EPISODE 64: पद्मश्री बाबूलाल दाहिया के संग्रहालय में संग्रहीत उपकरणों एवं बर्तनों की श्रृंखला में आज हम आपके लिए लेकर आए हैं पीतल और कांसे के कुछ और बर्तन

Padma Shri Babulal Dahiya

इसके पहले हमने कोपरी, बड़ी डोलची, पीतल का खोरबा, बटुइया आदि धातु के बर्तनों की जानकारी दी थी। आज उसी क्रम में कुछ अन्य बर्तनों की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।

पीतल का गघरा

यूं तो मिट्टी के बर्तन पुरातात्विक उत्खनन में 4 हजार वर्ष पहले तक के मिलते हैं। फिर भी अनेक अच्छाइयों के बाबजूद वे थोड़ा सा धक्का लगने पर ही फूट जाते थे। शायद इसीलिए जब तक बाल्टी नही आई थी तब तक मिट्टी के घड़ों के बिकल्प के रूप में धातु शल्पियों ने पीतल के गघरे बना लिए थे जिनमें दूर -दूर से भर कर पानी लाया जा सकता था। यह पीतल के गघरे 100 भाग ताँबा में 40 भाग जस्ता मिलाने से बनते थे और लम्बे समय तक उपयोगी भी रहे। किन्तु बाद में स्टील, टीन, और प्लास्टिक की बाल्टियां आजाने से यह कीमती धातु उसी प्रकार चलन से बाहर हो गई जैसे चालीस के दशक में अंग्रेजों द्वारा 1 रुपये का नया नकली चांदी का सिक्का चला देने पर असली चांदी के सिक्के चलन से बाहर हो गए थे। अब इन गघरों का उपयोग भले ही समाप्त हो गया है पर यदा कदा अब भी पुरावशेष के रूप में घरों में पाए जाते हैं।

पीतल की दौरी

यह बनावट में बाँस की दौरी की तरह दौरी ही है और काम भी चावल को रांधने के पहले इसमें रख कर धोने का ही होता है। मगर यह बांस की नही पीतल की दौरी है। प्राचीन समय में बांस की दौरी न जाने किस शताब्दी में ईजाद हुई होगी जो अब तक विवाह आदि संस्कारों में शामिल है। पर बांस की वह दौरी अक्सर एकाध वर्ष में धोमन धोते -धोते टूट जाती थी। यदि कच्चा बांस की बुनी गई हो तब तो वह घुन भी जाती थी। शायद इसीलिए धातु शिल्पी ताम्रकारों ने उसका एक ऐसा बिकल्प तैयार कर दिया जो दशों वर्ष चलती रहे और टस से मस न हो। यदि काम करते — करते टूट फूट भी जाय तब भी आधे मूल्य पर उसे बेंच कर उसी तरह की दौरी खरीदी जा सके। पर उन्हें क्या मालूम कि स्टील के बर्तन की फैक्ट्रियाँ आकर उनके इस पीतल के उत्पाद को भी निगल जाँयगी और हूं बहू उसी तरह यूज ऐंड थ्रो दौरी बाजार में उतार इसे पुरावशेष की वस्तु बना देंगी ?

पीतल की गुंड

प्राचीन समय में जब पानी कुओं से खींच कर लाया जाता था तो यह पीतल की गुंड घर के अन्दर नहाने धोने आदि के लिए पानी संग्रह का एक बर्तन था। इसमें दो घड़े के बराबर पानी भरकर रखा जा सकता था। परन्तु अब यह पूर्णतः चलन से बाहर है। इसमें इधर उधर रखने हेतु पकड़ने के लिए कड़ा भी लगा रहता था।

कांसे का गगरा


जिस प्रकार पानी भर कर लाने के लिए पीतल के गगरे का उपयोग था हू बहू उसी तरह का एक गगरा धातु शिल्पी कांसे का भी बनाते थे। अगर पीतल वाला 100 और 40 के अनुपात वाले तांबा और जत्सा के मिलाने से बनता था तो यह 100 और 60 के अनुपात से बनाया जाता था। पर अब चलन से बाहर है।

आज के लिए बस इतना ही कल फिर मिलेंगे इस श्रृंखला में नई जानकारी के साथ।

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