Chandrashekhar Azad Death Anniversary| चंद्रशेखर आज़ाद जो जीवन भर आज़ाद रहे

चंद्रशेखर आज़ाद पुण्यतिथि| मेरा नाम आज़ाद, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता और मेरा घर जेल है, मजिस्ट्रेट ने यह जवाब सुनकर 15 साल के एक लड़के को 15 बेंत मारने की सजा सुनाई जो असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार हुआ था, वह अपने घर भाबरा अलीराजपुर से काशी विद्यापीठ संस्कृत पढ़ने आया था, नाम था चंद्रशेखर तिवारी लेकिन अब से उसने अपना नाम रखा आज़ाद रख लिया था, इस घटना के बाद देश उन्हें चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानने लगा।

कौन थे चंद्रशेखर आज़ाद

चंद्रशेखर एक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े हुए एक क्रांतिकारी थे, जिनका जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के अलीराजपुर (झाबुआ) जिले में पंडित सीताराम तिवारी और जगरानी देवी के घर में हुआ था। कई विद्वान उनका जन्मस्थान उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले का बदरखा भी बताते हैं जो उनका पैतृक गांव भी था। चूंकि उनकी माँ चाहती थीं, उनका बेटा संस्कृत का महान आचार्य और विद्वान बने, इसीलिए उनके पिता ने उन्हें बनारस के काशी विद्यापीठ पढ़ने भेज दिया।

क्रांतिकारी जीवन

जब वह काशी विद्यापीठ में पढ़ रहे थे, तभी महात्मा गाँधी ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन छेड़ा था, उन्होंने छात्रों से भी इस आंदोलन से जुड़ने का आग्रह किया, नतीजन चंद्रशेखर आजाद भी इस आंदोलन में कूद पड़े, उस समय उनकी उम्र केवल 14-15 वर्ष थी, उन्हें ब्रिटिश पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया गया और न्यायालय में जज के सामने पेश किया गया, जब जज ने पूछा, तुम्हारा नाम क्या है? तो उन्होंने कहा-“आज़ाद”, जज ने फिर पूछा तुम्हारे पिता का क्या नाम है? जवाब दिया स्वतंत्रता, जज ने थोड़ा नाराज होते हुए कहा, और पता? चंद्रशेखर आज़ाद ने कहा- “जेल”, जज के गुस्से का कोई ठिकाना ना रहा, उसने किशोर चंद्रशेखर को 15 बेंत मारने की सजा सुनाई, चंद्रशेखर हर बेंत पर “वंदे मातरम” ‘भारत माता की जय’ और महात्मा गांधी की जय का नारा लगाते, यहीं से जन्म हुआ एक क्रांतिकारी का।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन (HSRA) के साथ

गांधी जी ने जब चौरी – चौरा कांड से आहत होकर असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो कई युवा क्रांतिकारी आंदोलन वापस लेने के फैसले से सहमत नहीं थे, यह आंदोलन तब वापस लिया गया जब यह अपने चरम पर था और बहुत ज्यादा प्रभावी था, इसके विरोध में कांग्रेस के कई नेताओं ने देशबंधु चितरंजनदास और मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के “गया” अधिवेशन में खुद को कांग्रेस से अलग कर स्वराज पार्टी का गठन किया, युवा कार्यकर्त्ताओं अशफाकउल्ला खान, सचिन्द्रनाथ बक्शी, सचिन्द्रनाथ सन्याल और जोगेश चंद्र चटर्जी ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन” की स्थापना की यह स्वराज पार्टी का यूथ विंग था, चंद्रशेखर आज़ाद भी गाँधी जी के फैसले से सहमत नहीं थे और युवा क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त के माध्यम से रामप्रसाद बिस्मिल से मिले और HSRA से जुड़ गए, बाद में देशबंधु के निधन के बाद स्वराज पार्टी का पतन हो गया, कई नेताओं ने अलग अलग संगठन बना लिए और कई कांग्रेस में वापस चले गए, लेकिन यह क्रांतिकारी संगठन चलता रहा, लेकिन काकोरी कांड के बाद संगठन के कई महत्वपूर्ण लोगों को फाँसी हो गई जिसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह आदि प्रमुख थे, इसके बाद इस संगठन की जिम्मेदारी चंद्रशेखर आज़ाद पर आई, जे एफ साइमन पर गोली चलाना हो या गवर्नर जनरल की ट्रैन में बॉम्ब उन्हीं के नेतृत्व में ही हुआ,बाद में उन्होंने अपने क्रांति के लिए ओरछा- झाँसी का क्षेत्र चुना और वहीं रहकर गतिविधियों को अंजाम देने लगे, यहीं रहकर वह निशानेबाजी की प्रैक्टिस भी किया करते थे, आज़ाद अचूक निशानेबाज थे। आगे चलकर भगत सिंह भी इसी संगठन से जुड़े।

चंद्रशेखर आज़ाद जो जीवन भर आज़ाद रहे

लाहौर की सेंट्रल असेम्बली में बॉम्ब फेंकने के बाद जब भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की गिरफ्तारी हुई, तो उन्हीं के बचाव के लिए वह बड़े नेताओं से मिल रहे थे इसी सिलसिले में 27 फरवरी 1931 को अब के प्रयाग और तब के इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में थे, तो एक मुखबिर की सूचना पर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें घेर लिया, वह लगातार संघर्ष करते रहे और अंत में जब उनके पिस्तौल में जब एक गोली बची तो उन्होंने खुद के आत्मसम्मान के लिए खुद को शूट कर लिया, वह जीवन भर आजाद रहे ब्रिटिश पुलिस उन्हें कभी ना पकड़ पाई।

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