Shabd Sanchi Special Basant Panchami 2025 | कवि केदार नाथ अग्रवाल द्वारा लिखी गई, ‘बसंती हवा’ नाम की इन खूबसूरत पंक्तियों में, बसंत ऋतु में बहने वाली, हवाओं की विभिन्न अठखेलियों का वर्णन किया गया है।
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो धरा का बसंती
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ,
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
आइए आज हम बसंत और बासंती उत्साह को विभिन्न कवियों और लेखकों माध्यम से जानेंगे, पर आइये उससे पहले हम जानते हैं, बसंत पंचमी पर्व के बारे में-
कवि केदार नाथ अग्रवाल की इन खूबसूरत पंक्तियों में, बसंत ऋतु में बहने वाली, हवाओं की विभिन्न अठखेलियों का वर्णन किया गया है। आइए आज हम बसंत और बासंती उत्साह को विभिन्न कवियों और लेखकों माध्यम से जानेंगे, पर आइये उससे पहले हम जानते हैं, बसंत पंचमी पर्व के बारे में-
बसंत पंचमी का दिन श्री पंचमी के नाम से भी जाना जाता है, यह ज्ञान-विज्ञान कला और संगीत की देवी माँ सरस्वती को समर्पित होता है, मान्यता है इसी दिन, माँ सरस्वती का उद्भव हुआ था। इसीलिए इस दिन देवी के पूजन का भी विधान है, हिंदू पंचांग के अनुसार यह पर्व माघ शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता यह भी है, इस दिन भगवान महादेव शिव ने, रतिपति कामदेव को भस्म किया था, और रति की प्रार्थना पर कामदेव को पुनः अनंग रूप में जीवनदान दिया था। बसंत का आगमन बहुत सुखद माना जाता है, जिसके कारण समस्त प्रकृति ऊर्जा और उत्साह से भर जाती है।
जिस प्रकार मनुष्य के जीवन में एक बार ही यौवन आता है, उसी तरह वर्ष में एक बार प्रकृति में भी यौवन आता है, प्रकृति का यही यौवन ही बसंत को माना जाता है, बसंत ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। प्रकृति की अठखेलियाँ इस समय दर्शनीय होती हैं, प्रकृति की मनोहरी कांति इस समय अनुपम होती है। पेड़, पौधे, फूल इत्यादि, शीत ऋतु के कोहरे रूपी जकड़न से मुक्त होने लगते हैं, सर्दियाँ इस समय जा रहीं होती हैं, दिन बड़े होने लगते हैं, गुनगुनी धूप की छटा मनोहारी प्रतीत होती है। बागों के पेड़ों में भी पतझड़ के बाद नए पत्ते आने लगते हैं, लगता है यूं प्रकृति ने नए वस्त्र बदले हों, खेतों में फूली हुई पीली-पीली सरसों को देखकर लगती है जैसे खेतों ने धानी चूनर ओढ़ ली हो, बौराए हुए आम की मंद-मंद चलती पवन के साथ खुश्बू प्रकृति में अलसाई हुई उन्मत्तता भर देती है। दूर कहीं वनों में पलाश के फूल चटक कर और रक्तिम हो जाते हैं, भौरें उपवन में खिले हुए फूलों के साथ-साथ गुनगुनाने लगते हैं, और कोयल कुहकने लगती हैं, प्रकृति में मानो ऊर्जा का नवसंचार होने लगता है।
प्रकृति की इसी खूबसूरती का वर्णन हमारे ग्रंथों रामायण, महाभारत, पुराणों सहित और भी कई संस्कृत साहित्य ग्रंथों में हुआ है। सर्वप्रथम अथर्ववेद के पृथ्वीसूत्र में बसंत का व्यापक वर्णन किया गया है, आदिकवि वाल्मीकि की रामायण के किष्किंधा कांड में भी पंपासरोवर के तट पर बसंत का जिक्र है, अश्वघोष कृत बुद्धचरितम् में भी बसंत का जिक्र है। बसंत की बात हो और महाकवि कालिदास का जिक्र ना हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता है। ‘कुमारसंभवम्’, ‘मेघदूत’, ‘ऋतुसंहार’ और ‘रघुवंशम’ समेत उनके लगभग सभी संस्कृत रचनाओं में बसंत का जिक्र है।
‘मेघदूत’ वैसे तो ऋतुओं की रानी वर्षा ऋतु पर आधारित है, पर इसमें निरंतर चलने वाली छः ऋतुयों की अवस्थिति का वर्णन है, जिक्र है अलकापुरी की यक्ष सुंदरियाँ अपने बालों में कुरबक के फूल गूँथती थीं, कुरबक बसंत ऋतु में फूलने वाला फूल है। लेकिन बसंत का सबसे भावपरक वर्णन ‘ऋतुसंहार’ में किया गया है, जिसमें षडऋतुयों का का अलग-अलग खंडों में जिक्र है। बसंत ऋतु और उसके आगमन से बनने वाले बासंती परिवेश का वर्णन लगभग 45 श्लोकों में किया गया, महाकवि ने बसंत को ‘शृंगारदक्षागुर’ की उपमा दी है।
महाकवि कालिदास के अतिरिक्त, भारवि के किरातर्जुनीयम्, माघकवि की शिशुपालवध, श्रीहर्ष विरचित नैषध चरित, बिल्हण कृत विक्रमांकदेवचरितं, महाकवि बाणभट्ट की कादंबरी, भृतहरि के श्रृंगार शतक इत्यादि संस्कृत ग्रंथों में बसंत ऋतु के सौन्दर्य और चंचलता के बड़े खूबसूरत वर्णन मिलते हैं।
लेकिन संस्कृत ही नहीं हिंदी साहित्य के कवियों ने बसंत के अनुपम सौंदर्य और उससे होने वाली अनुभूतियों का जीवंत वर्णन किया है, अब आइए हम जानते हैं हिंदी के कुछ प्रमुख कवियों और उनकी की रचनाओं के बारे में, जिनमें बसंत ऋतु का वर्णन हुआ है।
हिंदी साहित्य के आदिकाल के प्रमुख कवि मैथिल कोकिल विद्यापति की कविताओं में भी बसंत के आगमन और उससे प्रकृति में आए यौवन का बड़ा ही सजीव चित्रण है –
मलय पवन बह, बसंत विजय कह, भ्रमर करई रोल, परिमल नहीं ओल।
ऋतुपति रंग हेला, हृदय रसभ मेला। अनंक मंगल मेलि, कामिनी करथु केली।
तरुन तरुनि संगे, रहनि खपनि रंगे । ।
भक्तिकालीन कवियों की कविताओं में भी बसंत का बार-बार जिक्र आया है। प्रेमाश्रयी कवि मलिक मोहम्मद जायसी की ‘पद्मावत काव्य’ के नागमती वियोग खंड के बारहमासा में, बसंत ऋतु के आगमन के समय रानी नागमती का प्रिय से बिछोह और उसकी विरह वेदना का वर्णन है। उसका हृदय दग्ध है, वह बाग के पेड़-पौधों, फल-पुष्प और पशु पक्षियों को भी अपनी व्यथा सुनाते हुए कह रही है-
चैत वसंता होइ धमारी। मांहि लेखे संसार उजारी॥
पंचम विरह पंच सर मारे। रकत रोइ सगरौं बन ढारै॥
बौरे आम फरै अब लागैं। अबहूँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फूली वनस्पति। मधुकर घूमहूँ संवरि मालती॥
मो कहं फूल भये सब कांटे। दिष्टि परस जस लागहि चांटे॥
फिर जोबन भए नारंग साखा। सुआ विरह अब जाइ न राखा॥
निर्गुण भक्तिधारा के कवि कबीरदास अपनी साखी में बसंत के बारे में कहते हैं –
रितु वसंत जाचक भया, हरखि दिया द्रुम पात
तोत नव पल्लव भया, दिया दूर नहिं जात।
गोस्वामी तुलसीदास जी भी रामचरित मानस के बालकांड में वसंत ऋतु में पुष्प, भ्रमर और कोयल के माध्यम से नारद के मोह प्रसंग का जिक्र करते हुए लिखते हैं –
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥
गोस्वामी जी बालकाण्ड में ही एक जगह और राजा जनक के बाग में आई बसंत ऋतु को लुभावनी बताते हुए कहते हैं –
भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥
बसंत हो और रीतिकाल का जिक्र ना, ऐसा तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि बसंत पर सबसे ज्यादा रीतिकालीन कवियों ने ही लिखा है, और जगह-जगह पर उसके मनोहरी और कांतिमय छटा का वर्णन किया है। आचार्य केशवदास ने तो बसंत की खूबसूरती पर लिखते हुए उसकी तुलना नवदम्पत्ति से की है, इसी तरह संयोग शृंगार के कवि ‘बिहारी’ भी बसंत के आम्रलतिकाओं और कोयल के कुहकने का बड़ा मनोरम वर्णन करते हैं। लेकिन रीतिकालीन कवियों में बसंत का सबसे सजीव चित्रण किया है पद्माकर ने, अपने एक छंद में वे गोपियों द्वारा बसंत आगमन पर श्रीकृष्ण को बसंत का संदेश भेजने का जिक्र करते हैं, यमुना के तट और उपवनों पर प्रकृति के बिखरे हुए सौंदर्य छटा का वर्णन करते हुए वह लिखते हैं –
कूलन में केलिन कछारन में कुंजन में,
क्यारिन में कलिन-कलीन किलकंत है।
कहै पद्माकर परागन में पौन हू में,
पानन में पिकन पलासन पगंत है॥
द्वार में दिसान में दुनी में देस-देसन में,
देखो दीप-दीपन में दीपत दिगंत है।
बीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में,
बनन में बागन में बगरो बसंत है॥
आधुनिक हिंदी साहित्य के कवियों से भी बसंत अछूता न रहा, हिंदी साहित्य के पितामह माने जाने वाले भारतेंदु के कविताओं में बसंत का कई बार जिक्र आया है, वह लिखते हैं –
सखि आयो बसंत रितून को कंत, चहूँ दिसि फूलि रही सरसों।
बर शीतल मंद सुगंध समीर सतावन हार भयो गर सों।।
अब सुंदर सांवरो नंद किसोर कहै ‘हरिचंद’ गयो घर सों।
परसों को बिताय दियो बरसों तरसों कब पाँय पिया परसों।।
साकेत महाकाव्य में मैथिलीशरण गुप्त उर्मिला की विरह वेदना का बड़ा खूबसूरत वर्णन करते हैं, जो अपने रुदन से प्रकृति को हरा-भरा बना देना चाह रही है। माखन लाल चतुर्वेदी तो ‘आ गए ऋतुराज’ कविता के माध्यम से बसंत आगमन को प्रसन्नता का सूचक कहते हैं। लेकिन आधुनिक युग के कवियों में बसंत का सबसे खूबसूरत वर्णन किया है छायावादी कवियों की कल्पनाओं ने। जयशंकर प्रसाद एक कविता में बसंत को जादूगर बताते हुए कहते हैं, बसंत तो पतझड़ में झड़ गए पेड़ों में भी, नए पत्ते उगाकर हरा-भरा कर देता है, अपनी ‘बसंत’ शीर्षक नाम की कविता में वह लिखते हैं-
तू आता है, फिर जाता है, जीवन में पुलकित प्रणय सदृश, यौवन की पहली कांति अकृश, जैसी हो वह तू पाता है, हे वसंत! तू क्यों आता है?
महादेवी वर्मा की कविताओं में एक गरिमामयी वेदना है, वह एक कविता में खुद को बसंत ऋतु जैसे कहते हुए लिखती हैं –
मेरी पगध्वनि सुन जग जागा
कण-कण ने छवि मधुरस माँगा।
नव जीवन का संगीत बहा
पुलकों से भर आया दिगंत।
मेरी स्वप्नों की निधि अनंत
मैं ऋतुओं में न्यारा वसंत।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का तो जन्मदिन ही बसंत पंचमी के दिन हुआ था, शायद इसीलिए महाप्राण निराला बसंत को जीवन का प्रारंभ मानते हुए अपनी ‘ध्वनि’ नाम की कविता में लिखते हैं –
अभी अभी ही तो आया है
मेरे जीवन में मृदुल वसंत
अभी न होगा मेरा अंत।
प्रकृति के सुकुमार चितेरे सुमित्रानंदन पंत तो पशु-पक्षियों को मनुष्य से श्रेष्ठ मानते हैं, जो बसंत के आगमन को सुगंध से जान जाते हैं, वह लिखते हैं –
काली कोकिल! सुलगा उर में स्वरमायी वेदना का अंगार,
आया वसंत घोषित दिगन्त कहती, भर पावक की पुकार।
देश प्रेम में भी बसंत है, क्योंकि बसंत ऋतु परिवर्तन का सूचक है, इसमें ऊर्जा का नवसंचार भी होता है। कवि गोपाल प्रसाद व्यास ‘नेताजी का तुलादान’ नाम की अपनी कविता में, सिंगापुर में भारतवंशियों के उत्साह की तुलना बसंत ऋतु से ही करते हैं। शायद इसीलिए सुभद्रा कुमारी चौहान, वीरों का बसंत कैसा होना चाहिए, यह अपने कविताओं के माध्यम से बताती हैं, लेकिन साथ ही ‘जलियाँवाला बाग में बसंत’ नाम के कविता में वह ऋतुराज बसंत को आगाह करते हुए कहतीं हैं-
परिमल-हीन पराग दाग़-सा बना पड़ा है।
हा! यह प्यारा बाग़ ख़ून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना।
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना॥
इसके अलावा भी डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, बाबा नागार्जुन, अज्ञेय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, रामकुमार वर्मा इत्यादि कवियों की रचनाओं में भी बसंत का जिक्र है, हालांकि उनके परिप्रेक्ष्य बदल जाते हैं- कहीं प्रेम है, तो कहीं विरह है, कहीं उत्साह है, तो कहीं वेदना है, तो कहीं जीवन दर्शन है, पर सचमुच बसंत का आगमन बहुत प्रफुल्लित करने वाला और खूबसूरत है।