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आधुनिक संगीत के पहले संगीतकार अनिल विश्वास, जिन्होंने कई पार्श्वगायकों को मौका दिया

Musician Anil Biswas Birth Anniversary| न्याज़िया बेगम: आज हम बात करेंगे अनिल कृष्ण बिस्वास की, जो सन1935 से 1965 तक भारतीय फिल्म संगीत निर्देशक और पार्श्व गायक भी रहे। उन्होंने फिल्म संगीत में पार्श्वगायन की शुरुआत करने में एक अहम भूमिका निभाई और दिन ब दिन अपने प्रयोगों से उसे संवारते भी गए। इसके अलावा आपको बारह टुकड़ों का पहला भारतीय ऑर्केस्ट्रा बनाने का भी श्रेय दिया जाता है, वो पश्चिमी सिम्फोनिक संगीत में भारतीय शास्त्रीय या लोक धुनों, विशेष रूप से बाउल और भटियाली के संगीत को एक साथ प्रयोग कर अपनी धुनों में जान डाल देते थे।

सुपरहिट फिल्मों में दिया संगीत

उनकी 90 से अधिक फिल्मों में से सबसे यादगार थीं, रोटी (1942), किस्मत ( 1943), अनोखा प्यार ( 1948 ) और तराना ( 1951), यहां हम आपको एक गीत याद दिलाते चलें, आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिंदुस्तान हमारा है …..। ये वो तराना था जिसने युवा पीढ़ी में आज़ादी के लिए एक ललक पैदा कर दी थी।

पूर्वी बंगाल में हुआ था जन्म

1943 की फिल्म क़िस्मत के लिए इस गीत को लिखा था मध्यप्रदेश के रहने वाले गीतकार ,कवि प्रदीप ने और संगीतबद्ध किया था पूर्वी बंगाल या बांग्लादेश से आए हमारे अनिल बिस्वास ने जिनका जन्म 7 जुलाई 1914 को बरिसाल ज़िले के एक छोटे से गाँव में जेसी बिस्वास के घर में हुआ था। कम उम्र में उन्होंने एक स्थानीय थिएटर में शौकिया तौर पर बाल कलाकार के रूप में अभिनय किया क्योंकि उन्हें बचपन से ही संगीत से बहोत लगाव था। जैसे-जैसे वो बड़े हुए, अपनी संगीत प्रतिभा का प्रदर्शन करते गए महज़ 14 साल की उम्र तक वो तबला बजाने में निपुण हो गए थे, और स्थानीय संगीत समारोहों में गायन और संगीत रचना करने लगे थे पर उसी वक्त दिल में उमड़ते देश प्रेम के बादलों ने उन्हें घेर लिया और वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो कर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए बार-बार जेल जाने लगे,जिससे उनकी पढ़ाई भी रुक गई अंततः 1930 में, वो एक गिरफ्तारी से बचने के लिए भेष बदलकर कलकत्ता चले गए।

रंगमहल थिएटर से हुई कैरियर की शुरुआत

और फिर नाटकों के लिए संगीत रचना करने लगे यहां वो इतना मशहूर हुए, कि कुछ ही सालों में ‘रंगमहल थिएटर’ में एक अभिनेता, गायक और सहायक संगीत निर्देशक के रूप में शामिल हो गए। इस दौरान उन्होंने कई व्यावसायिक मंच प्रस्तुतियों में गायन और अभिनय किया। इस समय तक वो ख्याल, ठुमरी और दादरा जैसी गायन शैलियों में पारंगत हो चुके थे और श्यामा संगीत, कीर्तन शैलियों में भक्ति संगीत के एक निपुण गायक बन गए और 1934 में बॉम्बे ( मुंबई ) आ गए।

सिनेमा के प्रारंभिक दौर की फिल्मों में दिया संगीत

ये वो समय था जब पार्श्व गायन भारतीय सिनेमा में पदार्पण कर रहा था, तब अनिल पहली बार राम दरयानी की ‘ईस्टर्न आर्ट सिंडीकेट’ में शामिल हुए और फिल्म ‘बाल हत्या’ और ‘भारत की बेटी’ के लिए संगीत रचना में जुड़ गए फिर फिल्म धरम की देवी (1935) के लिए उन्होंने पृष्ठभूमि संगीत तैयार किया, अभिनय भी किया और गीत ‘ कुछ भी नहीं भरोसा’ गाया। 1936 में वो एक संगीतकार के रूप में ‘सागर मूवीटोन्स’ में शामिल हो गए और तलत महमूद को फिल्म आरज़ू (1949) में ‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल’ गाने का मौका दिया, जो बॉम्बे में उनका पहला गाना था, यही नहीं उनकी लरज़ती और मीठी आवाज़ की खासियत से उनका अपने नज़रिए से तार्रुफ कराया।

कई पार्श्वगायकों को मौका दिया

उनकी हौसला अफज़ाई की और वो दिन ब दिन खुद को निखारते गए, लता मंगेशकर भी उस वक्त नूरजहां के जैसा गाने की कोशिश करती थी, तो उन्हें भी अपनी खूबी को पहचानने की सलाह दी तब लता मंगेशकर ने अपनी शैली का विस्तार किया। वो सुरेंद्रनाथ, पारुल घोष, अमीरबाई कर्नाटकी और रोशन आरा बेगम जैसे कई गायकों की सफलता के पीछे रहे, अपने संगीत के ज्ञान से उनका मार्ग दर्शन किया। ये संगीत की दुनिया के वो जौहरी थे जिन्होंने कई हीरों को तराश कर बेशकीमती नगीनों में तब्दील कर दिया।

रागों को लेकर प्रयोग करते रहते थे अनिल

वो बचपन से ही इतने प्रयोगधर्मी थे कि रागों में भी अपनी तरफ से कुछ नयापन ला देते थे। इसकी मिसाल है 1945 में आई फिल्म ‘पहली नज़र’ में मुकेश का गीत, ‘दिल जलता है तो जलने दो …, ‘जो राग दरबारी पर आधारित था, इस गीत को गौर से सुनेंगे तो आपको हल्का सा सुरीला बदलाव महसूस होगा। हालांकि इस गीत में मुकेश अपनी बाद की शैली से थोड़ा अलग लगते हैं या कहलें कि कुंदनलाल सहगल की परछाई लगते हैं। जिन्हें आगे चलकर अनिल बिस्वास ने ही अपनी आवाज़ में खुलकर गाने को कहा और फिर मुकेश को वक्त न लगा सबका दिल जीतते।

अनिल ने लोक धुनों से प्रभावित होने के कारण आपने कोरस के साथ प्रांतीय संगीत का अपनी धुनों में प्रयोग किया। जिसने संगीत प्रेमियों को खूब आकर्षित किया, वेस्टर्न सिंफनी के साथ लोक धुनों में भटियाली, बाउल, कीर्तन का प्रयोग किया, कई प्रांतों के लोक संगीत की मधुरता को फिल्म संगीत में पिरोया। फिर रविंद्र संगीत का भी इस्तेमाल किया और शास्त्रीय संगीत के रागों का इस्तेमाल भी फिल्म संगीत में उन्होंने ही शुरू किया। उप शास्त्रीय संगीत की ठुमरी, कजरी, चैती, होरी, दादरा, टप्पा को भी पूरे जोश के साथ संजोया तो वहीं ग़ज़लों को भी दिलकश मौसिकी की धुनों में पिरोया।

वो फिल्म संगीत में काउंटर मेलोडी का उपयोग करने वाले भी रहे जिसमें पश्चिमी संगीत की तकनीक, ‘कैंटला’ का उपयोग किया गया जाता था। जहां एक पंक्ति दूसरी पंक्ति को ओवरलैप करती है, जैसे कि फिल्म रोटी (1942) में कंट्रा-मेलोडी है जो पुनरावर्ती गद्य गीतों में दिखती है।

देविका रानी बुलाया था मुंबई

1942 में, वो देविका रानी के प्रस्ताव पर बॉम्बे टॉकीज़ में शामिल हुए थे, जहाँ उन्हें अपनी सबसे बड़ी हिट फिल्म, ज्ञान मुखर्जी की किस्मत (1943) मिली, बस फिर ये सिलसिला चल पड़ा था और वो एक से बढ़कर एक अपने संगीत से सजी फिल्में देते रहे। पर एक वक्त ऐसा भी आया जब वो अपनी ज़िंदगी से मायूस हो गए और 1960 के दशक की शुरुआत में, सिनेमा से दूरी बना ली फिर नई दिल्ली चले गए, हालांकि उन्होंने बीच में महेश कौल की सौतेला भाई (1962) जैसी एक या दो फ़िल्में कीं, संगीतकार के रूप में उनकी अंतिम फ़िल्म अभिनेता मोतीलाल द्वारा निर्देशित छोटी छोटी बातें (1965) थी, जिसमें नादिरा ने अभिनय किया था और इस फिल्म को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार मिला था।

कई पुरस्कार और सम्मान भी मिले

दिल्ली में, वो मार्च 1963 में ऑल इंडिया रेडियो में राष्ट्रीय ऑर्केस्ट्रा के निदेशक बने और 1975 तक आकाशवाणी दिल्ली में सुगम संगीत के मुख्य निर्माता रहे। उन्होंने दूरदर्शन की अग्रणी टीवी श्रृंखला हम लोग (1984) और 1991 के अंत तक फिल्म प्रभाग के लिए कई वृत्तचित्रों के लिए संगीत तैयार किया और 2 साल तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर संगीत सलाहकार रहे।

आधुनिक संगीत के पहले संगीतकार थे अनिल विश्वास

इस क्षेत्र में खुद को समर्पित करते हुए, 31 मई 2003 को वो हमें छोड़कर चले गए इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए
उनकी एक ख़ास पेशकश थी पश्चिमी ऑर्केस्ट्रेशन, जिसमें गीतों के साथ-साथ उनके मधुर अंतराल में स्वदेशी वाद्ययंत्रों का उपयोग किया गया था, ये वो सूत्रपात था जो भारतीय सिनेमा के संगीत का मार्गदर्शन करता रहा ,अनिल बिस्वास ने हमारे सिनेमा को वो पद चिन्ह दिए की आज वो बुलंदियों पर है और इसी शिद्दत की बदौलत उन्होंने 1986 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार जीता ।

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