पोस्ट पान्डेमिक बॉलीवुड की एक बदलती हुई शकल उभर कर आयी ह। इस नए फिनामिना को ‘पेड फैंस’ के नाम से भी जाना जाता ह। पान्डेमिक के दौरान हुए नुक्सान की भरपाई और बैक टू बैक फ्लॉप फिल्मों के चलते मार्केटिंग एजेंसीज और फिल्म प्रचार टीमों ने ये नयी तरकीब निकाली है जहाँ फ़र्ज़ी प्रशंसक बड़ी आसानी से खरीदें जा सकते है। २०२० बॉलीवुड के लिए एक मुश्किल साल साबित हुआ- सुशांत सिंह राजपूत के आकस्मिक निधन, राजनितिक असमंजस और दक्षिण भारतीय सिनेमा की तरफ ऑडियंस के बढ़ते हुए रुझाव के चलते बॉलीवुड को कई कठिनाईओं का सामना करना पड़ा ।
२०२३ फ़िल्मी जगत में कुछ रिकॉर्ड ब्रेकिंग फिल्मों के साथ बॉक्स ऑफिस में जान लाया। पारम्परिक साधनो के बदलते तकनिकी साधनों का सहारे लेते हुए अभिनेताओं का प्रचार सोशल मीडिया पे बढ़ चढ़ के होना शुरू हो गया। पर सोशल मीडिया पर फैंस खरीदे जाने क साधन ने वास्तविकता और विश्वसनीयता के बीच की बारीक लकीर को कुछ धुंधला सा दिया है। देखा जाए तो आज की तारीख में कोई भी सोशल मीडिया पर वेरिफिक्शन खरीद सकता है। दिग्गज पत्रकार भारती दुबे के अनुसार जीवंत प्रशंसकों और इंस्टाग्राम पर निर्मित भीड़ के बीच ज़मीन आसमान का अंतर है। ये असल में प्रशंसकों का मेला नहीं बस खरीदे हुए समर्थन का भ्रम है ।
अब इस पूरे ताम झाम के कुछ आर्थिक पहलु भी हैं जैसे फैन इवेंट्स की लागत, क्राउड सोर्सिंग में खर्च किया गया पैसा, सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स की फीस इत्यादि। कुल मिलाकर ये एक भारी निवेश है। जहाँ बॉलीवुड इवेंट्स पहले पत्रकार-केंद्रित हुआ करते थे, अब वहां फैंस और मीडिया को चुन कर और खरीद कर लाया जा रहा है जिनकी बातें और सवाल स्क्रिप्टेड हैं और समन्वित तालियों के बीच ये बड़े ही नाटकीय ढंग से पेश आतें है। अब वायरल मोमेंट्स चुन कर, लिख कर और प्रैक्टिस कर के इवेंट रखें जातें है। पर मूल प्रश्न ये है की इस सब के बीच असली दर्शक है कहाँ?
डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की तरफ बढ़ते रुझान की वजह से भी ‘वायरल’ चीज़ों की तरफ आकर्षण और भी बढ़ गया है। पर ये डिजिटल छवि मशहूर हो कर भी वास्तविक बॉक्स ऑफिस सफलता में परिणित होती हुई नहीं दिखती। बल्कि सोशल मीडिया थिएट्रिक्स और खरीदे हुए प्रशंसकों पर बॉलीवुड की निर्भरता इस बात की तरफ इशारा करती है की इस इंडस्ट्री की विश्वसनीयता और विशेषता संकट में है।
इस सब से मह्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है- क्या आज की तारिख में अभिनेता एजेंसियों के सहयोग के बिना कुछ नहीं है ? क्या इस डिजिटल मुखौटे के पीछे असल कलाकार बैठे भी है या नहीं? इन् निर्मित किरदारों और कथाओं की विश्वसनीयता कई पेचीदा सवाल खड़े करती है। ऐसे देश में जहाँ फ़िल्मी सितारों को भगवान का दर्जा दिया जाता है, उनकी आराधना की जाती है, फिल्मों से जीवन का सार लिया जाता है- निर्मित स्टारडम और असली फैन निष्ठा के बीच का ये दोहराव संवेदनशील है। एक स्टार के स्तर का अंतिम मापदंड अगर उनके काम के प्रभाव पर नहीं और सिर्फ इंस्टाग्राम लाइक्स, फेसबुक शेयर्स पर निर्भर करता है तो ये स्तिथि केवल निंदनीय है।