नैकहाई युद्ध : भारत के इतिहास में ऐसी बहुत सी महिलाएँ रहीं हैं, जिनके वीरतापूर्ण कार्य ने इतिहास में उन्हें अमर कर दिया, रानी दुर्गावती और रानी लक्ष्मीबाई ऐसी ही वीरांगनाएँ थीं, जिन्हें इतिहास में आज भी श्रद्धापूर्वक याद किया जाता है, लेकिन कुछ महिलाएँ ऐसी भी रहीं, जिन्हें इतिहास में वह जगह नहीं मिल पाई, जो उन्हें मिलनी चाहिए थी, ऐसी ही एक वीरांगन थीं, रीवा रियासत की महारानी कुंदन कुंवरि, जिनके जोशपूर्ण मार्गदर्शन ने सैनिकों में ऐसा उत्साहवर्धन किया, लगभग निराश हो चुकी रीवा राज्य की सेना ने शत्रुओं से “नैकिहाई” के मैदान में वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए, मराठा सेनानायक यशवंत राव की दस हजारी सेना को जबरजस्त शिकस्त दी। कौन थीं महारानी कुंदन कुंवरि और नैकहाई के युद्ध में उनके योगदान को आइए जानते हैं।
कौन थीं महारानी कुंदन कुंवरि
महारानी कुंदन कुंवरि रीवा से सात किलोमीटर दूर स्थित सिलपरा के चंदेल ठाकुर विक्रम सिंह की कन्या थीं, इनका विवाह रीवा के तत्कालीन शासक महाराज अजीत सिंह के साथ हुआ था, जिन्होंने 1755 से 1809 तक रीवा पर शासन किया था। कुछ विद्वानों के अनुसार महारानी कुंदन कुंवरि का जन्म 1759 ईस्वी में और मृत्यु 1802 में हुई थी, नैकहाई के युद्ध के समय उनकी उम्र अनुमानतः 37 वर्ष रही होगी। कहा जाता है महारानी कुंदन कुंवरि तलवारबाजी और घुड़सवारी इत्यादि में निपुण थीं, वह बचपन से ही अत्यंत स्वाभिमानी और साहसी प्रवृत्ति की थीं। जब राज्य के के राजा और प्रजा सभी हतोत्साहित हो रहे थे, तब महारानी ने बहुत ही धैर्यता और वीरता का परिचय देते हुए, राज्य के सैनिकों में अपने उद्घोष द्वारा इतना साहस भर दिया कि संख्या में कम होने के बाद भी वह अपने से कई गुना बड़ी फौज से भिड़ कर उन्हें पराजित कर दिया। आगे वीडियो में हम रानी कुंदन कुंवरि के वीरोचित कार्य को जानेंगे, लेकिन उससे पहले देश और रीवा की उस समय की राजनैतिक स्थितियों के बारे में जानते हैं।
देश और रीवा की तत्कालीन राजनैतिक स्थिति
भारतीय इतिहास में 18 वीं शताब्दी का युग अराजकता का माना जाता है, जिसमें कोई एक ताकतवर केंद्रीय शक्ति नहीं है, लेकिन मराठों की धाक पूरे भारत में छाई हुई है, लेकिन दूसरी क्षेत्रीय शक्तियों से उनका संघर्ष लगातार जारी है, जिसके कारण अंग्रेजों और ईस्ट इंडिया कंपनी को अपना प्रभाव बढ़ाने का मौका मिल रहा था। पानीपत के तीसरे युद्ध में हार के बाद मराठा प्रतिष्ठा को बहुत धक्का लगा, लेकिन मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने मराठाशक्ति को उत्तरभारत में पुनः स्थापित कर दिया, मुग़ल बादशाह को दिल्ली में संरक्षित करके वह पूरे उत्तरभारत से चौथ वसूलने लगे, इसी चौथ वसूली अभियान के तहत सिंधिया ने 1787 में जयपुर पर आक्रमण किया, लेकिन लालसोत के मैदान में हुए युद्ध में महादजी सिंधिया को जयपुर से पराजय का सामना करना पड़ा, इस हार की वजह से महादजी सिंधिया की साख उत्तरभारत में गिरने लगी, जिसके कारण उसने पूना में पेशवादफ्तर को पत्र लिखकर मदद मांगी, चूंकि उस समय पेशवा सवाई माधवराव बालक था, तो सारी शक्ति नाना फड़नवीस के हाथ में थी, वह महादसिंधिया की बढ़ती हुई शक्ति से पहले से ही खार खाए हुए था, उसे लगा मौका अच्छा है, इसीलिए उसने महादजी सिंधिया को नियंत्रित करने के लिए, पेशवाजादा अली बहादुर को उत्तर की ओर भेजा।
अली बहादुर का बांदा का नवाब बनना और रीवा से चौथ की मांग
अब प्रश्न उठता है यह अली बहादुर कौन था? अली बहादुर शमशेर बहादुर का पुत्र था, शमशेर बहादुर पेशवा बाजीराव और मस्तानीबाई का पुत्र था, शमशेर बहादुर पानीपत के तीसरे युद्ध में खेत रहा, जिसके बाद अलीबहादुर का लालन-पालन पेशवा के यहाँ ही हुआ। उत्तरभारत में आने के बाद, पहले तो अली-बहादुर सिंधिया के साथ ही रहा, लेकिन बाद में दोनों के मध्य मतभेद पैदा हो गए, जिसके बाद 1791-92 में उसे बुंदेलखंड की जागीर दे दी गई, यह वही हिस्सा था जो उसके दादा बाजीराव को महाराज छत्रसाल से प्राप्त हुआ था, अलीबहादुर ने बांदा को अपनी राजधानी बनाई, और आस-पास के राज्यों से चौथ वसूलने लगा। अलीबहादुर ने रीवा राज्य से भी चौथ की मांग की, लेकिन रीवा के राजा अजीत सिंह के इंकार के बाद 1796 में उसने अपने यशवंत राव निंबलकर नाम के एक सेनानायक के नेतृत्व में दस हजारी फौज रीवा पर आक्रमण के लिए भेज दी। इतिहासकारों की माने तो चौथ तो एकमात्र बहाना था, आक्रमण के कई कारण थे, जिनमें रीवा के राजा द्वारा पन्ना के राजा धौकल सिंह और कई विद्रोहियों को शरण देना था। यशवंत राव अपनी दस हजारी सेना के साथ रीवा की तरफ बढ़ा और आकर रीवा नगर से 7 किलोमीटर चोरहटा पर अपना कैम्प लगाया। उसने रीवा के राजा अजीत सिंह से 12 लाख रुपये की चौथ मांगी, चौथ ना देने पर रीवा को नेस्ता नाबूद करने की धमकी दी।
महारानी कुंदन कुंवरि का उत्साहपूर्ण मार्गदर्शन
शत्रु आकर एकदम घर के बाहर बैठ गया था, रीवा में हड़कंप मच गया और लोग भयभीत होने लगे, अब चूंकि उस समय रीवा राज्य की सैनिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थित सही नहीं थी। राज्य के ज्यादातर बड़े जागीरदार भी अनियंत्रित थे और ऊपर से मराठों के आकस्मिक आक्रमण की वजह से यहाँ के राजा भी चिंतित हो गए, महाराज ने सलाह-मशविरा के लिए दरबार बुलाया, राज्य की खराब स्थित को देखते हुए सभी सरदारों ने भी संधि प्रस्ताव की बात का ही समर्थन किया, लेकिन महाराज की एक पत्नी महारानी कुंदन कुंवरि को राजा और सरदारों का यह निर्णय अनुचित लगा, इसीलिए उन्होंने सभी सरदारों को अपने ड्योढ़ी पर बुलवाया और राज्य रक्षा के लिए प्रेरित करने लगीं, अपने दासियों के हाथों दो थालों में से एक में सिंदूर-चूड़ी और शृंगार की चीजें और दूसरे में पान का बीड़ा भेजा, उन्होंने सरदारों से शौर्यपूर्ण बातें की, उन्हें क्षत्रियोचित व्यवहार करने की सलाह देकर युद्ध के लिए प्रेरित किया, उन्होंने सरदारों को ललकारते हुए कहा- अगर साहस है तो पान का बीड़ा उठाकर युद्ध के लिए तैयार हो जाइए या चूड़ी-सिंदूर इत्यादि शृंगार करके घर में बैठो, अपनी राज्य में आई विपत्ति से राज्य रक्षा के लिए वह स्वयं युद्ध मैदान में लड़ने जाएंगी।
कहते हैं महारानी की एक मुँहलगी दासी थी चुनिया, उसे एक दिन उदास देखकर रानी ने कारण पूछा, चुनिया ने कहा मैं उदास इसलिए हूँ कि पहले आपकी चाकरी करती थी, लेकिन नायक के आक्रमण के बाद पता नहीं मुझे किसकी-किसकी करनी पड़ेगी। अपनी दासी से ही महारानी को दरबार का हाल भी मालूम चला, जहाँ संधि की बातें हो रहीं थी, दासी की उदासीपूर्ण बातें सुनकर और पराजय की विभीषिका को सोचकर ही महारानी सिहर गईं और उन्होंने सरदारों को प्रेरित करने का फैसला किया।
रीवा राज्य की सेना का शौर्य
महारानी के साहस और जोश देखकर उनकी ओजपूर्ण ललकार सुनकर राजपूत सरदार तमतमा उठे और पान का बीड़ा उठाकर युद्ध के लिए तैयार हो गए, दरसल उस समय के सामंतवादी युग में पान का बीड़ा ‘रण निमंत्रण’ का प्रतीक था। रानी की बातों की प्रेरणा से राजपूत सैनिक जिनकी संख्या लगभग 200 थी कलंदर सिंह कर्चुली और गजरूप सिंह बघेल के नेतृत्व में रीवा की सेना ने दो दल बनाए और मराठा सेना पर टूट पड़े और जबरजस्त युद्ध करते हुए सेनानायक यशवंतराव निंबलकर का गला काट कर मार डाला, अपने नायक को मारा जाना देख मराठा सेना मैदान छोड़कर भाग गई और रीवाराज्य को बड़ी जीत मिली। कहते हैं नायक को अतिआत्मविश्वास था, उसका यही अतिआत्मविश्वास उस पर भारी पड़ा। महारानी पूरे युद्ध के दौरान ना केवल सैनिकों के लिए प्रेरणादायी रहीं, वह पूरे युद्ध की स्थित पर भी लगातार नजर बनाएँ हुईं थीं, कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं बाबूपुर-चोरहटा की जागीर महारानी कुंदन कुंवरि की ही थी, वहां आज भी रानी द्वारा बनवाया गया एक मंदिर स्थित है।
जब राजा, सरदार सैनिक सभी हतोत्सहित हो गए, नगरवासी भयभीत थे, तब एक स्त्री ने साहस नहीं खोया, और लगातार वह सबको उत्साहित करते हुए, अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए प्रेरित करती रहीं, अगर उस दिन नायक जीत जाता तो रीवा का इतिहास आज कैसा होता, महारानी के शौर्यपूर्ण कार्यों की वजह से ही शायद तब रीवा अपनी अस्मिता बचाने में सफल रहा। शायद इसीलिए कहा भी गया है, ‘नारी तू नारायणी’, जो अभी भी रानी कुंदन कुंवरि के जैसे कितने ही पुरुषों के अंदर शक्ति की प्रेरणा भर कर उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित और उत्साहित कर रहीं हैं।