Site icon SHABD SANCHI

Chhindwara Lok Sabha Seat Analysis: अपने ही रचे व्यूह में इसलिए फंसे कमलनाथ!

चार दशकों से कांग्रेस की राजनीति को मेज पर ‘पेपरवेट’ की तरह खेलने वाले कमलनाथ स्वयं वक्त के हाथों ‘पेपरवेट’ बन जाएंगे शाय़द ही उन्हें कभी इसका अंदेशा रहा होगा। लोकसभा चुनाव की छिंदवाड़ा रणभूमि में उनका परिवार कांग्रेस के ही प्रसिद्ध नारे ‘करो या मरो’ के अंदाज में जूझ रहा है। प्रत्याशी के तौर पर नकुलनाथ निमित्त मात्र हैं. वस्तुत: यहां कमलनाथ के राजनीतिक जीवन का उत्तरार्द्ध ही दांव पर लगा है।

Lok Sabha Election 2024 Chhindwara Seat Analysis: छिन्दवाड़ा की अमरवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के कमलेश शाह कांग्रेस की सदस्यता और विधायकी दोनों से त्यागपत्र देकर भाजपा में शामिल हो गए। छिन्दवाड़ा के महापौर विक्रम अहाके और सभापति प्रमोद शर्मा उनकी नाक के नीचे से निकलकर भाजपा से जा मिले। जिस दीपक सक्सेना ने कमलनाथ की राजनीति के लिए अपनी पूरी जवानी और करियर होम कर दिया वे दोनों बेटों के साथ छिटक कर दूर खड़े हो गए। लोकसभा क्षेत्र के 5000 कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने केसरिया दुपट्टा ओढ़ लिया।

यह सब देखकर ‘जावली‘ वाले अनिल माधव दवे का भाजपा के लिए गढ़ा नारा याद आता है- ‘ये युद्ध आर-पार है, बस आखिरी प्रहार है’।

बकौल कमलनाथ रणभूमि बने छिंदवाड़ा लोकसभा क्षेत्र के लिए यह चुनावी युद्ध, क्या वाकई आर-पार है? भाजपा के मारक प्रहार को समझना है तो अमरवाड़ा चलते हैं और कमलेश शाह प्रकरण की पड़ताल करते हैं।

आदिवासी नेता कमलेश शाह ने 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की मोनिका बट्टी को 25086 मतों के भारी अंतर से पराजित किया। यहां कांग्रेस के पक्ष में 109765 वोट पड़े। 2019 के लोकसभा चुनाव में नकुलनाथ 36000 मतों से जीते थे. जीत के इन मतों में 22502 मत अमरवाड़ा क्षेत्र में मिले थे. यानी कि क्षेत्र की शेष छह विधानसभाओं में महज 14000 वोटों की लीड मिली थी। अमरवाड़ा के वहीं कमलेश शाह अब भाजपा के पाले में हैं। महापौर विक्रम अहाके, जिनके मुरीद स्वयं राहुल और प्रियंका रहे, वे अपने सभापति के साथ कब चुपके से भाजपा की ओर खिसक लिए कमलनाथ को कानों-कान खबर तक न लगी।

यह सब किस रणनीति के तहत हुआ? इसे भी समझते चलें। भाजपा यहां यह बात समझाने में सफ़ल रही कि कमलनाथ के स्वयं के परिजनों के आगे किसी की कोई बिसात ही नहीं। भले ही वह अपना सिर काटकर उन्हें तस्तरी में पेश कर दे। इस विश्वास को गहराई तक बैठाने के लिए जो चेहरा सामने प्रस्तुत हुआ वह था दीपक सक्सेना का।

दीपक सक्सेना को मध्यप्रदेश की अल्पकालिक कांग्रेस सरकार में प्रोटेम स्पीकर के तौर पर सदस्यों को शपथ दिलवाई। मुख्यमंत्री बनते ही कमलनाथ को एक रिक्त सीट की तलाश हुई, दीपक सक्सेना ने खुद को होम करके अपनी सीट ‘साहब’ के लिए दी। सक्सेना की प्रत्याशा थी कि साहब लोकसभा सीट बतौर बख्शीश देंगे। लेकिन दीपक तब ठगे रह गए जब लोकसभा चुनाव में नकुलनाथ उतार दिए गए।

यही 1996 में हुआ था जब हवाला कांड के चलते उनकी टिकट कटी थी तो उन्होंने पत्नी अल्कानाथ को छिंदवाड़ा से उतार दिया था। चुने जाने के आठ महीने बाद ही इस्तीफा दिलाकर उपचुनाव 1997 में स्वयं मैदान पर उतर गए। यह बात अलग है कि उनके तिलस्म को भाजपा के सुंदरलाल पटवा ने तोड़कर रख दिया, यानी कि कमलनाथ हार गए।

कुलमिलाकर गोंडवाना में ‘नाथ राजवंश’ का वहीं खेल छिंदवाड़ा में जो दिल्ली में ‘गांधी राजवंश’ का।

अब लौटिए फरवरी के घटनाक्रम पर। इस महीने के आखिरी सप्ताह की कमलनाथ परिवार के भाजपा में शामिल होने की खबर। खिचड़ी पक रही है उनके दिल्ली बंगले से उठा धुंआ यह बता रहा था। नकुल नाथ के सोशल एकाउंट से गायब कांग्रेस यह तस्दीक कर रही थी कि साहब का अगला ठिकाना भाजपा ही है। बंगले की चारदीवारी के बाहर उनके शिष्य सज्जन सिंह वर्मा समर्थकों को ब्रीफ कर रहे थे कि साहब के फैसले का इंतजार करिए और तैयार रहिए।

धुंए से निकले सुराग को पकड़कर आगे बढ़े तो दलबदल के विचार का इसलिए गर्भपात हो गया क्योंकि निर्णायक संख्या में विधायक नहीं जुटे, सिंधिया समर्थकों की तर्ज पर इस्तीफा देने का माद्दा था नहीं और अंततः बहुमत का मज़ा काट रही प्रदेश भाजपा सरकार को कमलनाथ की जरूरत भी नहीं थी।

रायता फैलना था, फैल गया. कमलनाथ उसी में फिसले तो फिसलते गए। कांग्रेस के आम कार्यकर्ता तक यह संदेश गया कि जब कप्तान ही पाला बदलने की सोच सकता है तो फिर वे क्यों नहीं? बस भाजपा के फ्लाईकैचर की ओर पतंगें की भांति सब खिंचते चले गए।

कमलनाथ के लिए छिंदवाड़ा वैसा ही जैसे कि कभी गांधी परिवार के लिए अमेठी। कहानी भी उसी तर्ज पर चल रही है। सन् 1977 तक लगातार छिंदवाड़ा की लोकसभा सीट से जीत रहे बुजुर्ग गार्गी शंकर मिश्र के खिलाफ संजय गांधी की युवा कांग्रेस ब्रिगेड ने शिकायत की तो इंदिरा गांधी को विकल्प में कमलनाथ जैसे छबीले और जोशीले जवान को पेश करने में जरा भी वक्त नहीं लगा।

आपातकाल की मौज और जनताकाल की सजा के संजय गांधी के साथी रहे कमलनाथ की धाक 1980 में मध्यप्रदेश में इसलिए भी जम गई क्योंकि शिवभानु सिंह सोलंकी की जगह अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में कमलनाथ की भी भूमिका रही। बस इसके बाद से वे प्रदेश की हर कांग्रेस सरकार में अपना कोटा लेते आए और अंततः मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच गए।

नौ बार सांसद रहे कमलनाथ इस बार छिन्दवाड़ा के गढ़ को बचाने में अपना सर्वस्व झोंक दिया। बहूरानी खेतों में गेहूं काटते दिख रहीं तो वे खुद मंचों में भावुक होते। नकुलनाथ के निशाने पर तो बस ‘गद्दार’ कमलेश शाह हैं जिन्हें सजा देने के लिए वे उसी तरह फरमान जारी कर रहे हैं जैसे कि गुलाम भारत में जागीरदार सामंत अपने कारिंदों को किया करते थे।

और अंत में 1979 में जब कमलनाथ ने राजनारायण को संजय गांधी से मिलवाया, दूसरे दिन मोरारजी सरकार गिरी, चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री की शपथ ली तब दिल्ली के जनपथ में ‘बाबी’ फिल्म का वह डायलॉग नौजवानों की जुबां पर था- प्रेम नाम है मेरा.. मैं वो बला हूं जो शीशे से पत्थर को तोड़ता हूं।
कमलनाथ का भी एक जमाना था जब वे शीशे से पत्थर को तोड़ा करते थे। आज वे छिंदवाड़ा के अपने ही रचे हुए व्यूह में स्वयं उलझे हुए हैं और संगी-साथी एक-एककर साथ छोड़ते जा रहे।

Exit mobile version