लाल बहादुर शास्त्री का जीवन

biography of Lal Bahadur Shastri in hindi: आज हमारे देश के पूर्वप्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि है, 11 जनवरी 1966 को तब के सोवियत यूनियन के ताशकंद में उनकी, संदेहास्पद स्तिथि में तब मृत्यु हो गई थी। जब वह सोवियत यूनियन के प्रीमियर एलेक्सी कोसिगिन के बुलावे पर ताशकंद गए थे, जहाँ पकिस्तान के मार्शल जनरल अयूब खान के साथ संधि होनी थी। भारत और पाकिस्तान के मध्य 1965 में एक युद्ध हुआ था, भारत निःसंदेह इस युद्ध का विजेता था, लेकिन वैश्विक कूटनीति और दबाव की वजह से शास्त्री जी को संधि और समझौते का फैसला करना पड़ा था।

लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को यूनाइटेड प्रोविंस के मुगलसराय में शरद प्रसाद श्रीवास्तव और रामदुलारी देवी के घर हुआ था। उन्होंने हरीश चंद्र हाई स्कूल और ईस्ट सेंट्रल रेलवे इंटर कॉलेज और हरीश चंद्र हाई स्कूल में पढ़ाई की, आगे गाँधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्होंने अपनी पढाई बीच छोड़ दी थी।1928 में उनका विवाह ललिता देवी शास्त्री से हुआ था। वे 1920 के दशक में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने लगे थे। उन्होंने मुजफ्फरपुर में हरिजनों की बेहतरी के लिए काम किया और अपनी जाति से जुड़े उपनाम ‘श्रीवास्तव’ को भी लगाना छोड़ दिया। शास्त्री जी महात्मा गांधी से गहराई से प्रभावित थे और इसी वजह से वे कांग्रेस से जुड़े उन्होंने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित सर्वेंट्स ऑफ द पीपल सोसाइटी के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में प्रमुख पदों पर रहे। 1947 में स्वतंत्रता के बाद, वे भारत सरकार में शामिल हो गए और प्रधानमंत्री नेहरू की कैबिनेट में कई बार शामिल हुए, पहले-पहल वह रेल मंत्री (1951-56) के रूप में, और फिर गृह मंत्री सहित कई अन्य प्रमुख पदों पर रहे। केंद्रीय कैबिनेट से पहले वह गोविंद वल्लभ पंत के नेतृत्व वाली उत्तरप्रदेश राज्य कैबिनेट में भी रहे।

27 मई 1964 में प्रधानमंत्री नेहरू के निधन के बाद शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने, देश विकट आंतरिक और बाह्य समस्याओं से जूझ रहा था। प्रधानमंत्री शास्त्री के पास बड़ी चुनौतियाँ थीं। विश्व राजनैतिक समुदाय में भी नेहरू का आभामंडल कुछ यूँ था, कि विश्वसमुदाय उससे निकलना भी नहीं चाहता था, ऊपर से शास्त्री जी का 5 फुट 2 इंच का कद, जिसके वजह से उनका कई बार उनका मखौल भी उड़ाया जाता था।

पाकिस्तान में मार्शल लगाने वाले राष्ट्रपति अयूब खान पंडित नेहरू के निधन के बाद भारत आना चाहते थे, लेकिन उन्होंने यह कहके अपनी यात्रा रद्द कर दी थी, अब नेहरू तो हैं नहीं वह बात किससे करेंगे, शास्त्री जी ने कहा था आप मत आइये हम आ जाएंगे, बाद में मिस्र की राजधानी काहिरा में हुए गुटनिरपेक्ष सम्मलेन से लौटते हुए, कुछ घंटे के लिए पाकिस्तान की तब की राजधानी कराची में रुके, वापसी में लौटते वक़्त वह प्रधानमंत्री शास्त्री को एयरपोर्ट तक छोड़ने आए, तब भी उन्होंने अपने साथियों से इशारे से कहा था कि हम बात किससे करें, इस घटना का जिक्र तब के पाकिस्तान में उच्चायुक्त रहे शंकरशरण वाजपेई ने किया था। मतलब था अयूब खान शास्त्री जी को अपने लेवल का स्टैट्समेन नहीं मानते थे।
लेकिन 1965 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध में इन्हीं शास्त्री जी ने अयूब खान के नेतृत्व वाले पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी, युद्धविराम के चार दिन बाद ही रामलीला मैदान से एक सभा में बोलते हुए, शास्त्री जी ने कहा ‘सदर अयूब ने कहा था वह दिल्ली तक चहल कदमी करते हुए पहुंच जाएंगे, वह बहुत लहीम शहीम हैं, मैंने सोचा उन्हें दिल्ली तक आने का कष्ट क्यों दिया जाए हम ही लाहौर की तरफ बढ़कर उनका इस्तकबाल करते हैं।’

कश्मीर के अलावा भी, भारत और पाकिस्तान के मध्य सीमा विवाद थे, पाकिस्तान का दावा कच्छ के विशाल रन के ऊपर भी था, हालांकि भारत ने इस दावे को कभी नहीं माना। 1954 में पाकिस्तान और अमेरिका के मध्य बड़ा रक्षा सौदा हुआ, जिसके कारण पाकिस्तान को लगभग 700 मिलियन अमेरिकी डॉलर की सैन्य सहायता अमेरिका से प्राप्त हुई, जिसके कारण पाकिस्तान ने अपने सैन्य उपकरणों को आधुनिक बनाया। संख्या में तिगुना ज्यादा होने के बाद भी, भारतीय सेना उस समय पाकिस्तान की तरह तकनीकी रूप से बेहतर नहीं थी, हालांकि भारत भी चीन से युद्ध के बाद सेना को आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था। चीन से हार और पंडित नेहरू की मृत्यु के बाद पाकिस्तान को एक मौका मिला, जनवरी 1965 में उसके सशस्त्र सीमा दल ने भारतीय क्षेत्रों पर गश्त करना शुरू कर दिया, भारतीय सीमा बल ने जवाब दिया और झड़पें शुरू हो गईं थी। पाकिस्तान ने कच्छ के रण में ऑपरेशन डेजर्ट हॉक लांच कर दिया और भारत के नियंत्रण वाले कच्छ के कुछ हिस्से पर कब्ज़ा भी कर लिया। हालांकि बाद में एक ट्रिब्यूनल के माध्यम से दोनों के बीच यह विवाद सुलझाया गया। लेकिन पाकिस्तान इस तरह भारत का ध्यान भटकाना चाहता था, उसका प्रमुख लक्ष्य तो कश्मीर ही था।

शास्त्री जी को अयूब खान पहले ही कमतर मान कर चल रहे थे, इस अभियान की वजह से जनरल अयूब खान अतिआत्मविश्वास से भर गए, यह अभियान भारत का आंकलन करने के लिए ही लांच किया गया था, ऊपर से उन्हें लग रहा था चीन से युद्ध के बाद भारतीय सेना कश्मीर में आत्मविश्वास से युद्ध भी नहीं कर पाएगी, उन्हें यह भी लग रहा था कश्मीर की जनता भी शायद भारतीय प्रशासन से खुश ना हो और पाकिस्तानी सेना से सहानभूति रखे। इन्हीं सब वजहों से पाकिस्तान ने ने भारत के विरुद्ध ऑपरेशन जिब्राल्टर लांच किया और भारत पर आक्रमण कर दिया। लेकिन अयूब खान का भारतीय सेना और शास्त्री जी के लीडरशिप को लेकर आंकलन गलत था, पाकिस्तान को भारत के हाथों करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। शास्त्री जी के नेतृत्व की वजह से ही यह सम्भव हो पाया था। उस समय देश में खाद्यान की भारी कमी थी, अनाज विदेशों से आयातित किया जाता था। अमेरिका समेत विश्व समुदाय ने इस युद्ध के कारण भारत के गेहूं निर्यात पर रोक लगा दी। भारत अनाज की समस्या से पहले ही जूझ रहा था, भारतीय सेना पूरे जोश खरोश से युद्ध मैदान में डटी थी और आगे बढ़ रही थी। उनके लिए जरुरी था अनाज का भण्डारण हो, सेना में आत्मविश्वास भरने के लिए शास्त्री जी ने एक बार भोजन करने का आह्वान किया और देशवासियों से भी ऐसा करने का अनुरोध किया। इसका असर हुआ, लाखों लोगों एक बार का खाना छोड़ दिया। देश की इसी परिस्थिती के लिए शास्त्री जी ने ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा भी दिया। देश के इस विपत्तिकाल में शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री निवास के बाग़ में गुलाब की जगह गेहूं बोया।

पाकिस्तान की पराजय के बाद, अमेरिका समेत विश्व समुदाय के दबाव में उन्हें संधि और समझौते के लिए मानना पड़ा। सोवियत यूनियन के प्रीमियर एलेक्सी कोसिगिन के बुलावे पर वो ताशकंद गए, वहां पाकिस्तान से हुई संधि के अनुसार भारत को, उन क्षेत्रों को लौटाना पड़ा जो उन्होंने युद्ध के दौरान जीते थे। 11 जनवरी को इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए, होटल पहुँचने के बाद अपनी पत्नी से बात करने के लिए उन्होंने फ़ोन लगाया, फ़ोन शास्त्री जी बेटी ने उठाया कहा अम्मा बात नहीं करना चाहती हैं, उनकी तबियत कुछ सही नहीं है। कुछ लोग कहते हैं शास्त्री जी की पत्नी हाजी पीर और ठिथवाल पाकिस्तान को दिए जाने के कारण नाराज थीं। इस संधि के बाद भारत में भी उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था। शायद यही वजहें थी कि उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और उनकी मृत्यु गई। शास्त्री जी के मीडिया सलाहकार कुलदीप नैयर भी उनके साथ ताशकंद गए थे, उन्होंने ने शास्त्री जी के परिवार को इसकी सूचना दी।

उनकी मृत्यु पर कई लोग विभिन्न दावा करते रहे हैं, कई थ्योरियां बताई जाती हैं, यहाँ तक दावा किया जाता है शास्त्री जी को जहर दिया गया था, इसी आधार पर ताशकंद फाइल नाम की फिल्म भी बनी थी। शास्त्री जी ने देश को एक आत्मविश्वास दिया था, उनकी सादगी प्रसिद्ध थी। जो अयूब खान एक समय उनसे बात करना भी महत्वपूर्ण नहीं मानते थे, वे सबसे पहले होटल पहुंचे, और कहा जो व्यक्ति यहाँ लेता हुआ है वही भारत पाकिस्तान को एक साथ ला सकता था। होटल से एयरपोर्ट के बीच रास्ते में भारत, पाकिस्तान और सोवियत यूनियन के ध्वज शास्त्री जी सम्मान में झुके हुए थे। एयरपोर्ट में उनके ताबूत को कंधा देने वालों में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान के अलावा सोवियत यूनियन के प्रीमियर भी थे। इस युद्ध के बाद अयूब खान ने ही नहीं, पूरे विश्वसमुदाय ने उनका लोहा माना।

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