EPISODE 58: पद्म श्री बाबूलाल दाहिया जी के संग्रहालय में संग्रहीत खेती किसानी से जुड़ी वस्तुएं

Padmshri Babulal Dahiya

Antiques related to farming: हमारी खेती किसानी से जुड़े कुछ छोटे-मोटे अन्य उपकरण या वस्तुएं भी होती हैं, जिनमें भेड़ पालकों के कम्बल और कुछ बुनकरों के वस्त्र हैं। प्राचीन समय में बुनकर भी हमारे कृषि आश्रित समाज के अंग हुआ करते थे। पर अंग्रेजों ने उन्नीसवी सदी में ही उनके ब्यावसाय को छीन लिया था अस्तु उनके सीमित वस्त्र ही किसानों के उपयोग में बंचे थे। हम यहां कृषि आश्रित समाज से जुड़े कुछ अन्य शिल्पियों की निर्मित वस्तुओं के बारे में बात करते हैं। तो आइये उपकरणों एवं बर्तनों की जानकारी की श्रृंखला में आज हम कुछ ऐसी ही वस्तुओं की जानकारी लेकर आये हैं जिन्हे पद्मश्री बाबूलाल दाहिया जी ने अपने संग्रहालय में संग्रहीत कर रखीं हैं –

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ऊन के वस्त्र

ऊन के वस्त्रों में प्राचीन समय में मुख्यतः कम्बल एवं बैठकी हुआ करते थे। इन्हें भेड़ पालक समुदाय भेंड़ों के बालों को कैंची से काट और फिर तकला से कात कर बुनाई करता एवं किसानों व गाँव के उद्द्मियों को बेचता था। उस समय हर एक किसान और कृषि से जुड़े हलवाहे व चरवाहों के लिए भी कम्बल बहुत उपयोगी था। यहाँ तक कि किसान द्वारा अपने हलवाहों य चरवाहों को हर साल ठंडी या बरसात से बचने के लिए एक-एक जोड़ी चमरौधा, पनही एवं कम्बल भेंट करने की परम्परा थी। क्योंकि खेत में काम करते या पशु को चराने के दौरान कम्बल ओढ़ लेने से ठंडी और बारिश का असर नहीं होता था। उन दिनों यदि कोई मेहमान आते तो चबूतरे में कम्बल को बिछाकर उसमें सात-आठ लोग साथ-साथ बैठ सकते थे। इस तरह कम्बल ओढ़ने और दशाने से लेकर पानी से बचाने तक में उपयोगी वस्त्र था। हम यहां भेंड़ पालक समुदाय द्वारा बनाई गई कुछ ऐसी ही वस्तुओं की जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।

कम्बल

यह भेंड़ के बाल यानी ऊन को तकले से कात कर बुना जाता था। कम्बल लगभग 6 फुट लम्बा एवं 4 फुट चौड़ा होता था। प्राचीन समय में इसे ओढ़ने और नात- रिस्तेदारों के आने पर जमीन में बिछाकर बैठने में तो उपयोग में था ही। साथ ही सोते समय ठंडी में ओढ़ने में भी काम में लाया जाता था। इसे और भी आरामदायक बनाने के लिए कम्बल के ऊपर एक चद्दर डाल ली जाती थी। ऐसा करने के इसके बुनाई के छिद्र से जो हवा आती थी उससे ठंड में बचा जाता था। पर अब मिलों से बुने गए जमावटी कम्बल आजाने से गांव की कम्बल बुनने की कला पूर्णतः समाप्त सी है।

बैठकी

यह डेढ़ हाथ लम्बी और उतनी ही चौड़ी चौकोर बुनी जाती थी। इसे भेंड़ पालक समुदाय मात्र जमीन में बिछा कर बैठने के लिए बुनता था। इस बैठकी का उपयोग पूजा-पाठ करने वाले भी अपने बैठने में करते थे। पर अब भेड़ पालकों ने बुनना ही कम कर दिया है।

खेसबा

घर में रजाई आदि से निकली पुरानी रुई को भेंड़ पालक समुदाय अपने ऊँन कातने वाले तकले से कात कर कम्बल की तरह ही बुनाई कर के एक और वस्त्र बुन लेता था। यह खाट में बिछाने के काम आता था। उसे लोग खेसबा कहते थे। इसी के बुने हुए कपड़ों की मोटी टाट को बैल गाड़ी में लगाकर खलिहान से भुसौला तक भूसा भर कर लाया जाता
था।

आज के लिए बस इतना ही इस श्रृंखला की अगली कड़ी में मिलेंगे कुछ नई जानकारी के साथ ।

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