तस्वीरों में आपको नज़र आ रहीं ये मूर्तियां कोई आम मूर्तियां नहीं बल्कि एक हजार साल पुरानी प्रतिमाएं हैं. जो सदियों से धरती के अंदर दबी रहीं और बाहर आने के बाद भी लंबे अरसे से हाइवे के किनारे लावारिस पड़ी रहीं। ऐसा दावा किया जा रहा है कि ये प्रतिमाएं 11वीं सदी की बनाई हुई हैं. हालांकि ASI द्वारा फ़िलहाल इन्हे प्रमाणित नहीं किया गया है, क्योंकि खुद पुरातत्व विभाग को इनके मिलने की जानकारी नहीं थी.
शब्द सांची को इन प्रतिमाओं के बारे में जानकारी हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के व्यावहारिक भूविज्ञान विभाग के प्रोफेसर ‘पीके कठल’ ने दी. उन्होंने बताया कि रीवा से प्रयागराज जाने के दौरान, रायपुर कर्चुलियान सर्किल में सड़क किनारे उन्हें दो प्राचीन प्रतिमाएं नज़र आईं. उन्होंने आसपास के लोगों से इन मूर्तियों के बारे में पूछा तो पता चला, वर्षों पहले यहां पुल निर्माण का काम चल रहा था, यहीं खुदाई के दौरान यह प्रतिमाएं जमीन से बाहर निकाली गईं. गाँव वालों ने ही इन्हे सड़क के किनारे रख दिया। ग्रामीण इन प्रतिमाओं को एक मंदिर में स्थापित करना चाहते थे, लेकिन उन्हें यह मालूम ही नहीं चल पाया कि आखिर ये मूर्तियां किन देवताओं की हैं? और मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा करने की योजना रुक गई.
रायपुर कर्चुलियान में मिलीं भैरव प्रतिमाएं
पता चला है कि रायपुर कर्चुलियान में मिलीं यह मूर्तियां ‘भैरव‘ की हैं. एक भैरव प्रतिमा की ऊंचाई तीन फ़ीट और चौड़ाई दो फ़ीट है जबकि दूसरी प्रतिमा आकर में छोटी है. इन प्रतिमाओं की तस्वीरों को देख इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्विद्यालय अमरकंटक के प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के अधिष्ठाता, ‘प्रोफेसर अलोक शोत्रीय’ ने बताया कि यह मूर्तियां भैरव की हैं. जिन्हे लगभग 10 वीं-या 11वीं सदी के बीच बनाया गया होगा। उन्होंने बताया कि बड़ी मूर्ति स्थानक भैरव है यानी खड़े हुए भैरव और दूसरी छोटी प्रतिमा आसनक भैरव हैं मतलब बैठे हुए भैरव की है. दोनों मूर्तियां शैव धर्म से सम्बंधित हैं.
इस बड़ी मूर्ति को गौर से देखें तो सिर पर त्रिभंग जटा मुकुट दिखाई देता है, प्रतिमा के प्रलंब कर्ण हैं, दायां हाथ भग्न है और बाएं हाथ में त्रिशूल या खटवांग लिए हुए हैं. दोनों भुजाओं में बाजूबंद है, घुटनों के नीचे तक वनमाला है, प्रतिमा में यज्ञोपवीत धारण किया गया है. सिर के दोनों तरफ मालाधारी गन्धर्व हैं और बाएं पैर के पास भैरव का वाहन श्वान दिखाई दे रहा है.
दूसरी प्रतिमा पर गौर करें तो सिर पर जटा मुकुट है, इनके भी प्रलंब कर्ण हैं. यह प्रतिमा चतुर्भुज है जिसके ऊपरी दाएं हाथ में त्रिशूल, ऊपरी बाएं हाथ में खटवांग, निचला दायां हाथ अभय मुद्रा में है और निचले बाएं हाथ में कपाल है. इस प्रतिमा की भुजाओं में भी बाजूबंद है. प्रोफेसर शोत्रीय का कहना है कि छोटी प्रतिमा बटुक भैरव की है. दोनों प्रतिमाओं में उन्नत उदर देखने को मिलता है.
ग्रामीण शनि देव मान पूजते रहे
हालांकि हजार साल पुरानी होने और काफी वक़्त से जमीन के अंदर दबे होने के चलते ये प्रतिमाएं खंडित हो गईं. जिससे मूर्ति के चेहरा साफ़ दिखाई नहीं दे रहा है. रायपुर कर्चुलियान के सुरसा गाँव में मौजूद दुर्गा तालाब के सामने इन प्रतिमाओं को एक देवी मंदिर के सामने स्थापित किया गया है. कुछ ग्रामीण इन्हे अबतक शनि देव मानकर इनपर तेल चढ़ाते थे. लेकिन प्रो शोत्रीय के अनुसार दोनों प्रतिमाएं भैरव की हैं.
भैरव कौन हैं?
दरअसल सनातन धर्म में भैरव को यक्ष बताया गया है. को ग्रंथों में देवता और दानवों के बीच का एक पात्र बताया जाता है. यक्ष और राक्षस में फर्क इतना है कि यक्ष मनुष्यों के दुश्मन नहीं बल्कि रक्षक हैं. महाभारत के एक अध्याय में भी पांडवों की यक्ष के साथ हुए सामने का उल्लेख हैं ऋग्वेद में यक्ष को अर्ध देवयोनि और जादुई शक्ति कहा गया है. पुराने ज़माने में लोग यक्ष की प्रतिमा बनाकर राक्षसों से बचने के पूजते थे. वहीं शिव पुराण में भी भैरव का उल्लेख मिलता है. ऐसा कहा जाता है कि शिव पूजा से पहले भैरव को पूजने की परंपरा है. जिनकी सवारी स्वान है.
विंध्य की ऐतिहासिक धरोहरों का संरक्षण जरूरी
इन प्रतिमाओं को लेकर ग्रामीण कहते हैं कि ये सुरसा गांव में करीब 65 साल पहले से मौजूद हैं. गौरतलब है कि रीवा का रायपुर कर्चुलियान क्षेत्र अपने इतिहास के लिए जाना जाता है. कर्चुलियान क्षत्रियों का इतिहास वृहद रहा है. इतिहासकारों का कहना है कि यहीं एक कर्ण कर्चुलि नामक प्रतापी योद्धा जा हुआ करता था, उसने ही इन प्रतिमाओं को बनवाकर कई मंदिर स्थापित किए थे. यहां कई बार ऐसी प्राचीन प्रतिमाओं के मिलने की जानकारी सामने आई है. हालांकि जिस भैरव प्रतिमाओं के बारे में हमने आपको बताया उसकी जानकरी क्षेत्रीय प्रशासन को भी नहीं थी. बताया जाता है कि रायपुर कर्चुलियान के इस क्षेत्र में प्राचीन इतिहास के साक्ष्य आज भी जमीन के अंदर दफन हैं. कई मूर्तियां तो यहां से गायब हो गईं या नष्ट हो गईं। अब ये प्रतिमाएं हाल ही में मिलीं हो यां दशकों पहले। यह विंध्य की ऐतिहासिक धरोहर हैं जिन्हे संरक्षित किया जाना चाहिए।
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