Basant Panchami 2024: बेलिंन में बागन में बगरो बसंत है- बाबूलाल दाहिया

Basant Panchami 2024: आज बसंत है परन्तु झरियार (वर्षा की झड़ी) एवं वेलेन्टाइन डे (Valentine’s Day) के साथ-साथ ही आया है। रीति काल के कवियों ने बसंत की प्रसंशा में अनेक कविताएं लिखी हैं। पता नही बाग़ में वह उतरा या नही पर हमारे खेत में गेहूं के बगल में लगे सरसों में अवश्य अपने पूरे सबाब के साथ उतरा हुआ है। क्यों कि पूरा खेत ही पीला दिख रहा है। वसंत को ही विद्या की देवी कही जाने वाली सरस्वती का जन्मदिन (Saraswati Puja) भी माना जाता है और महाप्राण निराला जैसे महान कवि की जयंती भी। परन्तु दिल्ली पंजाब आदि के आस-पास बसंत एक ऐसा साझी विरासत का उत्सव बन कर उतरता है जो भारत भर में कौन कहे, पाकिस्तान (Pakistan) में भी मनाया जाता है। यहां तक की बसंत के दिन तो पाकिस्तान में पतंगें भी उड़ाई जाती हैं। यद्दपि जिस प्रकार अन्य धर्मो से नफरत करने वाले अब भारत में भी खूब होगए हैं उसी कट्टरवाद की तरह पाकिस्तान में भी एक संकीर्ण कट्टर पंथ है, जो अक्सर कहता रहा है कि,”यह हिन्दुओं का त्यौहार है तो इसे पाकिस्तान में क्यों मनाया जाए?” क्योंकि हर सांप्रदायिकता अपनी विपरीत सांप्रदायिकता को हमेशा जीवन रस देती है।

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लेकिन समस्त समुदाय तो दकियानूस होता नही? साथ ही जो परम्परा बन कर जन जीवन में रच-बस जाती है, वह एक बारगी (एक बार में) समाप्त भी तो नही होती? पर इस परम्परा को साझी विरासत बनाने का श्रेय जाता है, 13वीं सदी के एक नामाचीन सख्शियत अमीर खुसरो (Amir Khusro) को। अमीर खुसरो ही भारत की वह सख्शियत हैं, जिन्हें कब्बाली ग़ज़ल, मुकरियां (पहेलियां) हिन्दी के दोहे आदि लिखने का श्रेय जाता है।

Basant Panchami History: अमीर खुसरो ने ही मृदङ्ग को दो टुकड़े में विभाजित कर सर्वप्रथम तबले का अविष्कार भी किया था जो आज शास्त्रीय संगीत का प्रमुख वाद्य है। पर उनके बसंत मनाने और फिर उसे परम्परा में ढल जाने का भी एक वाक्या है। कहते हैं कि अमीर खुसरो के गुरू हजरत निजामुद्दीन ओलिया (Guru Nizamuddin Auliya) के भांजे का निधन हो जाने के कारण वह इतने दुखी हुए कि अपने सागिर्दों से हँसना-बोलना तक बन्द कर दिया। बस दिन भर गुम सुम बैठे रहते। उनके इस चिंता से अमीर खुसरो भी चिंतित थे। उन्होंने उन्हें सामान्य स्थित में लाने के अनेक उपाय किए पर सफल न हुए। एक दिन जब अमीर खुसरो कालका जी नामक एक मंदिर की ओर से आ रहे थे तो देखा कि वहां बसंत का मेला लगा हुआ है और लोग मंदिर में सरसों का फूल चढ़ा-चढ़ा कर खूब खुशियां मनाते हुए गीत गा रहे हैं?

अमीर खुसरो भी इस नजारे को देख भाव विभोर हो उठे। उन्होंने फौरन (हिंदी एवं फारसी) के मिले जुले शब्दों से कुछ रचना कर हाथ में फूलों से लदी सरसों की डाली लिए अपने गुरू से मिलने चल पड़े तथा अपनी पीली पगड़ी को भी थोड़ा टेढ़ा कर लिया ।

Basant Panchami in Pakistan: जब वे अपनी मस्तानी चाल में सरसों के फूलों को लहराते निजामुद्दीन औलिया के पास पहुँचे और बसंत पर एक शेर पढ़ा तो उनके इस क्रिया कलाप को देख कई दिनों से गुम सुम बैठे औलिया मुस्करा दिए। फिर क्या था? उनके शागिर्द बड़े प्रसन्न हुए और बसंत के दिन को हर साल रंग बिरंगी पतंग उड़ा कर खुसी मनाने लगे। बाद में इसी के साथ बसंत के कब्बाली गा कर ख़ुशी मनाने का प्रचलन भी चल पड़ा। तब से यह पतंग उड़ाने का त्यौहार दिल्ली से होता भारत भर नहीं पाकिस्तान तक पहुँच गया और अब दोनों समुदायों की साझी बिरासत बना हुआ है। एवं अमीर खुसरो तो जैसे उस साझी बिरासत के जनक ही हैं जिनने अपने अनेक रचनाओं में हिन्दुस्तान की उपमा जन्नत से करते हुए यहाँ के पेड़ पौधों नदियों और पशु पक्षियों पर अनेक रचनाए लिखी हैं? उनकी एक पहेली:- एक थार मोती से भरा । सबके सिर पर उलटा धरा।

तो हिन्दी की पहली रचना के रूप में उदाहरण स्वरूप भी प्रस्तुत की जाती है। हमारे देश में समय-समय पर आर्य ,शक, हूण ,यवन, तुर्क ,मुगल आदि अनेक लोग आए। शुरू -शुरू में लड़ाइयां हुई पर मेल मिलाप के बाद जब दो संस्कृतियां लम्बे समय तक एक साथ चलती हैं तो एक दूसरे की रीति रिवाज परम्पराओं और भाषा का भी अदान प्रदान होकर घाल मेल होता है। एवं फिर बन जाती है एक (साझी संस्कृति ) जो कालांतर में साझी बिरासत का रूप भी ग्रहण कर लेती है।

इस साझी विरासत को हमारी बोली भाषा, गीत संगीत,खान पान ,पहनावा आदि सभी में स्पस्टस्पष्ट बिरासत और भाई चारा ही देश के लिए जरूरी भी है।

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