Chhaava Real Story In Hindi, Sambhaji Maharaj History | हाल ही में पिछले दिनों 14 फरवरी शुक्रवार को छावा फिल्म रिलीज हुई। विकी कौशल, रश्मिका मंदाना और अक्षय खन्ना अभिनीत यह फिल्म दर्शकों को बहुत पसंद आ रही, रिलीज के तीन दिन में ही इस फिल्म ने लगभग 100 करोड़ का बिजनेस किया है, वीकेंड के कारण फिल्म ने रविवार को और भी ज्यादा तेज बिजनेस किया। यह फिल्म शिवाजी सावंत के मराठी उपन्यास “छावा” पर आधारित है, इस फिल्म में टाइटल रोल किया है विकी कौशल ने। ‘छावा’ का अर्थ होता है शावक, अर्थात शेर का बच्चा, छावा छत्रपति संभाजी को कहा जाता है, फिल्म की कहानी से इतर आइए जानते हैं संक्षिप्त में उनका ऐतिहासिक जीवन वृत्त।
कौन थे संभाजी महाराज | Sambhaji Maharaj Story
शंभाजी महाराज मराठा स्वराज की नींव रखने छत्रपति शिवाजी जी महाराज और उनकी प्रमुख रानी सईबाई निंबलकर के पुत्र थे। उनका जन्म 14 मई 1657 को अहमदनगर दुर्ग में हुआ था, जब वह महज दो वर्ष के थे तभी उनकी माँ का निधन हो गया था, जिसके कारण उनका लालन-पालन उनकी दादी जीजाबाई ने किया था। उनकी शिक्षा-दीक्षा का भी उचित प्रबंध किया गया था, वह संस्कृत भाषा में निपुण थे। पुरंदर की संधि अनुसार उन्हें पंचहजारी मनसब दिया गया था। बाद में अपने पिता के साथ वह आगरा भी गए थे, बाद में अपने पिता के साथ वहाँ से निकल भी भागे। आगे चलकर शिवाजी महाराज जब छत्रपति बने तब संभाजी उनके साथ ही था, अंग्रेजों द्वारा उनको उपहार इत्यादि दिए जाने का भी जिक्र है। उनका विवाह हुआ था येसुबाई के साथ जबकि साहूजी उनके पुत्र थे।
पिता से अलगाव
एक समय ऐसा भी आया जब उनको अपने पिता का कोप का भाजन बनना पड़ा था, दरसल इतिहास में कई बातों का जिक्र है, उनके पिता ने उनके बुरे आचरण की वजह से उनके पिता ने उनको पन्हाला दुर्ग में नजरबंद कर दिया था, बाद में 1678 में में वह अपनी पत्नी येशुबाई के साथ दुर्ग से निकल भागे, और दिलेर खान अफ़गान नाम के एक मुगल मनसबदार से मिल गए, दिलेर खान को मुख्यतः शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण में तैनात किया गया था, दिलेर खान ने शंभाजी का स्वागत किया, लेकिन दिलेर खान द्वारा सामान्य जनों के साथ किया जाने वाला व्यवहार उन्हें पसंद ना आने की वजह से वह एक रात अपनी पत्नी के साथ मुग़ल डेरों से निकल गए, और वापस अपने पिता के पास वापस लौट आए।
सत्ता के लिए पारिवारिक संघर्ष और संभाजी का छत्रपति
शिवाजी महाराज की दूसरी प्रमुख पत्नी थीं सोयराबाई, जो सुप्रसिद्ध मोहिते परिवार से थीं, सईबाई के निधन के बाद शिवाजी महाराज के जीवन पर सोयराबाई का अत्यंत प्रभाव बढ़ गया था, वह अपने बेटे राजाराम को शासक बनाना चाहती थीं, और बड़े बेटे होने के कारण उनका गद्दी पर दावा स्वाभाविक था, इधर 1674 में उनकी पक्षधर उनकी दादी जीजाबाई की भी मृत्य हो गई। अंततः अपने सौतेली माँ से मतभेदों के चलते ही वह रायगढ़ से पन्हाला चले गए थे। अप्रैल 1680 में जब शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई तब वह पन्हाला में ही थे, उन्हें तो शिवाजी महाराज के मृत्यु की सूचना तक नहीं दी गई थी। इधर रानी सोयराबाई ने अपने दस वर्षीय बेटे के लिए गद्दी का दावा किया, दोनों पक्षों में एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र होने लगे, मराठा सरदार दो गुटों में बंट गए, हालांकि अंततः शंभाजी अपना अधिकार पाने में सफल रहे। राजा बनने के बाद संभाजी महाराज के अभियान मुग़लों के विरुद्ध जारी रहे, उन्होंने जंजीरा के सिद्दियों और गोवा के पुर्तगालियों के विरुद्ध भी सैनिक अभियान किए।
पिता के विरुद्ध शहजादे अकबर का विद्रोह
राजा बनने के बाद संभाजी महाराज के अभियान मुग़लों के विरुद्ध जारी रहे, उन्होंने जंजीरा के सिद्दियों और गोवा के पुर्तगालियों के विरुद्ध भी सैनिक अभियान किए। सन 1678 की बात है मारवाड़ के राजा जसवंत सिंह की जमरूद में मृत्यु हो गई, उनके मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने एक बेटे को जन्म दिया था, लेकिन औरंगजेब ने उसे राज्य देने में आनाकानी की, परिणामस्वरूप मारवाड़ के राठौड़ों ने दुर्गादास के नेतृत्व में मुग़ल साम्राज्य से विद्रोह कर दिया, उदयपुर के राणा राज सिंह ने भी इन विद्रोहियों का ही साथ दिया, चूंकि राजपूत विद्रोह के कारण आगरा और सूरत के बीच का मार्ग बाधित हो गया, परिणामस्वरूप मुग़ल बादशाह औरंगजेब ने इस विद्रोह का दमन करने के लिए अपने तीन बेटों मुहम्मद अकबर, आजमशाह और मुआज़्ज़म के नेतृत्व में अपनी सेना मेवाड़ और मारवाड़ भेजी, आजम और मुआज़्ज़म तो पराजित हो गए, लेकिन अकबर डटा रहा, वहाँ राजपूतों ने इसे इसके पिता के विरुद्ध भड़काकर विद्रोह के लिए उकसाया, परिणामस्वरूप एक जनवरी 1681 को इसने खुद को बादशाह घोषित कर दिया, अपने पुत्र और राजपूत राजाओं के दमन के लिए स्वयं अजमेर आया, हालांकि अपनी युक्तियों के कारण औरंगजेब ने अपने पुत्र और राजपूतों के मध्य मतभेद पैदा कर दिए, बाद में दुर्गादास की मदद से अकबर दक्कन की तरफ चला गया, जहाँ उसे छत्रपति संभाजी राजे ने शरण दी, हालांकि आगे चल के अकबर वहाँ से फारस की तरफ निकल गया, लेकिन औरंगजेब के मन में संभाजी के लिए एक कांटा हो गया।
छत्रपति संभाजी का पकड़ा जाना
1681-1682 के समय की बात है जब औरंजेब दक्षिण अभियान पर गया, वह मराठों के साथ ही गोलकुंडा और बीजापुर सल्तनतों का भी दमन करना चाहता था, इसीलिए वह दक्षिण अभियान पर गया, 1687 के लगभग उसने गोलकुंडा पर घेरा डाला, गोलकुंडा की सेना में एक सुप्रसिद्ध कमांडर था, मुकर्रब खान दक्किनी, वह इसी अभियान के दौरान गोलकुंडा का साथ छोड़कर मुग़ल सेना की तरफ मिल गया था, इसी ने 1689 में रत्नागिरी के निकट संगमेश्वर के निकट संभाजी को उनके कई मराठा सरदारों के साथ पकड़ा था। इसके साथ ही उनके दरबारी कवि कलश भी पकड़े गए थे, माना जाता है वह अंत तक संभाजी राजे के साथ थे।
मुग़लों द्वारा संभाजी को दी गई यातनाएँ
औरंगजेब के आदेश के बाद संभाजी को बहादुरगढ़ के मुग़ल खेमे तक उनकी परेड निकालते हुए लाया गया, उनके राजसी वस्त्रों की जगह उन्हें विदूषक जैसे कपड़े पहनाए गए, उनके हाथ ऊपर करके एक लकड़ी के साथ बांध दिया गया, उनके सीने में एक लकड़ी की तख्ती भी लटकी दी गई थी और एक मरियल से ऊंट में बैठाकर, उन्हें औरंगजेब के सामने लाया गया। उन्हें आदेश दिया गया वह झुककर बादशाह को सलाम करें लेकिन उन्होंने इस बात से इंकार कर दिया गया और लगातार वह औरंगजेब को घूरते ही रहे, जिसके कारण औरंगजेब ने उनकी आंखे निकाल देने का आदेश दिया, उन्हें मुग़ल बादशाह द्वारा इस्लाम अपना लेने के लिए भी कहा गया, लेकिन इंकार के बाद उनकी जबान भी खींच ली गई, और एक-एक अंग काटते हुए एक दिन उनकी हत्या भी कर दी गई।
उनके बाद उनका परिवार और मराठा साम्राज्य
उसके बाद मुग़ल सेनाओं द्वारा रायगढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उनकी पत्नी येसुबाई और बेटे को पकड़ कर मुग़लों की राजधानी आगरा में नजरबंद कर दिया गया, उनके सौतेले भाई राजाराम वहाँ से भागने में सफल रहे, जो आगे चलकर मराठा साम्राज्य के छत्रपति बने, हालांकि दस वर्षों में उनका भी निधन हो गया, जिसके बाद उनकी विधवा ताराबाई ने मराठा साम्राज्य की बागडोर अपने हाथों में ले ली, और मुग़लों से संघर्ष सतत जारी रहा।