21वीं सदी की सबसे बड़ी और जटिल चुनौतियों में से एक है—पूरे विश्व को स्वच्छ ऊर्जा की ओर ले जाना, बिना इसके कि विकासशील देशों की आर्थिक गति बाधित हो। यह केवल तकनीकी या पर्यावरणीय प्रश्न नहीं है, बल्कि यह एक बहुआयामी चुनौती है जिसमें ऐतिहासिक जिम्मेदारी, आर्थिक न्याय, सामाजिक संरचनाएँ और वैश्विक नीति-निर्माण की संवेदनशीलता गहराई से जुड़ी हुई हैं।
ऊर्जा और विकास में एक अपरिहार्य संबंध है।
विकासशील देशों के लिए ऊर्जा केवल बिजली या ईंधन नहीं है, यह उनके आर्थिक और सामाजिक विकास की रीढ़ है। ऊर्जा से उद्योग चलते हैं, स्कूलों में रोशनी होती है, अस्पतालों में उपकरण कार्य करते हैं, और महिलाएँ, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में, धुएँ से मुक्त रसोईघर में सुरक्षित खाना बना सकती हैं। इसके बिना कोई भी सतत विकास की कल्पना नहीं कर सकता।
इन देशों की स्थिति एक कठिन चौराहे पर है। एक ओर उन्हें गरीबी, बेरोजगारी, और बुनियादी सेवाओं की कमी से जूझती हुई जनसंख्या को ऊपर उठाना है, जिसके लिए ऊर्जा की भारी मांग है। दूसरी ओर, जलवायु परिवर्तन की वैश्विक आपदा को रोकने के लिए उन पर जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में कटौती का दबाव डाला जा रहा है। यह असंतुलन एक गहरे जलवायु अन्याय को जन्म देता है।
जब हम जलवायु परिवर्तन की बात करते हैं, तो यह ध्यान रखना आवश्यक है कि आज जो संकट हमारे सामने है, वह हाल ही में पैदा नहीं हुआ है। औद्योगिक क्रांति के बाद से जिन देशों ने कोयले, तेल और गैस का असीमित दोहन कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को समृद्ध किया, वही अब जलवायु परिवर्तन के मुख्य जिम्मेदार हैं। वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की जो भारी मात्रा मौजूद है, वह मुख्यतः उन्हीं की देन है।
इसके विपरीत, विकासशील देशों ने अब तक विकास के उस स्तर को छुआ भी नहीं है, और अब जब वे उन्नति की ओर बढ़ रहे हैं, तो उन पर कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए बाध्य किया जा रहा है। यह स्थिति न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि उनके विकास की गति को धीमा कर सकती है, जिससे सामाजिक असमानता और बढ़ेगी।
ऊर्जा संक्रमण: तकनीकी नहीं, नैतिक चुनौती है।
यह स्पष्ट है कि ऊर्जा संक्रमण केवल तकनीकी सवाल नहीं है—यह एक नैतिक प्रश्न है। क्या वैश्विक समुदाय यह स्वीकार करता है कि सभी देशों को समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए, या फिर वह विकासशील देशों को जलवायु संकट का समाधानकर्ता बना देना चाहता है, जबकि वे इसके उत्पत्ति-कारक नहीं थे? इस दुविधा का समाधान केवल वैज्ञानिक डेटा से नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी निकलना चाहिए।
हाल के वर्षों में अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जलवायु न्याय और हरित संक्रमण की बातें की गई हैं। पेरिस समझौता, COP सम्मेलन, और ग्रीन क्लाइमेट फंड जैसे पहल इसका उदाहरण हैं। लेकिन अधिकांश प्रयास घोषणाओं और वादों तक सीमित रह जाते हैं।
यदि हम सच में परिवर्तन लाना चाहते हैं, तो वैश्विक साझेदारी को ज़मीनी हकीकत में तब्दील करना होगा। विकसित देशों को हरित वित्त, तकनीकी सहायता और नवाचारों को साझा करने में आगे आना होगा। “क्लाइमेट फाइनेंस” को ऐसी योजनाओं में निवेश करना चाहिए जो विकासशील देशों की ज़रूरतों के अनुरूप हों—जैसे सौर ऊर्जा आधारित ग्रामीण विद्युतीकरण, पवन ऊर्जा से जुड़े लघु उद्योग, या जैविक कचरे से ऊर्जा उत्पादन।
वित्तीय सहायता के साथ-साथ विकासशील देशों को तकनीकी आत्मनिर्भरता की दिशा में भी प्रोत्साहन देना चाहिए। जब तक ये देश नई ऊर्जा तकनीकों के केवल उपभोक्ता बने रहेंगे, तब तक उनकी स्थिति कमजोर बनी रहेगी। उन्हें इन तकनीकों के निर्माण, रखरखाव और नवाचार की क्षमता विकसित करनी होगी।
भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों ने इस दिशा में कुछ प्रभावशाली कदम उठाए हैं—जैसे भारत का राष्ट्रीय सौर मिशन या अफ्रीका में बढ़ता सोलर माइक्रोग्रिड नेटवर्क। ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि विकासशील देश न केवल परिवर्तन को अपना सकते हैं, बल्कि नवाचारों के अगुआ भी बन सकते हैं—यदि उन्हें अवसर और सहयोग मिले।
जलवायु शिक्षा और जनजागरूकता की महती आवश्यकता है।
ऊर्जा संक्रमण के सफल कार्यान्वयन के लिए केवल नीति और तकनीक ही पर्याप्त नहीं हैं; जनसाधारण की भागीदारी भी उतनी ही आवश्यक है। जलवायु शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करना, स्थानीय भाषाओं में जागरूकता अभियान चलाना, और युवाओं को हरित नवाचारों में प्रशिक्षण देना इस परिवर्तन को टिकाऊ बना सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ स्थानीय स्वयंसेवी संगठन लोगों को सौर ऊर्जा के लाभ और संचालन के बारे में प्रशिक्षण दे रहे हैं। इससे न केवल उनकी आजीविका में सुधार हुआ है, बल्कि उन्होंने अपने गाँवों को ऊर्जा आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया है।
ऊर्जा संक्रमण के इस संघर्ष में स्थानीय ज्ञान, परंपराएँ और सांस्कृतिक दृष्टिकोण की अनदेखी नहीं की जा सकती। विभिन्न समुदायों ने सदियों से प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर जीवन जिया है। उनके पास ऐसे समाधान हैं जो कम संसाधनों में अधिक प्रभावी हो सकते हैं।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बायोगैस संयंत्र, नेपाल की जलविद्युत इकाइयाँ, केन्या के सोलर कूकर्स, या घाना में बनाए गए स्थायी ईंधन वाले चूल्हे ऐसे ही नवाचार हैं जिनमें तकनीक, संस्कृति और सामुदायिक सहभागिता का अद्भुत संगम है। इन्हें मुख्यधारा की ऊर्जा नीति में शामिल करना आवश्यक है।
नीति निर्माण में समुदायों की बड़ी भागीदारी होती है।
ऊर्जा नीतियाँ अक्सर ऊपरी स्तर पर बनाई जाती हैं और उनका प्रभाव सबसे अधिक निम्नस्तर के लोगों पर होता है। इस असंतुलन को दूर करना आवश्यक है। ऊर्जा नीति निर्माण में स्थानीय समुदायों, विशेषकर महिलाओं और युवाओं, की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।
जब एक गाँव की महिला अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को नीति-निर्माताओं तक पहुँचा सकती है, तभी नीतियाँ वास्तव में लोकतांत्रिक और न्यायसंगत बन सकती हैं। यह केवल सैद्धांतिक विचार नहीं है—यह वह ढांचा है जिसमें वास्तविक, टिकाऊ और समावेशी परिवर्तन संभव है।
संपूर्ण ऊर्जा संक्रमण प्रक्रिया में विज्ञान की भूमिका निर्णायक है। वैज्ञानिक अनुसंधान यह दर्शाते हैं कि यदि ऊर्जा प्रणाली में चरणबद्ध और रणनीतिक बदलाव किए जाएँ, तो न केवल जलवायु संकट को कम किया जा सकता है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक प्रगति भी सुनिश्चित की जा सकती है।
नई तकनीकें—जैसे बैटरी भंडारण, ग्रीन हाइड्रोजन, स्मार्ट ग्रिड और ऊर्जा दक्षता वाली इमारतें—केवल प्रयोगशालाओं में सीमित नहीं रहनी चाहिए। उन्हें जन-जन तक पहुँचाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक निवेश की आवश्यकता है।
ऊर्जा संकट केवल आंकड़ों का विषय नहीं, बल्कि मानवीय पीड़ा का प्रतिबिंब है। जब एक बच्चा अंधेरे में पढ़ाई नहीं कर पाता, जब कोई मरीज बिना बिजली के अस्पताल में पीड़ा झेलता है, या जब एक महिला घंटों लकड़ी बटोरने में लगती है—तब यह संकट हमें चेताता है कि ऊर्जा एक मानव अधिकार है।
इसलिए, ऊर्जा प्रणाली का पुनर्गठन केवल वैज्ञानिक या पर्यावरणीय दायित्व नहीं है, यह मानवता के प्रति हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।
स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण एक वैश्विक सामाजिक अनुबंध है। यह अनुबंध तभी सफल हो सकता है जब उसमें ऐतिहासिक अन्याय की स्वीकारोक्ति, वर्तमान यथार्थ की समझ, और भविष्य की जिम्मेदारी का संतुलन हो।
विकसित देशों को केवल नीतियाँ बनाने तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि उन्हें अपने वादों को पूरा करना होगा—वित्तीय सहयोग, तकनीकी साझेदारी और न्यायपूर्ण सहयोग के रूप में।
विकासशील देशों को “समस्या” नहीं, बल्कि “साझेदार” के रूप में देखा जाना चाहिए—ऐसे साझेदार जो अपने भीतर अपार संभावनाएँ रखते हैं, जिनके पास नवाचार, साहस और लचीलेपन की शक्ति है।
यदि वैश्विक समुदाय मिलकर चले—विज्ञान की दिशा में विश्वास, न्याय की भावना और साझेदारी की भावना के साथ—तो यह ऊर्जा संक्रमण न केवल जलवायु संकट का समाधान बनेगा, बल्कि यह एक ऐसे विश्व की नींव रखेगा जो अधिक न्यायपूर्ण, टिकाऊ और मानवीय होगा। यही वह भविष्य है जिसकी ओर हमें अग्रसर होना चाहिए—संवेदनशीलता, समावेश और सह-अस्तित्व के साथ।
इस ऊर्जा संक्रमण की प्रक्रिया में एक और महत्वपूर्ण आयाम है—स्थानीय नवाचारों को वैश्विक नीति में स्थान देना। अक्सर यह देखा गया है कि नीति निर्धारक ऊँचे तकनीकी समाधानों की ओर आकर्षित होते हैं, जबकि ज़मीनी स्तर पर मौजूद लघु समाधान अधिक व्यावहारिक और प्रभावशाली होते हैं। उदाहरण के लिए, भारत के कुछ गाँवों में युवाओं ने कबाड़ से सोलर पैनल बनाकर पूरे गाँव को रोशन किया, या अंडमान के द्वीपों में समुद्री जल से ऊर्जा उत्पन्न करने की लघु तकनीक विकसित की गई।
ये पहल दर्शाती हैं कि परिवर्तन की चिंगारी कहीं से भी उठ सकती है, और यदि उन्हें उचित संसाधन और मार्गदर्शन मिले तो वे पूरे क्षेत्र की दिशा बदल सकती हैं। यही वह दृष्टिकोण है जो वैश्विक ऊर्जा नीति को अपनाना चाहिए—नीचे से ऊपर की ओर दृष्टिकोण (बॉटम अप अप्रोच)। इससे न केवल ऊर्जा की आपूर्ति सुचारु होगी, बल्कि यह सामाजिक सशक्तिकरण और स्थानीय रोजगार को भी बढ़ावा देगा।
इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि ऊर्जा योजनाओं में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की भावना हो। जनता को यह जानने और तय करने का अधिकार होना चाहिए कि उनके क्षेत्र में किस प्रकार की ऊर्जा परियोजनाएँ लागू हो रही हैं, उनका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और उससे उन्हें क्या लाभ मिलेगा। जब समुदाय अपने ऊर्जा भविष्य का स्वयं निर्धारण करता है, तब वह भविष्य अधिक टिकाऊ, न्यायसंगत और सबके लिए हितकारी बनता है। इसीलिए, ऊर्जा परिवर्तन की यह यात्रा तकनीक और धन के साथ-साथ विश्वास, सहभागिता और समानता पर भी आधारित होनी चाहिए।
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