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करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान

न्याज़िया

मंथन। अगर दिल में किसी काम को करने की लगन है फिर भी हम असफल हो जाते हैं तो हम हताश हो जाते हैं लगता है ये काम हमसे नहीं हो पाएगा और हम कोशिश करना भी छोड़ देते हैं तो क्या सही करते हैं ? आपको नहीं लगता कि लगन , चाहत के अलावा रियाज़ या प्रेक्टिस भी मांगती है क्योंकि यही एक तरीका है कठिन से कठिन काम को करने का फिर वृन्द जी का वो दोहा तो आपने सुना ही होगा…

“करत-करत अभ्यास के जडमति होत सुजान । रसरी आवत-जात ते सिल पर परत निशान ॥ ”
यानी कुंए रूपी जगत पर लगे पत्थर पर बार बार रस्सी के आने-जाने की रगड़ से निशान बन जाते हैं, उसी प्रकार लगातार अभ्यास से अल्पबुद्धि/जड़मति भी बुद्धिमान/सुजान बन जाते हैं।

कोई भी काम असंभव नहीं

कहने का आशय ये है कि कोई भी काम असंभव नहीं रह जाता अगर हम उसे अभ्यास के साथ करते हैं। निराशा तो हो जाती है, जब हम कई प्रयासों के बाद भी सफल नहीं होते ,लेकिन इस असफलता में ही सफलता के सबक़ होते हैं जिसे बस ढूंढने और उनसे सीख लेने की ज़रूरत होती है ताकि हम फिर वही भूल न दोहराएं। हम ग़लतियों से बचने के लिए हमारी ही राह पे चलने वाले वाले लोगों के अनुभव भी सुन सकते हैं जिन्हें इस अभ्यास के मार्ग पर चलते हुए अनुकूल सफलता मिल जाती है ,इनसे मिलके हमारा ज्ञान भी बढ़ेगा ,हम अपनी राह में आने वाली बहोत सारी बधाओं से पहले से परिचित हो जाएंगे, और उस समस्या से निपटना भी हमें आ जाएगा,हमारा समय बचेगा, उनकी वजह से जिन्होंने बहुत मुश्किलों से इस समस्या का समाधान निकाला था।

तो ऐसे सफलता चूमती है कदम

कभी-कभी हम जिस सफलता की प्रतीक्षा में होते हैं वो हमें जल्दी नहीं मिलती क्योंकि उसके लिए कुछ विशेष तैयारी की आवश्यकता होती है जिसमें हम कहीं चूक जाते हैं या हमारा ध्यान ही उस तरफ नहीं जाता ,इसका मतलब है कि हमारा अभ्यास नीतियों नियमों के हिसाब से पूरी तरह नहीं हो रहा है और फिर हम कहते हैं कि हमने तो ख़ूब रेयाज़ किया था इसलिए जिस भी काम में हम सही तरीके से लगन और ईमानदारी के साथ रेयाज़ करते हैं, सभी कायदों को फॉलो करते हैं तो कामयाब ज़रूर होते हैं, इसलिए हार तो कभी मानना ही नहीं चाहिए, नहीं ! सोचिएगा ज़रूर इस बारे में भी फिर मिलेंगे आत्म मंथन की अगली कड़ी में धन्यवाद।

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