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Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary | एक सदी अटलजी की..वक्त के स्लेट की इबारत को समझिए! FT. जयराम शुक्ल

Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary

Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary

Atal Bihari Vajpayee Birth Anniversary: अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर आशचर्यजनक तौर पर जो सबसे मार्मिक प्रतिक्रिया आई वह पाकिस्तान से थी। वहां के प्रायः सभी अखबारों में भारत पाकिस्तान के बीच शांति के प्रयासों के लिए वाजपेयी जी को याद किया गया। एक अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा कि वाजपेयी ने शांति और समझौते के लगातार और बार-बार प्रयास किए लेकिन हमने गंभीरता से लेने की बजाय हर बार धोखा दिया।

पाकिस्तान के जानेमाने पत्रकार हामिद मीर ने अपने स्तंभ में लिखा- वाजपेयी ने दोनों देशों के बीच शांति और सौहार्द के जो सपने बोये थे पाकिस्तान की बहुसंख्यक अवाम कि दिलों में वे अभी भी पल रहे हैं। पाकिस्तान के हुक्मरान और भारत के प्रधानमंत्री के साथ बैठकर अटलजी के शांति के सपने को हकीकत में बदल सकते हैं। यह दुख का विषय है कि पड़ोस ने कभी भी अटलजी की भावना को संजीदगी से नहीं लिया।

कभी-कभी वक्त की स्लेट पर घटनाएं ऐसी इबारत उकेर जाती हैं कि उनके संकेत भविष्य के रास्ते का नक्शा तैय्यार करने में मददगार साबित होते हैं। बस इन संकेतों को अटलजी की तरह खुले दिल से संजीदगी समझने की जरूरत है। अटलजी के निधन के आसपास ही पाकिस्तान की नई सरकार का गठन हुआ। क्रिकेट के जरिए करोड़ों खेलप्रेमियों के दिलों में राज करने वाले इमरान खान वहां सत्ता के प्रमुख बने। इसी बीच पाकिस्तान से शांति के समझौतों के सबसे बड़े पैरोकार युगीन पत्रकार कुलदीप नैय्यर का भी निधन हो गया।

कुलदीप जी पिछले कुछ वर्षों तक 14-15 अगस्त को बाघा बार्डर में जाकर दोनों देशों में अमन की ख्वाहिश के साथ मोमबत्तियां जलाया करते थे। स्वप्नदर्शी गीतकार गोपालदास नीरज भी इस दुनिया में नहीं रहे। नीरज उन श्रेष्ठ जनकवियों में शीर्ष थे जो मंचों से पाकिस्तान को सबक सिखाने, मारने, लतियाने, नामोनिशान मिटा देने जैसी चिग्घाड़ पर यकीन नहीं करते थे। उन्होंने भी बँटवारे का खौफनाक मंजर देखा है..। उनके गीतों में भारत-पाक रिश्तों को लेकर ग्लानियुक्त करुणा और संभावनाओं के साथ नई पीढी़ के लिए सबक है। उन्होंने लिखा-

कुलमिलाकर कर अटलजी की आभा और दैवयोग से एक ऐसा नम वातावरण सा तैय्यार हुआ था कि भारत-पाकिस्तान के रिश्तों पर संजीदगी से बात आगे बढ़ाई जा सकती थी। यद्यपि इमरान खान उसी फौज की मदद से जीते थे जिस फौज के कमांडरों ने 1999 में शांति का संदेश लेकर गए भारत के प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को सलामी देने से मना कर दिया था।

इमरान की शुरुआत अच्छे संकेतों के साथ हुई थी। वे अपने पूर्ववर्तियों की भाँति खाँटी राजनीतिज्ञ नहीं हैं। वे जन्नत की हकीकत से औरों के मुकाबले ज्यादा वाकिफ हैं। खिलाड़ी एक कवि की तरह ही स्वप्नदर्शी और भावुक होता है। उसकी समझ वैश्विक होती है। वह खिलाड़ी भावना को ताउम्र वैसे ही जीता है जैसे कि एक भावुक कवि सुखद संभावनओं और सपनों को। सो अटलबिहारी वाजपेयी की यादों में नम हुई पाकिस्तान की अवाम की आवाज बनकर वहां का मीडिया जब भारत-पाकिस्तान के बीच शांति और सौहार्द की बात कर रहा था तो निश्चित ही वह उचित समय था। समूचे भारतीय उप महाद्वीप की यही आकांक्षा है कि दोनों पड़ोसी मिलकर वाजपेयी जी के सपने को यथार्थ के धरातल में उतारकर मूर्तरूप देने की दिशा में आगे बढ़ें, यही वाजपेयी जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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आजादी के बाद अटलजी ही ऐसे महान राजनेता हुए जिन्होंने न सिर्फ इस थ्योरी को स्थापित किया कि भारतीय उप महाद्वीप में यदि शांति और सौहार्द चाहिए तो अखंडभारत के बजाय पाकिस्तान के अस्तित्व को खुले मन से स्वीकार करना होगा। गंगा और झेलम का पानी इतना बह चुका है कि अब उस टीस का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि कभी यह विशाल भारत की मजबूत बाँह हुआ करता था। इसीलिए वे 1999 में बस पर सवार होकर लाहौर गए तथा निशान-ए-पाकिस्तान में पहुँचकर कहा कि हम मजबूत, संप्रभु और जम्हूरियत पर यकीन करने वाले पाकिस्तान की कामना करते हैं। वाजपेयी जी ने पार्लियामेंट में अपने संकल्पों को कई बार दोहराया- हम इतिहास बदल सकते हैं भूगोल नहीं, हम दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं।

एक कवि यदि शासक हो जाए तो वह अपने फैसलों को भी कविभाव से परिपूर्ण रखता है। उन्हें यह विश्वास था कि शांति का रास्ता शक्ति के दहाने से निकलता है। अटलजी ने तय कर लिया था कि विश्वमंच में परमाणु विस्फोट करके ही एक शक्ति के रूप में स्थापित हुआ जा सकता है। बहरहाल यह संकल्प पूरा हुआ जब उनकी 13 महीने वाली सरकार बनी।

कविरूप में वाजपेयी जी में शिवमंगल सिंह सुमन और रामधारी सिंह दिनकर का साम्य दिखता है.. तूफानों की ओर मोड़ दे नाविक निज पतवार। वे लीक छोड़कर चलने वाले सपूत थे, भँवरों और तूफानों से जूझने का माद्दा रखने वाले। यह जानने के बावजूद भी कि परमाणु परीक्षण के बाद प्रतिबंधों का झंझावात भी आएगा लेकिन उनके सामने संभवतः दिनकर के कुरुक्षेत्र की वो पंक्तियां बार-बार झंकृत हो रही होंगी

पाकिस्तान को हमारी भाषा तब समझ में आएगी जब हमारे पास उसको क्षमा करने योग्य सामर्थ्य होगा। यद्यपि पाकिस्तान ने भी यही दोहराया भले ही चगाई को दुनिया ने पोखरण जैसी मान्यता न दी हो।

भारत और पाकिस्तान के बीच स्थाई शांति अटलजी का सबसे बड़ा सपना था। यद्यपि शांति के प्रयासों के बीच बार बार पाकिस्तानी दगाबाजी को भी उन्होंने सहा। जब वे अमृतसर से बस पर सवार होकर लाहौर नवाज शरीफ से मिलन जा रहे थे तभी रास्ते में जम्मू से खबर मिली कि आतंकवादियों ने 12 हिंदुओं का कत्ल कर दिया है..फिर भी वे अविचलित से रहे। लाहौर से लौटे ही कि पाकिस्तान की सेना ने वहां की सरकार को अँधेरे में रखकर कारगिल पर चढाई कर दी। मात खाने के बाद गुस्साए नवाज शरीफ ने मुशर्रफ को बर्खास्त किया तो सेना के कमांडरों ने उनका तख्ता पलटकर जेल भेज दिया। इसके बाद कंधार विमान अपहरणकांड हुआ। तीन दुर्दांत आतंकवादियों को जेल से निकाल कर उनके घर तक पहुँचाना पड़ा। इस घटना से सँभल पाते कि रिहा किए गए आतंकवादी अजहर मसूद ने संसद पर हमला करवा दिया।

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मीडिया में वाजपेयी जी का मजाक उड़ रहा था कि हमारे प्रधानमंत्री के सब्र का बाँध न जाने किस कंक्रीट का बना है कि वह सिर्फ छलकता है फूटता नहीं। तमाम विपक्षी दल तंज कस रहे थे कि वाजपेयी जी को शांति के नोबेल पुरस्कार की जल्दी पड़ी है। दृढनिश्चयी वाजपेयी बिना विचलित हुए अपने प्रयासों में लगे रहे। इतने धोखे और गद्दारियों के बाद भी मुशर्रफ को शिखरवार्ता के लिए आगरा बुलाया। भले ही यह शिखरवार्ता भी फौजी कमांडर के अहम् की बलि चढ़ गई हो। वाजपेयी उम्मीद का दिया लिए अँधेरे में रास्ता ढ़ूढते रहे। तमाम आलोचनाओं के बाद 2004 में वे इस्लामाबाद पहुंचे। मुशर्रफ के साथ हुई द्विपक्षीय वार्ता के साथ इस्लामाबाद डिक्लेरेशन जारी हुआ।

आजाद भारत में पड़ोसी के साथ शांति और सौहार्द के लिए इतना दृढसंकल्पित नेता दूसरा कोई नहीं हुआ। 1999 में बस डिप्लोमेसी के बाद हुए एक के बाद एक प्रतिघात की प्रतिक्रिया में कोई दूसरा नेता होता तो न जाने क्या कर बैठता हामिद मीर ठीक ही लिखते हैं, लेकिन 2004 में भारत-पाक के बीच क्रिकेट की मंजूरी देते हुए तब के कप्तान सौरव गांगुली से कहा पाकिस्तान जाइये खेल भी जीतिए और वहां के लोगों का दिल भी। कश्मीर के लिए वाजपेयी जी का जो फार्मूला था..इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत वही आज नरेन्द्र मोदी भी दुहरा रहे हैं।

दरअसल वाजपेयी जी इस कटु यथार्थ को जानते थे कि सबल देश का दुश्मन पड़ोसी भी ऐसा सिर दर्द होता है कि उसके फेर में देशहित की योजनाएं और फैसले भी सदा सर्वदा प्रभावित होते हैं। दुश्मनी घर फूँक तमाशा देखने जैसी एक अनंतकालीन होड़ है जिस पर विराम लगाए बिना देश के उत्थान के बारे में प्रभावी ढंग से सोचा नहीं जा सकता। इसीलिए वाजपेयी जी का चीन के साथ मजबूत रिश्तों पर हमेशा से ही जोर रहा। जनता शासन में विदेश मंत्री रहते हुए 62 के युद्ध के बाद चीन जाने वाले वे पहले राजपुरुष थे। अपने शासनकाल में ही उन्होंने ‘अछूत’ इजरायल से रिश्ता प्रगाढ करने की शुरूआत की।

वाजपेयी जी स्वप्नदर्शी राजनेता थे। पाकिस्तान की जम्हूरियत को वे हमेशा मजबूत देखना चाहते थे इसलिए कारगिल के बाद भी नवाज शरीफ के कुशलक्षेम को लेकर वे हमेशा चिंतित रहे। वाजपेयीजी को पाकिस्तान की बहुसंख्यक अवाम इसीलिए आज भी बेइंतहा प्यार करती है। उनके निधन पर वहां के लोगों की आँखें हमसे कम गीली नहीं हैं। वहां का मीडिया इमरान और मोदी के भावी रिश्तों को लेकर फिक्रमंद नहीं, बल्कि उत्साहित है। दोनों देश में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो भारत-पाक को लेकर वाजपेयी जी के सपने को पूरा होते देखना चाहते हैं।

लोकशाही जब अपने पर आती है तो बड़े बड़े सत्ताधीशों को झुका देती है। अब यह पाकिस्तान के अवाम की प्रबल भावनाओं पर निर्भर करता है कि फौज प्रायोजित अपने नए हुक्मरान इमरान खान पर भारत से रिश्तों को लेकर कितना दबाव बना पाती है। नरेन्द्र मोदी तो दुनिया और विपक्ष की परवाह किए बगैर एक बार पाकिस्तान जाकर और उसे गले लगाकर वाजपेयीजी की परंपरा को जीवंत बना च आए हैं। नाहक की घृणा और अदावत दोनों देशों के लिए तबाही और बर्बादी का ही रास्ता खोलेगी। इसलिए वाजपेयी जी के सपने दोनों देशों के दिलों में जिंदा बनाए रखना जरूरी है। महाकवि नीरज ने अपने गीतों में अटलजी की ही भावनाओं को व्यक्त किया है कि-

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