Begum Akhtar famous Ghazals: दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे…, मेरे हमनफ़स मेरे हमनवां…, ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया …., बेशक आपको न केवल ये ग़ज़लें याद आ गई होंगी बल्कि उनको लरज़ती हुए सदा देती बेगम अख्तर भी याद आ गई होंगी और अगर नहीं तो , उनकी एक ठुमरी तो आपने ज़रूर सुनी होगी जी हां हमरी ,अटरिया पे आओ सवारियां देखा देखी तनिक हुई जाए ….,जिसे फिल्म डेढ़ इश्किया में रेखा भारद्वाज ने थोड़ा रीमिक्स करके दोबारा गाया और मल्लिका ए ग़ज़ल कही जाने वाली बेगम अख्तर की याद ताज़ा कर दी । यूं तो उनके शागिर्द शांति हीरानंद ने (2005) में उनकी जीवनी बेगम अख्तर: द स्टोरी ऑफ माई अम्मी लिखी है और कला समीक्षक एस. कालिदास ने उन पर अख्तरी नाम का वृत्तचित्र भी बनाया है जिसे आप देख सकते हैं , पर उससे पहले आइए हम उन्हें थोड़ा क़रीब से जान लेते हैं बेगम अख्तर 7 अक्टूबर 1914 को वकील असगर हुसैन और मुश्तरी बेगम के घर पैदा हुईं उन्हें बचपन से ही संगीत से कुछ ऐसा लगाव था कि जहाँ गाना होता, वो छुप छुप कर सुनती और नकल करती, घर वालों ने पहले तो उन्हें रोकना चाहा पर जल्द ही समझ गए कि उन्हें रोकना न मुमकिन है क्योंकि उनके अंदर मौसिकी का एक सैलाब था जिसे वो आवाज़ की लहरों में बदलकर खूबसूरती से बहाव में संजोती थीं ”।
वो मुश्किल से सात साल की थीं जब एक थिएटर ग्रुप की आर्टिस्ट चंद्रा बाई के संगीत से मोहित हो गईं, और अकेले ही रियाज़ करती रहती उन्हें इस तरह से गाते देखकर उनके चचा जान ने उन्हें पटना के महान सारंगी वादक उस्ताद इमदाद खान और बाद में पटियाला के अता मोहम्मद खान से संगीत सीखने के लिए भेजा वहां से अपनी तालीम पूरी करने के बाद वो अपनी माँ के साथ कलकत्ता चली गईं और लाहौर के मोहम्मद खान, अब्दुल वहीद खान जैसे शास्त्रीय दिग्गजों से संगीत सीखने लगीं और अंततः उस्ताद झंडे खान की शिष्या बन गईं।और महज़ पंद्रह वर्ष की उम्र में स्टेज परफोर्मेंस दी , उनकी गायकी में अदाकारी की बारीकियों का लबरेज़ होना उन्हें सभी फनकारों से मुख्तलिफ मकाम दिला रहा था जिसकी वजह से उन्हें फिल्मी दुनिया के लिए भी उम्दा इंतखाब समझा गया और भारत में टॉकी युग के आगमन के बाद, बेगम अख्तर ने 1930 के दशक में कुछ हिंदी फिल्मों में अभिनय किया उस दौर की अन्य अभिनेत्रियों की तरह उन्होंने भी अपनी सभी फिल्मों में अपने गीत खुद गाए। इसके बाद, बेगम अख्तर लखनऊ वापस आ गईं, जहां प्रसिद्ध निर्माता-निर्देशक महबूब खान ने उन्हें फिल्म रोटी में अभिनय करने के लिए संपर्क किया, जो 1942 में रिलीज़ हुई थी और जिसका संगीत उस्ताद अनिल बिस्वास ने दिया था । “रोटी” में उनकी कुछ ग़ज़लें भी थीं जो मेगाफोन ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड की गईं और उनका नाम कई फिल्मों में अख्तरीबाई फ़ैज़ाबादी लिखा गया, पर उस दौर की मशहूर गायिकाओं को देखकर वो डर गईं कि कहीं उनका हुस्न उनके फन को पीछे न छोड़ दे और उन्होंने तय किया कि वो पूरी शिद्दत से अपनी गायकी को ऊपर और ऊपर ले जायेंगी संगीत सागर को ही खंगालेंगी और उसके मोतियों से अपनी गायकी में चार चांद लगाएंगी ।
फिर वो बंबई छोड़कर लखनऊ लौट आईं. 1934 के नेपाल-बिहार भूकंप के पीड़ितों की सहायता के लिए आयोजित एक संगीत कार्यक्रम के दौरान प्रसिद्ध कवियत्री सरोजिनी नायडू ने उनके गायन की तारीफ की थी जिसे सुनकर वो और पुर जोशी से गाने में लग गईं फिर उस समय मेगाफोन रिकॉर्ड कंपनी के लिए अपनी पहली डिस्क बना ली बस फिर क्या था इसके बाद तो उनकी ग़ज़लों , दादरा , ठुमरी और गीतों को लेकर कई ग्रामोफोन रिकॉर्ड जारी किए गए। उस वक्त किसी औरत के लिए ये बड़ा हिम्मत वाला काम था क्योंकि सार्वजनिक तौर पर संगीत कार्यक्रम देने वाली चंद महिला गायिकाओं में से वो एक थीं, पर किसी की निजी महफ़िल या जलसे में नहीं गाती थी और धीरे धीरे अपने अलग अंदाज़ में गाते हुए वो बतौर गुलूकारा बुलंदियों पर पहुंच गईं उनके रुतबे और इज़्ज़त में इस क़दर इज़ाफ़ा हुआ कि वो “मल्लिका-ए-ग़ज़ल” यानी ग़ज़लों की रानी कही जाने लगीं।
1945 में, अख्तरी बाई ने लखनऊ के एक बैरिस्टर, इश्तियाक अहमद अब्बासी से शादी की और बेगम अख्तर के नाम से मशहूर हुईं। हालांकि,, उनके शौहर ने उनके गाना ,गाने पर पाबंदी लगा दी थी जिसकी वजह से वो क़रीब पाँच साल तक नहीं गा सकीं और मायूस होकर बीमार रहने लगीं पर जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि वो दवाओं से नहीं अपने गाने से ही ठीक होंगीं और 1949 में वो रिकॉर्डिंग स्टूडियो में लौट आईं फिर लखनऊ ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन पर तीन ग़ज़लें और एक दादरा गाया और ऐसे गाया कि आंसू छलक पड़े फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और ताज़िंदगी गाती रहीं , इस बीच 1962 में आयोजित चीन के साथ युद्ध में सहायता के लिए महिलाओं के एकमात्र संगीत कार्यक्रम में, उन्होंने प्रस्तुति दी।
समय के साथ उनकी आवाज़ परिपक्व होती गई, और उसमें समृद्धि और गहराई आती गई। उन्होंने अपनी अनूठी शैली में ग़ज़लें और अन्य हल्के शास्त्रीय गीत गाए। उनके नाम लगभग चार सौ गाने हैं वो ऑल इंडिया रेडियो पर नियमित रूप से प्रस्तुति देती थीं और आमतौर पर अपनी ग़ज़लें खुद ही लिखती थीं और उनकी अधिकांश रचनाएँ राग आधारित होती थीं, उन्होंने कालातीत बंगाली शास्त्रीय गीत “जोचोना कोरेचे आरी” भी गाया।1974 में तिरुवनंतपुरम के पास बलरामपुरम में अपने आखिरी संगीत कार्यक्रम के दौरान , उन्होंने अपनी आवाज़ की पिच एकदम से बढ़ा दी क्योंकि उन्हें लगा कि उनका गायन उतना अच्छा नहीं था जितना वे चाहती थीं और उन्हें अस्वस्थता महसूस हुई,शायद उन्होंने खुद को जिस तनाव में डाला, उसके परिणामस्वरूप वे बीमार पड़ गईं और उन्हें अस्पताल ले जाया गया।
30 अक्टूबर 1974 को उनकी मित्र नीलम गामड़िया की बाहों में उन्होंने दम तोड़ा, जिन्होंने उन्हें अहमदाबाद आमंत्रित किया था, उनकी कब्र लखनऊ के ठाकुरगंज इलाके में उनके घर ‘पसंद बाग’ के भीतर एक आम के बाग़ में है, उन्हें उनकी माँ मुश्तरी साहिबा के साथ दफनाया गया था। हालाँकि, पिछले कुछ सालों में, बगीचे का ज़्यादातर हिस्सा बढ़ते शहर की वजह से खत्म हो गया है और कब्र भी जीर्ण-शीर्ण हो गई है। लाल ईंटों के घेरे में बंद संगमरमर की कब्रों को 2012 में उनके पिएट्रा ड्यूरा स्टाइल के संगमरमर के जड़ाऊ काम के साथ बहाल किया गया था, लखनऊ के चाइना बाज़ार में 1936 में बने उनके घर को संग्रहालय में बदलने की कोशिशें भी की गई हैं।
7 अक्टूबर 2017 को, गूगल ने बेगम अख्तर के 103वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में उन्हें एक डूडल प्रोफ़ाइल समर्पित किया था ।
उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ग़ज़ल , दादरा और ठुमरी शैलियों की सबसे महान गायिकाओं में से एक माना जाता है
बेगम अख्तर को 1972 में गायन के लिए संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला, उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया और मरणोपरांत भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।