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Vindhya Wedding Tradition | बघेलखंड में पहले ऐसे होती थीं शादियां

Vindhya Wedding Tradition: हिंदू संस्कृति और परंपरा में विवाह सोलह प्रमुख संस्कारों में से एक है। लेकिन आज की भव्य सजावट, जगमगाती लाइट्स, शूट-फोटोग्राफी, बारातों में विशाल गाड़ियों का काफिला और कानफोड़ू डीजे की धुनों के विपरीत- पहले विवाह बेहद सादगीपूर्ण और सामाजिक होते थे। पहले सीमित संसाधनों के साथ ही शादियाँ की जाती थीं। पहले के समय में विवाह एक सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक दायित्व माना जाता था, एक ऐसी पद्धति जिसमें सद्गुणों और संस्कारों का महत्व ज्यादा होता था।

घर-परिवार का सयाना तय करता था विवाह

यहाँ बघेलखंड में पहले घर-परिवार के सबसे वृद्ध और सयाने सदस्य के ऊपर विवाह की जिम्मेदारी होती थी, वही शादी तय-पक्की करता था, विवाह से संबंधित एक उक्खान यहाँ अत्यंत प्रचलित है- “सहियय चोरी, संग विवाह” अर्थात चोरी और विवाह अपने लोगों के बिना नहीं होता है, इसका कोई ना कोई माध्यम होता था, जिसे बघेली भाषा में बिचबाइक बोला जाता है। पहले के समय में शादी मुख्यतः गर्मियों में होती थीं, दरसल इसका मुख्यकारण होता था, कि लोग खेती-किसानी से फुरसत हो जाते थे।

शुकवा के उदय का रखा जाता था ध्यान

लगन विचार करते समय शुकवा अर्थात शुक्र के उदय का ध्यान रखा जाता था, कारण शुक्र को भोर का तारा कहा जाता था, और उसके आकाश में उदय को बहुत शुभ माना जाता था। परिवार का मुख्य मुखिया तब एक-दो लोगों और नाउ के साथ मिलकर तिलक चढ़ा देता था, तब आज की तरह तिलक विलासितापूर्ण नहीं होता था, बल्कि सादगी के साथ दिन के समय में चढ़ जाता था, या लड़के के परिजनों को सौंप दिया जाता था और बाद में पूजा इत्यादि करवा दी जाती थी।

बघेलखंड में था बसी बारात का चलन

अब चूंकि पहले आज की तरह संचार और परिवहन के साधन इतने नहीं थे, तो तय दिन बारातें बैलगाड़ी और पैदल समयानुसार निकलने लगती थीं, कुछ चुनिंदा लोगों के पास साइकिल होती थी और वह उससे भी बारात जाते थे। ज्यादा सम्पन्न लोग घोड़े भी बारात में ले जाते थे, लेकिन दूल्हे को पालकी और सत्तर के दशक तक आते-आते शहरी जुगाड़ से प्राप्त सजावटी मोटर से भी ले जाते थे। चूंकि पहले के समय में साधनों की कमी के कारण के बसी बारात होती थी, जिसमें बारात एक दिन रुककर दूसरे दिन विदा लेती थी। इसीलिए दुल्हन के गाँव तक पहुँचने के लिए दूरी के हिसाब से एक-दिन दो दिन पहले ही लोग निकलने लगते थे। बारात को रास्ते में खाने के लिए सूखी मिठाई के साथ ही, बड़ी-बड़ी पूड़िया जिन्हें सोहारी कहते हैं, उन्हें तह के तह लगाकर झपलइयां में सहेज के रख दी जाती थीं, जिससे वह दो दिन के रास्ते के लिए गरम रहें, सोहारी के साथ खाने के लिए कटहल या आम का सूखा अचार भी रख दिया जाता था।

रास्ते में पड़ाव डालती थी बारात

सुबह को चली बारात जब दोपहर होती तो ऐसी जगह पड़ाव डालती थी, जहाँ तालाब हो और आम के बगीचे हों, जिनके छाँव के नीचे बैठकर लोग सुस्ताते थे और सोहारी-अचार खा करके लोग आगे बढ़ने लगते थे, बारात के सयाने लोग सबको हाँकने लगते थे, क्योंकि रात होने से पहले गंतव्य तक पहुंचना जरूरी होता था। जैसे ही बारात गाँव तक पहुँचती थी, तो अगर बारात के साथ साजिन्दें होते थे तो नगरिया, डफुली और धुतुरुआ बजाने लगते थे, जिससे लोगों को बारात आने का पता चल जाए, जिसके बाद बिटिया के घर वाले बारात की अगवानी लेने के लिए आगे बढ़ जाते थे। लेकिन अगर ये बाजे साथ में नहीं भी होते थे, तो अनजानों की इतनी भीड़ को देखकर गाँव के कुत्ते भोंकने लगते थे, जिससे घरातियों को पहले ही पता चल जाता था, कि बारात आ गई। खैर यह तो मजाक की बात हुई। लेकिन तब स्कूल और सरकारी बिल्डिंग्स तो होते नहीं थे, इसीलिए बारातों को तब किसी आम के बगीचे में ही जनमासा दिया जाता था, बरातियों के सोने लेटने के लिए पूरे गाँव से लोग खटिया पहुंचाते थे, ओढ़ने-बिछाने के लिए दरी-जाजम और चादर इत्यादि बाराती अपने साथ स्वयं लेकर चलते थे।

शाम को होता था दुआरचार

अगर बारात उस दिन समय से पहुँच जाती थी, तो गौधुरिया बेरा अर्थात शाम को दुआरचार होता था, क्योंकि इस समय को शुभ और पवित्र माना जाता था। दरसल गोधूलि बेला में दुआरचार करने से दोनों पक्षों को आपस में मिलकर बैठने और बात करने का पर्याप्त समय मिल जाता था, आज की तरह नहीं कि लोग बात करना तो एक-दूसरे को जानते तक नहीं, लोगों को जल्दी से जल्दी खा-पीकर निकलने की जल्दबाजी रहती है। इसीलिए गोधूलि बेला में दुआरचार करवाने का मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक और धार्मिक के साथ सामाजिक भी होता था। तब सजावट भी आज की तरह चकाचौंध वाली नहीं बल्कि सादगीपूर्ण और इको फ्रेंडली भी होती थी, मुख्य द्वार को आम के पत्तों से बने तोरण से सजाया जाता था, जबकि जबकि केले के बड़े-बड़े पत्तों से भी सजावट होती थी।

दूल्हा पहनता था जामाजोरा

इधर जनमास में दूल्हे का पहले नहछू होता था, फिर उसे जामाजोरा पहनाया जाता, जिसे पहले हल्दी लगाकर पीले रंग से पहले रंगा जाता था, जामाजोरा के साथ ही दूल्हे को सरकंडों से बनी हुई झूलदार रंगीन मौर भी बांधी जाती थी। और बारात फिर दुआरचार के लिए चलती थी, बारात को रास्ता दिखाने के लिए मशालची मशाल जलाकर आगे-आगे चलने लगते थे। दुआरचार में वर और बरातियों के ऊपर चावल फेंके जाते थे, जबकि बरातियों की तरफ से बताशे फेंके जाते थे। और फिर उसके बाद बारात को खाने का आमंत्रण दिया जाता था।

जानिए पहले बारातियों को क्या पकवान खिलाए जाते थे

अब मन में एक कौतूहल होगा बरातियों का मेन्यू क्या होता था, दरसल आज की तरह तब इतनी फूड वेराइटी नहीं होती थी। चूंकि उस दिन भोजन पक्का बनता था, इसीलिए बरातियों के लिए सोहारी, चमराई और लालभाजी की साग, आम-कटहल इत्यादि के अचार ही भोजन स्वरूप दिया जाता था, जबकि मीठे में पीसी हुई शक्कर दी जाती थी, अहा! बिल्कुल अमृततुल्य भोजन। हालांकि सम्पन्न लोग कटहल का मसलहा भी बनवाया करते थे। ठाकुरों के यहाँ इस दिन बकरा का भोज होता था, जिसे आज भी मजाक में ठाकुरभोज यहाँ कहा जाता था, हालांकि यह कोई जरूरी नहीं होता था, लेकिन भोजन पक्का ही रहता था। बारात में कुछ लोग कच्चा भोजन करते थे, कुछ लोग स्वयंपाकी अर्थात खुद से बनाकर खाने वाले भी होते थे। तो कुछ बरा और महुआ के पत्तों से बने पत्तलों पर भोजन नहीं करते थे तो उनके लिए भी यथायोग्य भोजन का जुगाड़ किया जाता था। भोजन के समय लड़की पक्ष की स्त्रियों द्वारा बारातियों को मीठी और सुहावनी गारी गाई जाती थी और फिर उसके बाद बारात जनमासा लौट जाती थी। फिर चढ़ाव होता था, और उसके बाद ब्रम्हमुहूर्त में लड़के को आँगन में बियाह के लिए बुलाया जाता था।

शादी के लिए पियरी पहनती थी लड़की

लड़के की वेशभूषा तो हमने पहले बता दी थी, जबकि लड़की शादी के लिए पियरी साड़ी पहनती थी, दरसल लाठे के सफेद साड़ी पर हल्दी लगाकर उसे पीला किया जाता था, और लड़की इसी पियरी को पहनकर पूरी शादी करवाती थी। उसके बाद शादी की पारंपरिक रस्में। जिनके पीछे के कारण निःसंदेह बड़े ही पवित्र हैं। हालांकि तब आज के जैसे रस्में नहीं होती थी- हल्दी-मेहंदी तो छोड़िए, मसलन जूता छुपाई, जयमाला और कई अन्य रस्में जो फिल्म और सिनेमा के प्रभाव से हमारे संस्कृति में आज घुल-मिल गई हैं।

बघेलखंड में था बसी बारात का चलन

खैर अगला दिन बसी का होता था, और इस दिन कच्चा भोजन होता था। इसीलिए लड़की वाले बरातियों के कलेवा के लिए खिचड़ी बनाने का सामान जनमास तक पहुंचा देते थे, उस दिन बाराती स्वयं अपना भोजन पकाते थे, खिचड़ी और घी का हल्का और सुपाच्य भोजन, रात की सोहारी और महलहा इत्यादि के बाद सुबह का हल्का भोजन। फिर दोपहर के जेउनार के लिए इस दिन बरातियों को दाल-चावल, कढ़ी-बगजा टहुआ और आम का पना भी जनमास में ही भेज दिया जाता था। जबकि लड़के का पिता कुछ सयाने लोगों और अपने मानदानों के साथ, उस दिन लड़की के घर में मड़वा के नीचे कढ़ी-भात खाते थे, जिसे “भतखबाउंहीं” कहा जाता था, जिसमें लड़के के पिता को नेग भी मिलता था। नेग में लगता गाय-भैंस, बरदा, घोड़ा, खेत या फुलहा बर्तन लोग यथानुसार देते थे।

तीसरे दिन होती थी विदाई

शाम के समय दोनों पक्ष जनमास में साथ बैठते थे, जहाँ शिष्टाचार होता था, जब दोनों पक्ष आपस में मिल बैठते थे, जहाँ हंसी-मजाक, चुहलबाजी और दुनिया भर की बातें होती थीं, शिष्टाचार में घराती फुलहा पेंदेदार कटोरे में हल्दीवाले चावल के साथ, उपहार स्वरूप बर्तन-पैसे इत्यादि जो अपनी लड़की को देते थे, उसे लड़के पक्ष के लोगों को सौंपा जाता था। तो बाराती वधू पक्ष के पौनी-परजा को नेग देते थे। अब बारी बारातियों की होती थी, जिसमें वह लड़की वालों को पान-सुपाड़ी इत्यादि देते थे, संभव होता तो पानी-शर्बत इत्यादि भी दिया जाता था। और फिर अगले दिन सुबह बिदाई होती थी, हालांकि ब्राम्हण समेत कई जातियों में तब अंजुरी नहीं होती थी, इसीलिए लड़की बिदाई शादी के समय नहीं होती थी। बल्कि शादी के तीन, पाँच या सात वर्ष बाद होती थी।

लोगों का रहता था सक्रिय सहयोग

दरसल उस समय विवाह का मूल आधार-सादगी और सामूहिकता थी, गाँव भर के लोग मिलकर विवाह की तैयारियों में हाथ बँटाते थे, रिश्तेदार भी महीनों और हफ्तों पहले आकर घर की साफ-सफाई करने और घर के विभिन्न कामों को करवाने में अपनी सक्रिय जिम्मेदारी निभाते थे, चूंकि तब ना कोई केटरर होता था, ना कोई और पेशेवर आयोजक। बल्कि पूरा विवाह, गाँव-समाज के लोगों के प्रबंधन के बलबूते होता था। लड़की वाले घर में तो तब विशेषतः ऐसा होता था, जब पूरा गाँव औसर की तैयारी में लग जाता था, अब पहले विद्युत वाली चक्कियाँ तो होती नहीं थीं, तो पिसान-बेसन इत्यादि जेतबा से घर की महिलाओं द्वारा पीसे जाते थे, इसीलिए गाँव भर में एक महीना पहले से ही धुला हुआ गेहूं पीसने के लिए दे दिया जाता था। इसी तरह चना और शक्कर भी पीसने के लिए दे दी जाती थी।

आज शादियों में बढ़ गया दिखावा

तो दोस्तों अब समय बदल गया है, साधन-सुविधाएँ बढ़ गईं। जीवन की गति तेज़ हो गई, लेकिन लोगों के पास अब समय का आभाव हो गया है। आजकल शादियों में जाना महज दिखावा और सामाजिक स्टेटस बनकर रह गया है, क्योंकि समाज में इसे महज़ एक औपचारिकता समझ लिया गया है। लोग सोचते हैं- व्यवहार निभ गया, लिफ़ाफ़ा दे दिया, नाम दर्ज हो गया, बस बात ख़त्म। भावनाएँ और आत्मीयता कम हो रही हैं, और अतिरेकता ज्यादा बढ़ती जा रही है। तब की शादियों में इतना तड़क-भड़क और भव्यता भले ही नहीं रही हो। लेकिन बहुत सारा अपनापन, गहरी सामाजिकता एकता और प्रेम भरपूर रहता था। लेकिन समय भले ही बदल गया हो, पर उन सादगी भरे दिनों की महक, आज भी कभी-कभी किस्से और यादों के रूप में जीवंत हो उठते हैं। हालांकि समय के साथ बदलाव जरूरी भी है इसीलिए समय के साथ चलना गलत नहीं है, लेकिन इसके साथ ही हमें अपनी संस्कृति और परंपराओं को याद रखना भी जरूरी है।

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