Bhagwan Birsa Munda Jayanti 15 November | लेख: जयराम शुक्ल | बिरसा मुंडा १९वीं सदी के एक प्रमुख वनवासी जननायक थे। उनके नेतृत्व में १९वीं सदी के आखिरी वर्षों में महान आन्दोलन उलगुलान को अंजाम दिया। बिरसा को मुंडा समाज के लोग भगवान के रूप में पूजते हैं।
सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा का जन्म १५ नवम्बर १८७५ को झारखंड प्रदेश में राँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढाई के बाद वे चाईबासा इंग्लिश मिडिल स्कूल में पढ़ने आये। इनका मन हमेशा अपने समाज की ब्रिटिश शासकों द्वारा की गयी बुरी दशा पर सोचता रहता था। उन्होंने मुंडा लोगों को अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिये अपना नेतृत्व प्रदान किया। कॉलेज स्कुली वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ वनवासियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे।
उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे. लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बल्की ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया।
फलत: १८९० में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए। १८८६ से १८९० तक बिरसा का चाईबासा मिशन के साथ रहना उनके व्यक्तित्व का निर्माण काल था। यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी. बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआर आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा.
Birsa Munda Jayanti 2024 | बिरसा मुंडा जयंती
अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी. उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे. १८९४ में मानसून के छोटानागपुर में असफल होने के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली हुई थी। बिरसा ने पूरे मनोयोग से अपने लोगों की सेवा की।
उनका मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का प्रयास अंग्रेजी हुकूमत के लिए विकराल चुनौती बना। उन्होंने नए बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता, आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। उन्होंने ‘गोरो वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया। उन्होंने कहा था- ‘महारानी राज’ जाएगा एवं ‘अबुआ राज’ आएगा।
१ अक्टूबर १८९४ को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर इन्होंने अंग्रेजों से लगान माफी के लिये आन्दोलन किया। १८९५ में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और अपने जीवन काल में ही एक महापुरुष का दर्जा पाया। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
१८९७ से १९०० के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त १८९७ में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं।
बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है. उन्होंने वनवासियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया. इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय आदिवासी संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया. ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले वनवसियों को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया।
जनवरी १९०० डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। ३ फरवरी १९०० को सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर उन्हें तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा के साथ अन्य ४८२ आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। उनके खिलाफ १५ आरोप दर्ज किए गए। शेष अन्य गिरफ्तार लोगों में सिर्फ ९८ के खिलाफ आरोप सिध्द हो पाया। बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गई। गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष के सश्रम कारावास की सजा दी गई।
मुकदमे की सुनवाई के शुरुआती दौर में उन्होंने जेल में भोजन करने के प्रति अनिच्छा जाहिर की। अदालत में तबियत खराब होने की वजह से जेल वापस भेज दिया गया। 1 जून को जेल अस्पताल के चिकित्सक ने सूचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया है और उनके जीवित रहने की संभावना नहीं है। ९ जून १९०० की सुबह सूचना दी गई कि बिरसा नहीं रहे, यही उनकी अंतिम सांस रही। इस तरह एक क्रातिकारी जीवन का अंत हो गया। बिरसा के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम १९०८ बना। जल, जंगल और जमीन पर पारंपरिक अधिकार की रक्षा के लिए शुरु हुए आंदोलन एक के बाद एक श्रृंखला में गतिमान रहे तथा इसकी परिणति अलग झारखंड राज्य के रूप में हुई।