न्याज़िया बेगम
मंथन। ग़म का भी इतना सोग न मनाए कि वो हमारे हर पल पर हावी हो जाए। कैसे? अपने आपको इस तरह से ढालें कि हमें किसी के सहारे की ज़रूरत न पड़े बल्कि हम किसी को सहारा दे सकें, ज़रूरी नहीं कि ये सपोर्ट फाइनेंशियल ही हो, कभी कभी आप भी किसी के लिए मिसाल बन जाते हैं और उसे जीने की राह मिल जाती है ,आपकी बातें आपका लाइफ स्टाइल किसी को इतना प्रभावित करता है कि आप उसके रोल मॉडल बन जाते हैं और ये जानकर आपको भी बहुत अच्छा लगता है कि आपमें कोई ऐसी खूबी है कि आपसे कोई कुछ सीख सकता है।
पर ये मज़बूती आती कैसे है?
क्या इसके लिए बहुत जतन करने पड़ते हैं? नहीं ना,बस शायद दूसरों से उम्मीदें छोड़नी पड़ती हैं खुद को इस क़ाबिल बनाना पड़ता है कि हमें किसी के सहारे की ज़रूरत ही न पड़े और जब हम अपनी ज़िम्मेदारी ख़ुद उठाने लगते हैं तो हमें अपने दायित्व भी याद आने लगते हैं , जिन्हें निभाने की राह में हम ख़ुद ब ख़ुद चल पड़ते हैं ,फिर खुशियों का जश्न मनाने के लिए तो फिर भी हमारे पास वक़्त होता है क्योंकि ये भी हमें मज़बूत बनाती हैं लेकिन लंबे टाइम के लिए ग़मों का सोग मनाना मुश्किल हो जाता है क्योंकि ये हमें कमज़ोर करता है कभी कभी तो हमारी नींव हिला के रख देता है लेकिन इस बात का मतलब ये हरगिज़ नहीं है कि हम बेमुरव्वत हैं या हमें दुख नहीं है बल्कि हम उसमें भी कोई न कोई ऐसा प्वाइंट ऑफ व्यू ,ढूंढ लेने का माद्दा रखते हैं कि वो ग़म भी कहीं हमारा हौसला बढ़ाता है हमारी यादों में बस कर राह दिखाता है, कोई सबक़ दे जाता है।
बढ़ती है जिम्मेदारी
मान लीजिए ये दुख किसी अपने को खोने का हो तो हमारा ये सोचना ही हमें ताक़त दे देता है कि हमारी भी मंज़िल वही है बस वो हमसे पहले चले गए हैं और कुछ ज़िम्मेदारियां हमारे कंधों पर डाल गए हैं जिन्हें हमें उनके नक्श ए क़दम पर चलकर ही पूरा करना है ताकि किसी को कोई परेशानी न हो ,कोई कमी महसूस न हो।
खुद पर करें भरोसा
इतना मज़बूत बनने के लिए सबसे पहले ये ज़रूरी है कि हम खुद पर भरोसा करें , अपनी भी इज़्ज़त करें ,खुद को भी समझे कि हम क्या कर सकते हैं ,क्या नहीं कर सकते हैं और क्या बहोत अच्छा कर सकते हैं ,अपने आप को नकारा समझना हमारी सबसे बड़ी भूल होती है।
ज़िंदगी कई दफा लेती है इम्तहान
ज़िंदगी कई दफा बहोत मुश्किल इम्तहान लेती है, जिसमें कभी हम फेल होते हैं तो कभी पास , पास होने पर तो मंज़िल मिल जाती है लेकिन फेल होने पर भी मंज़िल की चाह न छोड़ना ही हमारी आत्म शक्ति या ज़िंदा दिली का सबूत है, मिर्ज़ा अज़ीम बेग अज़ीम श्ने क्या खूब कहा भी है कि, गिरते हैं शहसवार ही मैदान ए जंग में, वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले क्योंकि जंग में गिरना हमारी हार नहीं है बल्कि गिरने के डर से खड़े ही न होना ही हमारी सबसे बड़ी हार है।
तो ग़ौर ज़रूर करिएगा इस बारे में ,फिर मिलेंगे मंथन की अगली कड़ी में।