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Babu Kunwar Singh | कौन थे 1857 की क्रांति के नायक बाबू वीर कुंवर सिंह

About Babu Kunwar Singh In Hindi: बिहार केसरी बाबू कुंवर सिंह जिन्होंने 80 वर्ष की उम्र में 1857 की क्रांति में सक्रिय भागीदारी की, जो उम्र वानप्रस्थ की होती है उस उम्र में वह अंग्रेजी शासन के विरुद्ध लड़ाईयाँ लड़ रहे थे, बाबू कुंवर सिंह महान राजा भोज के वंशज और जगदीशपुर के तालुकेदार थे, अपने छोटे भाई बाबू अमर सिंह और सेना प्रमुख हरेकृष्ण सिंह के साथ मिलकर उन्होंने आज के भोजपुर आरा और पटना क्षेत्र में क्रांति के अग्रदूत की भूमिका निभाई।

Babu Kunwar Singh Death Anniversary

कौन थे बाबू वीर कुंवर सिंह | Who was Babu Veer Kunwar Singh

बाबू वीर कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के समय भोजपुर, आरा और पटना क्षेत्र के प्रमुख क्रांतिकारी थे। उनका जन्म 13 नवंबर 1777 को बिहार के जगदीशपुर के जमींदार राजा साहबजादा सिंह और रानी पंचरतन कुंवर के यहाँ हुआ था। 1826 में पिता के देहांत के बाद वह जगदीशपुर के जागीरदार बने।

1857 विद्रोह के समय जगदीशपुर की दशा | Babu Kunwar Singh’s role in the 1857 revolt

1857 की क्रांति में कई जगह ब्रिटिश छावनियों में भारतीय सिपाहियों ने विद्रोह कर रखा था। इसी क्रम में दानापुर छावनी के हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने भी 25 जुलाई 1857 को विद्रोह कर दिया। विद्रोही सिपाहियों ने बाबू कुंवर सिंह को अपना नेतृत्व प्रदान करने के लिए कहा। अपने एक राज्यधिकारी हरेकृष्ण सिंह के कहने पर बाबू कुंवर सिंह इस विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए तैयार हुए। हालंकी कुछ इतिहासकार मानते हैं बाबू कुंवर सिंह के उकसावे से ही दानापुर छावनी में विद्रोह हुआ था।

बाबू कुंवर सिंह और अंग्रेजों का प्रारंभिक संघर्ष | conflict between Babu Kunwar Singh and the British

बाबू कुंवर सिंह के नेतृत्व में बागी सिपाहियों ने आरा पर विजय प्राप्त कर ली। 29 जुलाई को आरा को मुक्त करने के लिए दानापुर से आए कैप्टन डनवर और कुंवर सिंह के नेतृत्व में विद्रोहियों के मध्य हुए संघर्ष में 400 सिपाहियों सहित कैप्टन डनवर मारा गया। इस बात की सूचना मिलते ही इलाहाबाद की तरह बढ़ रहा कैप्टन विन्सेंट आयर ने पलटकर आरा पर आक्रमण कर दिया और गजराजगंज और बीबीगंज दोनों जगह की लड़ाइयों में विद्रोही सिपाहियों को हार का सामना करना पड़ा। कैप्टन आयर ने आरा पर अधिकार कर लिया और अपनी फौजों के साथ जगदीशपुर की तरफ बढ़ा। पर कुंवर सिंह जगदीशपुर से पहले ही निकल गए थे, आयर ने वहाँ पर उनके किले को तोपों से उड़ा दिया।

बाबू कुंवर सिंह की क्रांति यात्रा | Babu Kunwar Singh’s Revolutionary Journey

आरा और जगदीशपुर में अंग्रेजों के कब्जे और दो बार अंग्रेजो से पराजित होने के बाद, वह करीब 1000 हजार विद्रोही सिपाहियों को साथ लेकर सासराम, बनारस, मिर्जापुर होते हुए वह सिंगरौली अर्थात रीवाराज्य पहुंचे। वह रीवा से बाँदा होते हुए कानपुर जाना चाहते थे, लेकिन कॉलिन कैंपबेल के द्वारा कानपुर में तात्या टोपे और राव साहब की हार के कारण, वो वापस इलाहबाद होते हुए लखनऊ चले गए। और फिर वहाँ से आजमगढ़, बलिया गाजीपुर होते है अपने गृहक्षेत्र भोजपुर चले आए। इस बीच उनका विद्रोही सिपाही और क्रांतिकारियों से संवाद होता रहा, अंग्रेज टुकड़ियों से संघर्ष भी चलता रहा। वह आजमगढ़ पर कब्ज़ा करना चाहते थे, उन्होंने यहाँ कमांडेंट मिलमैन को पराजित कर दिया, पर उनका यह प्रयास ब्रिगेडिअर डगलस द्वारा असफल कर दिया गया।

भोजपुर क्षेत्र में वापसी | Babu Kunwar Singh’s return to Bhojpur

अब वह अपने गृहक्षेत्र भोजपुर की तरह लौटने लगे। शिवराजपुर घाट के पास अपने सिपाहियों और सेनानायकों के कहने के बावजूद भी उन्होंने पहले गंगा नदी पार करने से इंकार कर दिया और पहले अपनी सारी सेना को आगे बढ़ा स्वयं एक हाथी पर सवार होकर नदी पर करने लगे। उसी समय डगलस और लुगार्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी फौजें वहाँ आ गईं। कर्नल चैंबरलिन भी अपने मद्रासी सिपाहियों के साथ वहाँ गया और नदी पार कर रही विद्रोही सेना पर गोलियां बरसाने लगे। उसी समय गंगा नदी पार कर रहे बाबू कुंवर सिंह के बायीं बाँह में एक गोली लग गई, जिसके जहर से बचने के लिए उन्होंने अपनी ही तलवार से अपने हाथ को काटकर गंगा को समर्पित कर दिया।

आखिरीयुद्ध और वीरगति | Babu Kunwar Singh’s last battle and martyrdom

वह वापस जगदीशपुर पहुंच गए, हजारों किलोमीटर की यात्रा और लगातार संघर्ष से विद्रोही सिपाही अब थक चुके थे। उनके पास रसद, हथियार और तोपें भी नहीं थीं। ऊपर से दिल्ली और लखनऊ में अंग्रेजों की विजय के बाद विद्रोहियों में बहुत कुछ हताशा भी थी। लेकिन इन सबके बावजूद भी बाबू कुंवर सिंह ने अपने सिपाहियों में जोश भरा और जगदीशपुर में उन्होंने 23 अप्रैल को आखिरी लड़ाई कैप्टेन ले ग्रांड के खिलाफ विजित की। इस युद्ध में अंग्रेजों को बहुत नुकसान झेलना पड़ा। उन्होंने जगदीश किले से यूनियन जैक उतार कर केसरिया झंडा लहरा दिया। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण रहा कटे हुए हाथ में संक्रमण हो जाने के कारण 26 अप्रैल को उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। हालांकि उनके भाई अमर सिंह और कुछ सहयोगी उसके बाद भी लगातार संघर्ष करते रहे।

80 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों से संघर्ष | Babu Kunwar Singh’s struggle with the British at the age of 80

1857 की क्रांति के समय बाबू कुंवर सिंह 80 वर्ष के थे, उन्होंने क्रांतिकारियों को केवल नेतृत्व ही नहीं दिया बल्कि उनके साथ-साथ अंग्रेजों से संघर्ष भी किया। उनके इसी जज्बे की प्रशंसा कार्लमार्क्स और एंजेल ने भी की, सावरकर ने 1857 में लिखी गई अपनी किताब में उनके संघर्ष और जज्बे को याद किया किया है। यहाँ तक की उनके समकालीन ब्रिटिश रिकॉर्ड्स में भी उनके युद्धशैली और जज्बे के बारे अंग्रेजों ने भी बहुत तारीफ की है।

बाबू कुंवर सिंह की लोकप्रियता और सम्मान | Popularity and respect of Babu Kunwar Singh

भोजपुरी भाषा में कुंवर सिंह को लेकर कई लोकगीत और कथाएँ हैं, जिनके माध्यम से उन्हें आज भी बड़े गर्व और सम्मान से याद किया जाता है। और मात्र बिहार ही नहीं पूरे भारत में उनके संघर्ष और जज्बे को आज भी याद किया जाता है।

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