Site icon SHABD SANCHI

Bagheli Paheli | बघेलखंड में प्रचलित ‘महुआ’ की लोककथा

Bagheli Paheli Story In Hindi: विंध्य क्षेत्र और यहाँ की लोकसंस्कृति में महुआ अत्यंत महत्व रखता है। चूंकि पिछले दिनों चैत महीने में महुआ का सीजन चल रहा था। विंध्य और बघेलखंड की संस्कृति में महुआ बड़ा महत्व रखता है। तो आइए जानते हैं महुए से जुड़ी हुई एक पहेली और उसके मजेदार किस्से के बारे में।

महुआ’ की पहेली की लोककथा | Bagheli Paheli

एक समय की बात है, विंध्य के किसी गाँव में एक दिन एक बहू ने अपने श्वसुर को खाना परोसा और खाने के लिए बुलाया। लेकिन तभी उसने देखा उसके घर में तो पीने के लिए पानी ही नहीं है।

उसने सोचा मैं कुएँ पानी भरने जाऊँ इधर ये बुजुर्ग आदमी खाना खायें, कहीं इनके गले में अटक जाए, तो दिक्कत हो जाए। क्यों ना इन्हें एक पहेली बूझने के लिए दे देती हूँ, जब तक यह पहेली बूझेंगे मैं पानी लेकर आ जाऊँगी।

इसीलिए बहू ने अपने ससुर को संबोधित करते हुए कहा-

“बाप पूत के एकै नाम, नाती के कुछ आउर, मोर किहानी जान के तब बाबा उठायै कौर”

अर्थात- बाप और बेटे का तो, एक ही नाम है, लेकिन नाती का कुछ और। बाबा मेरी पहेली को बूझ कर ही खाना खाओ।

अब ससुर ने सोचा, मेरी बहू तो बड़ी चालक बन रही है, वह तो मुझे हरा देगी, तो अपनी बहू को सम्बोधित करते हुए उसने भी एक पहेली कह दी-
“आधी जर पाताल गय, ऊपर पारे अंडा, मोर किहानी जान के, तब बहू उठाये हंडा”

अर्थात- आधी जड़ तो पाताललोक तक जाती है, पर ऊपर अंडा रहता है, बहू मेरी पहेली जानकर ही पानी के लिए जाना।
अब ना ससुर को बहू की पहेली समझ आ रही, और ना बहू को ससुर को, अब नियम के अनुसार दोनों सोचते बैठते हुए हैं। ना ससुर खाना खा रहा है, ना बहु पानी लेने जा रही है।


जब ससुर और बहू का ये वार्तालाप चल रहा था। तभी घर के बाहर एक सयानी बुढ़िया चारा काट रही थी और सब सुन रही थी. जब बहुत देर तक कुछ हल ना निकला तो उसने ससुर और बहू दोनों को सम्बोधित करते हुए कहा-

“जाके रस मा मैदल घूमै अउर पेरामय घानी, जा बाबा तू कउर उठाबा बहू लेयामैं पानी”

अर्थात- जिसके रस को पी लेने के बाद इंसान हाथियों की तरह मदमस्त होकर झूमने लगता है, और उसकी घानी अर्थात तेल भी बनवाया जाता है। तो बाबा तुम खाना खाओ और बहू पानी लेने जाए।

उलझी हुई पहेली पर अर्थ एक ही यही | Bagheli Paheli


अब ससुर और बहू तो समझ गए, और अपने काम पर लग गए. लेकिन आप लोग शायद कुछ नहीं समझेंगे होंगे, तो आइये समझाते हैं। दरसल बहू, ससुर और बुढ़िया स्त्री द्वारा कही गई पहेलियों का एक ही मतलब है, वह है महुआ. कैसे आइये जानते हैं।
बहू ने क्या कहा था- बाप और बेटे का तो, एक ही नाम है, लेकिन नाती का कुछ और नाम है।

तो यहाँ बाप कहलाया महुआ का पेड़ और बेटा हुआ फूल जो चैत के महीने में खूब गिरता है सुबह-सुबह, दरसल वह फल नहीं फूल ही होता है, जिससे बघेलखंड में मौहरी बनती है, महुआ के फूल से ही शराब बनती है। तो बाप और पूत का एक ही नाम हो गया, लेकिन नाती अर्थात महुआ के फल को डोरी बोला जाता है, जो अंडाकार सफ़ेद रंग का होता है।


अब ससुर ने बहू से क्या बोला था- आधी जड़ तो पाताललोक तक जाती है, पर ऊपर अंडा जैसा लगा रहता है।
अर्थात- महुआ के पेड़ की जड़ जमीन में बहुत नीचे तक जाती हैं और ये पानी के कटाव को रोकती हैं। इसीलिए पहले के समय में पठारी क्षेत्रों में महुआ खूब लगाया जाता था।

अब आते हैं कहावत पर ऊपर अंडा पारने का अर्थ महुआ के फल डोरी से ही है, जैसे हमने बताया था यह अंडाकार सफ़ेद रंग का होता है। इसीलिए ससुर के पहेली का अर्थ भी महुआ के फल से हुआ।


अब सयानी बुढ़िया ने क्या बोला था- जिसके रस को पी लेने के बाद इंसान हाथियों की तरह मदमस्त होकर झूमने लगता है, और उसकी घानी अर्थात तेल भी बनवाया जाता है।


कहते हैं पहले समय में हाथियों को युद्ध मैदान में ले जाने से पहले खूब महुआ की शराब पिलाई जाती थी, जिसके रस को पी के हाथियों का झुंड मदमस्त हो जाता था, जिससे ये दुश्मन सेना में खूब आतंक मचाएं। इसी तरह शराब पी लेने के बाद इंसान भी मदमस्त हो जाता है।

महुआ का जो फल होता है डोरी उसका पहले के समय में तेल पेरवाया जाता था, और खाने में प्रयोग किया जाता था। बघेलखंड में कई व्यंजन इससे बनते थे। यह डालडा की तरह ही ठंड के मौसम में जम जाया करता था। सर्दियों में डोरी का तेल हाथ-पैर में भी लगाया जाता था।

बघेलखंड संस्कृति में महुआ का महत्व | Bagheli Paheli


बघेलखंड में महुआ और इससे जुड़ी बहुत सारी कहानी, कहावतें, पहेलियाँ, लोकगीत विंध्य में प्रचलित हैं। जैसे के हमने पहले भी बताया था, मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए, महुआ वृक्ष का रोपण भी किया जाता था। इसी का परिणाम है, आज भी विंध्य के लगभग हर गाँव में महुआ के नाम से एक खेत का नाम मिल जाता है, यहाँ के कई गाँवों का नाम भी महुआ पर ही रखा गया है। महुआ का चरित विरला है, लेकिन महुआ वृक्ष आज बहुत कम बचे हैं, जरूरत है इनके संरक्षण और विंध्य संस्कृति के परंपरा को जीवित रखने की।

Exit mobile version