Caste Census | जाने भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास

History of caste census in India: बुधवार 30 अप्रैल को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजनैतिक मामलों की कमेटी ने यह फैसला लिया है, मोदी सरकार ने 2025 में होने वाले जनगणना में, जातिवार गणना करवाने का फैसला लिया है। इस बात की जानकारी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने दी। साथ ही उन्होंने कांग्रेस पर निशाना भी साधा है कि कांग्रेस जाति जनगणना का प्रयोग राजनीति के लिए कर रही है। भारत में जातिगत जनगणना का प्रारंभ 1881 में हुई थी और 1931 तक हुई थी, उसके बाद इसे रोक दिया गया।

History of caste census in India

भारत में जनगणना का इतिहास

जनगणना का इतिहास 1800 ईस्वी से शुरू होता है जब इंग्लैंड की सरकार ने अपने देश में जनगणना करवाई थी। लेकिन उसके द्वारा शासित देशों में जनगणना फिर भी नहीं हो पाई थी। लेकिन भारत में पहली बार जनगणना 1824 में इलाहाबाद शहर में करवाई गई थी। इसी क्रम में 1827-28 में जेम्स प्रिंसेप ने बनारस शहर की जनगणना करवाई थी। किसी भी भारतीय शहर की पहली बार पूर्ण जनगणना 1830 में ढाका शहर हेनरी वाल्टर द्वारा करवाई गई थी।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने 1861 में पहली बार भारत भर में जनगणना करवाने का फैसला लिया था। लेकिन 1857 के सैनिक विद्रोह और क्रांति के बाद यह फैसला टाल दिया। हालांकि 10 जनवरी 1865 में भारत के पश्चिमोत्तर प्रांतों में घर-घर जाकर जनगणना हुई। 1866 में मध्यप्रांत में और 1867 में बरार में इसी तरह की जनगणना हुई।

1865 में तत्कालीन भारत सरकार ने यह फैसला लिया कि 1871 में सामान्य जनसंख्या की जनगणना की जाएगी। प्रांतों में पंचवर्षीय जनगणना को इसी में समायोजित करने का फैसला किया गया था। हालांकि 1871 की जनगणना अंग्रेजों द्वारा शासित और नियंत्रित सम्पूर्ण देश में नहीं हुई थी।

1881 में हुई पहली जातिगत जनगणना

लेकिन देश की पहली व्यवस्थित जनगणना 1881 में सम्पन्न हुई। यह जनगणना कश्मीर को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में हुई थी। हालांकि फ्रांस और पुर्तगाल अधिकृत भारतीय क्षेत्रों में भारत सरकार ने कोई भी जनगणना नहीं करवाई थी, लेकिन यहाँ पर शासन कर रहीं औपनिवेशिक सरकारों ने यहाँ भारत के अन्य क्षेत्रों की तरह ही साथ-साथ ही जनगणना करवाई थी। 1881 में ही पहली बार अंग्रेज सरकार ने जातिगत जनगणना करवाने का भी फैसला किया था। इस जनगणना में जाति-धर्म, मातृभाषा, जन्मस्थान और शैक्षणिक स्थित पर भी कई संशोधन कर सवाल पूछे गए थे। देश में पहली जातिगत जनगणना 1881 में हुई और 1931 तक चलती रही। 1931 के बाद भारत सरकार ने इसे बंद कर दिया।

जातिगत जनगणना की मांग

1947 में देश के आजाद होने के बाद भी जातिगत जनगणना की मांग उठती रहती थी। नए-नए आजाद हुए देश को एकसूत्रता में बांधने में लगे हुए राष्ट्रीय नेताओं ने इसीलिए इसको नहीं करवाया। लेकिन देश में मंडल कमीशन के लागू होने के बाद, देश में जाति जनगणना की मांग तेज हो गई। 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जातिगत सर्वे की बात की थी। और 2011 में जनगणना के साथ ही जातिगत भी जुटाए गए, लेकिन उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया। 2014 में सरकार बदलने के बाद अरुण जेटली ने एसटी और एससी के तो जातिगत आँकड़े जारी किए, लेकिन ओबीसी के नहीं। इस बात पर मोदी सरकार के कई आलोचकों ने आलोचना भी की। 2025 चुनाव के मद्देनजर बिहार 2023 में जातिगत सर्वे किए गए, जिसके बाद देश भर में जातिगत जनगणना की मांग तेज हो गई।

मंडल कमीशन लागू करने का आधार 1931 की जाति जनगणना

1931 के बाद केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का डेटा बस इकट्ठा किया जाता था। लेकिन 1980 में मंडल आयोग ने 1931 के आंकड़ों के आधार पर ही ओबीसी जातियों का अनुमान 52 प्रतिशत लगाया और 1990 में ओबीसी आरक्षण भी इसी आधार पर दिया।

जातिगत जनगणना की मांग क्यों

जब मंडल कमीशन देश में लागू किया गया था, तब कहा गया ओबीसी की आबादी 52 % है, लेकिन यह आंकड़ा तो 1931 का है। इसीलिए इसे सटीक तो नहीं माना जा सकता है, देश की आबादी के साथ ओबीसी जातियों की जनसंख्या भी बढ़ी होगी। जाति जनगणना के समर्थकों के अनुसार जातिगत जनगणना से देश पिछड़े और अतिपिछड़े लोगों की सटीक जनसंख्या और उनकी शैक्षणिक, सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति का पता चल जाएगा।

जाति जनगणना का विरोध क्यों

जातिगत जनगणना का विरोध करने वाले कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। लेकिन ओबीसी आबादी की सटीक जनसंख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा होने की स्थिति में, सरकार आरक्षण की की 50 फीसदी लिमिट से भी ज्यादा आरक्षण का दायरा बढ़ा सकती है। इसका विरोध करने का वालों का यह भी कहना है- भविष्य में इससे सामाजिक और जातिगत टकराव भी बढ़ सकते हैं।

जातिगत आरक्षण की आलोचना

लेकिन कई आलोचक जातिगत जनगणना को भारत में जाति के और पुख्ता होने के तौर पर देखते हैं। सुप्रसिद्ध अमेरिकन इतिहासकार निकोलस डिर्क्स ने अंग्रेज सरकार द्वारा की जाने वाली जातिगत जनगणना के बारे में अपनी किताब “कास्ट्स ऑफ माइंड” में लिखा है- ” भारत में औपनिवेशिक सरकार ने अपने जातिगत जनगणना के माध्यम से भारत की लचीली और संदर्भ आधारित सामाजिक पहचान को और पुख्ता कर दिया”, यानि ब्रिटीशर्स के आने से पहले सिथिल जातिव्यवस्था पुख्ता और कठोर हो गई।

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