं में 300 फीसद की वृद्धि हुई है ,जैसे अतिशय गर्मी (हीटवेव) सूखा, बाढ़ और जंगलों में आग।अंतरसरकारी पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आई पी सी सी) की 2023 की रपट विश्व के लिए चेतावनी की घंटी है। रपट के अनुसार, औद्योगिक क्रांति के बाद से वैश्विक औसत तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है, और अगर हरित घर (ग्रीनहाउस )गैसों का उत्सर्जन इसी गति से जारी रहा, तो 2030 तक यह वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगी—जो पारिस्थितिकीय असंतुलन की एक सीमा रेखा मानी जाती है।
हर दशक में वैश्विक तापमान में औसतन 0.2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है। वर्ष 1900 के मुकाबले समुद्र-स्तर 20 सेमी ऊपर उठ चुका है। वर्ष 2023 में ग्रीनहाउस गैसों का कुल उत्सर्जन 57.4 गीगाटन कार्बन डाई ऑक्साइड के समकक्ष था।
इन आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि यदि निर्णायक कार्रवाई नहीं हुई, तो 2050 तक जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव जीवन की गुणवत्ता को गम्भीर रूप से प्रभावित करेंगे। गर्म हवाओं, जलवायु आपदाओं, जल संकट और खाद्य असुरक्षा के खतरे पहले से ही कई देशों में महसूस किए जा रहे हैं। युनेस्को की 2022 की रपट बताती है कि केवल 30 फीसद देशों के स्कूली पाठ्यक्रमों में जलवायु शिक्षा को व्यवस्थित रूप से शामिल किया गया है।
युवाओं में वह जीवंत शक्ति है जो किसी भी सामाजिक परिवर्तन की नींव बन सकती है। विज्ञान, तकनीक और सामाजिक जागरूकता से लैस यह पीढ़ी जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध कई स्तरों पर प्रभाव डाल सकती है:व्यवहारगत परिवर्तन छोटे कदम, बड़ा असर—यह दर्शन युवाओं द्वारा अपनाया जा सकता है। जैसे: एकल उपयोगी (सिंगल-यूज़) प्लास्टिक का परित्याग,ऊर्जा दक्ष उपकरणों का चयन,स्थानीय और मौसमी उत्पादों का उपयोग,साइकिल या सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग। सोशल मीडिया युवाओं का एक ताकतवर मंच है। वे डिजिटल अभियानों के माध्यम से लाखों लोगों को जागरूक कर सकते हैं। “फ्राइडे फॉर फ्यूचर” आंदोलन इसका एक प्रेरणास्पद उदाहरण है,
जिसमें एक किशोरी ग्रेटा थनबर्ग की पहल ने विश्व भर में जलवायु चेतना को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया।
आज युवा वैज्ञानिक केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं; वे समाज में व्यावहारिक समाधान ला रहे हैं।एम आई टी के छात्रों ने एक ऐसा पेड़-नुमा कृत्रिम ढांचा विकसित किया है जो प्रति दिन 100 किलोग्राम कार्बन डाई ऑक्साइड अवशोषित कर सकता है।
भारत में आई आई टी मद्रास के छात्रों ने “जीरो एनर्जी कूलिंग चैंबर” विकसित किया है, जो बिना बिजली के फलों और सब्ज़ियों को ताज़ा रख सकता है—यह खाद्य अपव्यय को कम करने में मदद करता है। बेंगलुरु के स्टार्टअप ” टकाचार ” ने कृषि अवशेषों को जलाने की बजाय उसे जैव-कोयला (बायोचार) में बदलने की तकनीक विकसित की है, जिससे प्रदूषण 60 फीसद तक घटाया जा सकता है।तकनीकी नवाचारों की दिशा में युवा लगातार नई खोजें कर रहे हैं।
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भारत में आई आई टी छात्रों द्वारा विकसित ‘कार्बन चिमनी फिल्टर’ जैसे आविष्कार अब औद्योगिक उत्सर्जन को 40 फीसद तक घटाने में सक्षम हैं। इसी प्रकार, सस्ते और टिकाऊ सोलर पैनल, बायो-प्लास्टिक, और ग्रीन बिल्डिंग तकनीकों में भी युवा वैज्ञानिकों का योगदान अहम है।कई देशों में युवा अब केवल सामाजिक मीडिया तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वे याचिकाओं, लोक अदालतों और युवा संसदों के माध्यम से नीति-निर्धारकों को जलवायु के पक्ष में सख्त निर्णय लेने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जर्मनी, यूके और नीदरलैंड्स में युवाओं द्वारा शुरू की गई कानूनी कार्रवाइयों ने जलवायु नीतियों को प्रभावित किया है।
जहाँ सरकारें व्यापक नीतिगत और संरचनात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम होती हैं, वहीं युवा सामाजिक व्यवहार को बदलने, जन-जागरूकता फैलाने और वैज्ञानिक नवाचारों को अपनाने में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं। सरकारों की नीतियाँ तभी प्रभावी होती हैं जब नागरिक विशेषकर युवा उन्हें समझें, स्वीकारें और अपनाएँ।
जलवायु शिक्षा को मजबूत करना आज की सबसे बड़ी प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। जब युवा वैज्ञानिक तथ्यों से परिचित होंगे—जैसे कि ग्रीनहाउस प्रभाव, कार्बन चक्र, और सतत विकास के सिद्धांत—तभी वे समाधान का हिस्सा बन सकेंगे।
भारत में एन ई पी 2020 के अंतर्गत स्कूली पाठ्यक्रम में जलवायु विज्ञान को शामिल किया जा रहा है। यूनिसेफ की ‘यूथक्लाइमेटचैंपियन’ योजना, और विज्ञान प्रसार की कार्यशालाएँ युवाओं को जलवायु विज्ञान के गहन अध्ययन की ओर प्रेरित कर रही हैं। इससे एक वैज्ञानिक, पर्यावरणीय और सामाजिक दृष्टिकोण विकसित होता है।
जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जिन देशों ने सबसे कम उत्सर्जन किया है, वे ही इसके सबसे बड़े शिकार हैं। अफ्रीका, दक्षिण एशिया और प्रशांत द्वीपों में रहने वाले करोड़ों लोगों की आजीविका खतरे में है। इस असमानता के प्रति युवा वर्ग अधिक संवेदनशील है। वे जलवायु न्याय की माँग कर सकते हैं—ऐसी नीतियाँ जो उत्तरदायित्व और सहायता के सिद्धांतों पर आधारित हों।
जलवायु परिवर्तन के खिलाफ कुछ प्रेरणास्पद उदाहरण हैं ।भारत में ‘ज्ञान वाणी’, ‘विज्ञान प्रसार’ और ‘इको-क्लब प्रोग्राम’ जैसे प्रयासों से लगभग 1.5 करोड़ विद्यार्थियों तक जलवायु और पर्यावरण शिक्षा पहुँच रही है। लिसिप्रिया कांगुजम (भारत): मणिपुर की एक 11 वर्षीय लड़की जिन्होंने संसद भवन के बाहर जलवायु कानून की माँग करते हुए प्रदर्शन किया।
वांगारी माथाई (केन्या): हरित पट्टी आंदोलन की शुरुआत करने वाली पहली अफ्रीकी महिला, जिन्होंने हजारों महिलाओं को पर्यावरण-संरक्षण में जोड़ा।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि उम्र छोटी हो सकती है, लेकिन सोच और संकल्प बड़े बदलाव ला सकते हैं।
जलवायु परिवर्तन केवल एक वैज्ञानिक या पर्यावरणीय संकट नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, आर्थिक स्थिरता और नैतिक जिम्मेदारी का भी प्रश्न है। इस बहुस्तरीय संकट का समाधान केवल सरकारों की नीतियों से नहीं, बल्कि नागरिकों, विशेषकर युवाओं की भागीदारी से संभव है।
युवाओं के पास जोश, तकनीकी ज्ञान, और नवाचार की क्षमता है—वे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ न केवल लड़ सकते हैं, बल्कि इस संकट को एक अवसर में भी बदल सकते हैं। उन्हें न केवल प्रेरित करना आवश्यक है, बल्कि उन्हें सुनना, समझना और नेतृत्व का अवसर देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।
यदि हम आज के युवाओं को जलवायु समाधान का सशक्त भागीदार बना सकें, तो हम न केवल एक हरित भविष्य की नींव रखेंगे, बल्कि एक ऐसा समाज भी गढ़ेंगे जो न्यायपूर्ण, टिकाऊ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समृद्ध होगा।
युवा शक्ति की भागीदारी केवल भावनात्मक या प्रतीकात्मक नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे संरचित, संस्थागत और सतत बनाना होगा। इसके लिए विश्वविद्यालयों, तकनीकी संस्थानों और स्कूलों में “ग्रीन इनोवेशन लैब्स”, “क्लाइमेट लीडरशिप प्रोग्राम्स” और “स्थायी जीवनशैली क्लब” की स्थापना की जा सकती है। ऐसे मंच युवाओं को न केवल विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा देंगे, बल्कि उन्हें वास्तविक समाधान विकसित करने के लिए मार्गदर्शन और संसाधन भी प्रदान करेंगे।
इसके अतिरिक्त, स्थानीय भाषाओं में जलवायु शिक्षा की सामग्री तैयार करना, जनजातीय और ग्रामीण युवाओं तक वैज्ञानिक जानकारी पहुँचाना, और पारंपरिक पर्यावरणीय ज्ञान को आधुनिक विज्ञान से जोड़ना भी अत्यंत आवश्यक है। जब युवा अपने स्थानीय संदर्भों में जलवायु संकट को समझेंगे, तभी वे इसके विरुद्ध कारगर रणनीतियाँ विकसित कर सकेंगे।
सरकार, गैर-सरकारी संस्थाएँ, वैज्ञानिक समुदाय और मीडिया—सभी को मिलकर एक ऐसा पारिस्थितिकी तंत्र बनाना चाहिए जहाँ युवा केवल “प्रतिभागी” नहीं बल्कि “परिवर्तनकर्ता” की भूमिका में हों। यह तभी संभव है जब हम उन्हें केवल भविष्य का नागरिक नहीं, बल्कि वर्तमान का नेतृत्वकर्ता मानें।