आधुनिक हिंदी साहित्य के महानायक डॉ धर्मवीर भारती

साहित्य में जब प्रेम की बात होगी, तो बात होगी ‘गुनाहों का देवता’ की और गुनाहों का देवता का जिक्र होगा तो साथ में जिक्र होगा, एक पत्रकार, संपादक, कवि, निबंधकार और उपन्यासकार रहे डॉ धर्मवीर भारती का। भारती जी का जन्म 25 दिसंबर 1926 को तब के यूनाइटेड प्रोविंस के इलाहाबाद में हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और वहीं अध्यापन कार्य भी किया। लेकिन कॉलेज के दिनों से ही वह पत्रकारिता से जुड़े हुए थे, और सुप्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग के लंबे समय तक संपादक भी रहे। 1972 में भारत सरकार ने उन्हें पदमश्री से सम्मानित किया और 1988 में साहित्य नाटक अकादमी पुरस्कार से भी उन्हें सम्मानित किया गया था।

आधुनिक युग के महान साहित्यकार धर्मवीर भारती ने कई उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, रिपोर्ताज, आलोचना, यात्रावृतांत और नाटक लिखे। उनमें से गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोडा, ग्यारह सपनों का देश कुछ प्रमुख उपन्यास हैं। साँस की कलम से, मुर्दों का गाँव और स्वर्ग और पृथ्वी उनके कुछ प्रमुख कहानी संग्रह हैं। इसके अलावा अंधायुग और नदी प्यासी है नाटक प्रसिद्ध हैं। उन्होंने कविताएँ भी लिखी हैं, बतौर कवि उनकी रचनाएँ ‘दूसरा तार सप्तक’ में प्रकाशित हुईं। पर उन्होंने गद्य साहित्य ही ज्यादा रचा। काव्य रचना के लिए उनका मानना था, कविता की कसौटी इतना व्यापक बनाना होगा कि वह सभी अतिनवीन अनुभूतियों की अपनी बाँहों में घेरती हुई मानव की चिर आदिम प्रवृत्तियों का मर्म छू सके। उनकी रचनाओं की शैली भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक आलोचनात्मक और हास्य व्यंग्यात्मक है। भाषा की शैली तद्भव प्रवाह की खड़ी बोली है।

धर्मयुग के संपादक रहते सुप्रसिद्ध गजलकार दुष्यंत कुमार के साथ उनके काव्यात्मक पत्रों से मीठी नोकझोंक का भी पता चलता है।

एक बार दुष्यंत कुमार जी ने लेखकों को मिलने वाले कम पारिश्रमिक को लेकर
शिकायती लहजे में एक ग़ज़ल लिखी थी। यह ग़ज़ल उन्होंने तब के ‘धर्मयुग’ पत्रिका के
संपादक धर्मवीर भारती के नाम लिखी थी। ग़ज़ल की पंक्तियाँ कुछ यूँ थीं –


पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर

कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका
वे हंस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप

शी! होंठ सिल के बैठ गए, लीजिए हुजूर


इस पत्र का जवाब धर्मवीर भारती जी ने भी ने अनोखे अंदाज़ में ही दिया था –

जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर

ये ‘धर्मयुग’ हमारा नहीं सबका पत्र है
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर

भोपाल इतना महंगा शहर तो नहीं कोई
महंगाई का बांधते हैं हवा में किला हुज़ूर

पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर

इन दोनों ही पत्रों को या कहें ग़ज़लों को बाद में धर्मयुग में प्रकाशित भी किया गया था।

उनकी सदाबाहर रचना ‘गुनाहों का देवता’ के अतिरिक्त उनका ‘सूरज का सातवां का घोड़ा’ नाम का एक और उपन्यास है, जिस पर श्याम बेनेगल ने इसी नाम से एक फिल्म भी बनाई थी। ‘अंधायुग’ महाभारत को केंद्र में रखकर आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर लिखा गया एक उत्तम नाटक है। बाबू देवकीनंदन खत्री जिस तरह चंद्रकांता लिखकर अमर हो गए, चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ जिस तरह ‘उसने कहा था’ लिखकर अगर कुछ न भी लिखते तो भी उनका यश साहित्य में ऐसे ही रहता। उसी तरह धर्मवीर भारती भी अगर ‘गुनाहों का देवता’ के बाद कुछ न लिखते फिर भी साहित्य जगत में वह अमर ही रहते।




































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