क्या अमेरिका की दोहरी नीतियों करण हो रहा है चीन और ताइवान का विवाद? जानें पूरा इतिहास

China Taiwan conflict History

न्यूज़ डेस्क, रोवा I China Taiwan conflict History: चीनी सेना ने एक बार फिर से युद्ध अभ्यास के नाम पर ताइवान की सीमा को चारो तरफ से घेर लिया है. और चेतावनी जारी की है कि जो भी ताइवान के साथ खड़ा रहेगा उसका सर फोड़ दिया जाएगा साथ ही खून की नदिया भी बहेंगी। ऐसे में अटकलें लगाई जा रहीं हैं कि इन दोनों देशों के बीच बहुत ही जल्द युद्ध हो सकता है.

चाइना-ताइवान विवाद की बात जब-जब सामने आती है तब-तब सबसे पहले साल 2022 याद आता है. जब US स्पीकर नेन्सी पेलोसी चीन के मना करने के बाद भी गुप्-चुप तरीके से ताइवान दौरे पर पहुंची थी. और इसका खामियाजा ताइवान को चीनी सेना के आक्रमणों को सह कर भुगतना पड़ा था. पर इस एकाधिपत्य की लड़ाई की जड़ें साल 2022 से भी काफी पुरानी है. लगभग चार सो साल पुरानी। जब ताइवान एक डच कॉलोनी के रूप में उभर रहा था. और चीन के फ्यूरिन प्रोविंस के निवासी जिन्हे होक्लो चाइनीज़ के नाम से जाना जाता था, ताइवान की ओर माइग्रेट करने लगे थे. यह घटना साल 1683 से 1895 के दौरान की है, जब ताइवान में चीन के किंग डायनेस्टी का राज हुआ करता था. यह पहली बार था जब चीन से निकल कर लोग इस छोटे से आइलैंड पर पहुंचे थे. समय के साथ इस टापू और टापू के लोगों का विकास होता गया. लिहजान, सबकी नज़रें इस टापू की और आकर्षित हुईं।

चीन-ताइवान विवाद का इतिहास

China Taiwan conflict History: इसी दौरान सन 1895 में फर्स्ट सिनो जैपनीज़ वार हुआ. जिसमे चीन की ये टेरिटरी जापान के हाथ लग गयी. और अब इस पर सिर्फ और सिर्फ एकाधिपत्य जापान का ही था. लेकिन जब 1945 में दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ तब फिर इस आइलैंड को USA और UK की सहमति से चीन के साथ ही एकीकृत कर दिया गया. यहाँ ध्यान दीजिएगा कि उस वक़्त इस एकीकरण की प्रक्रिया में USA की भी सहमति थी. जो आज कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से ताइवान के साथ खड़ा दीखता है. बहरहाल, चीन और ताइवान में हमेसा से ही खींचा-तनी का माहौल रहा. जो चीन के आंतरिक कलहों से भी खूब प्रभावित हुआ. लिहाजन 1947 में ताइवान के लोगों द्वारा चीनी सरकार का विरोध करने पर सेना द्वारा एक खूंखार जन संघार को अंजाम दिया गया जिसमे करीब 18000 से 28000 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया.

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इस जन संघार के बाद अगले दो सालों में, चीन में एक बहुत बड़ा सिविल वार होता है. जिसमे एक तरफ माओ जेडोंग की कम्युनिस्ट आर्मी होती है तो दूसरी तरफ चीन में राज कर रही चिआंग काई-शेक के पार्टी KMT. असल में इस सिविल वार में माओ जेडोंग जीत जाता है, जिससे चीन में पूरी तरह से कम्युनिस्म और तानाशाही हावी हो जाती है. वहीँ, माओ से हारने के बाद kmt के लगभग 15 लाख सप्पोर्टर ताइवान चले जाते हैं और वहां अपनी सरकार बनाते हैं. इस सिविल वार का असर ना सिर्फ चीन की आतंरिक राजनीती के फेर बदल का कारण बनता है. बल्कि यहीं से ताइवान के आँखों में सजता है एक आजाद देश का ख्वाब। अब वो कैसे? आइए आगे के घटना क्रम से जानते हैं-

अमेरिका की दूसरी नीति से और भी बिगड़ा रिश्ता

1949 में ताइवान आने के बाद kmt यहाँ की राजनीति में लगातार 25 साल तक अपनी सक्रिय भूमिका निभाती है.इस समय तक पूरी दुनिया कम्युनिस्म, कैपिटलिज्म और तमाम तरह के विचारधारों में बंट चुकी रहती है. दुनिया एक तरफ जहाँ शीत युद्ध से जूझ रही होती है. वहीँ दूसरी और इस मौके का फायदा उठा अपनी दोहरी नीति के साथ चीन और ताइवान के बीच दाखिल होता है अमेरिका। हमने शब्द “दोहरी नीति” का इस्तेमाल किया है. हम इसका प्रमाण भी देंगे आप बस घटना क्रम के साथ चलते जाइए।

चीन पर माओ का कब्ज़ा होने के बाद कैपिटलिस्ट विचारधारा पर चलने वाली अमेरिका का हाव-भाव अब चीन को लेकर बदलने लगा था. जिस अमेरिका ने सन 1945 में चीन और ताइवान मामले में चीन के पक्ष में हामी भरा हो अब उसी अमेरिका ने माओ के चीन को चीन मानने इंकार कर दिया था. साथ ही un की सिक्योरिटी कौंसिल में जो सीट चीन के नाम से हुआ करती थी उस पर भी अब ताइवान की सरकार बैठने लगी थी. चीन के साथ अमेरिका के इस व्यवहार का एक मात्र कारण कम्युनिस्म को पोषण देना और रूस के साथ अच्छे सम्बन्ध का होना था. लेकिन बाद में जब अन्य देशों द्वारा अमेरिका के इस कदम का विरोध किया गया तो अमेरिका ने पुनः अपने सिक्योरिटी कौंसिल में माओ के चीन को शामिल कर लिया।

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माओ के मरने के बाद चीन में जब इकनोमिक रिफॉर्म्स हुए और वहां का बाजार जब पूरे देश के लिए खोल दिया गया. तब अमेरिका ने फिर से चीन के साथ एक डिप्लोमेटिक संधि कर ली. इसके बाद अमेरिका ने कहना शुरू कर दिया की वो ताइवान को आजाद देश तो नहीं मानते लेकिन चीन अगर उनपर हमला करता है तो वो ताइवान का ही साथ देंगे। ऐसे में ताइवान और चीन का रिस्ता आतंरिक कलह और अमेरिका की दोहरी नीतियों के बीच उलझ कर रह गया है. आज के समय में एक तरफ ताइवान खुद को एक आजद देश मानता है तो वहीँ चीन इसे अपना खुद का हिस्सा बताता है. पर सवाल यह बनता है कि यहाँ के लोग खुद को क्या मानते हैं.

तो एक आंकड़े के अनुसार-

यहाँ के 64% निवासियों का मानना है कि वो आजाद ताइवान का हिस्सा है. 30% लोगों का मानना है कि वो चीनी और ताइवानी दोनो हैं तो वहीँ 2.4% लोगों का मानना है कि वो चीनी हैं.

वहीँ बात ताइवान की राजनीतिक पार्टियों की करे तो KMT आज भी चाहती है कि वो चीन के साथ शांति समझौता कर एकीकृत हो जाए. तो वहां की वर्तमान सरकार डेमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी का कहना है कि ताइवान एक आजाद देश है. और किसी भी सौदे पर चीन में इसका विलय नहीं हो सकता।

दूसरी और वैश्विक पटल पर बात करें तो दुनिया के सभी देशों में से मात्र 14 देश ही ताइवान को एक आजाद देश के रूप में मानते हैं.ऐसे में आने वाले समय में ये लड़ाई क्या मोड़ लेती है और चीन की ये विस्तारवादी सोच कहाँ तक जाती है देखने वाली बात होगी।

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