A Love Story-That Shakes the Soul of Youth The Saiyara Movie – आज की फिल्म सैयारा भावनाओं की नदी में बहती दो पीढ़ियों की प्रेमगाथा जान पड़ी है, हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म “सैयारा” के दौरान सिनेमा हॉल में बैठे युवाओं की सामूहिक सिसकियों ने पर्दे से उतरकर दर्शकों की छाती तक दस्तक दी, तो यह दृश्य कई अनुभवी दर्शकों को 1973 में आई राज कपूर की ‘बॉबी’ की याद दिला गया। उस दौर में भी कुछ वैसा ही भावनात्मक तूफान उठा था जब तत्कालीन किशोरावस्था ने एक युवा प्रेम कहानी, संगीत की मिठास और सामाजिक टकरावों की सीधी लेकिन गूंजदार प्रस्तुति को देखा ,फिल्म ‘सैयारा’ को देख रहे युवाओं के मूक रुदन ने थियेटर में कुछ वैसा ही माहौल बना दिया। ‘बॉबी’ और सैयारा – दोनों ही फिल्मों में समय अलग था, लेकिन भावनात्मक जमीन एक-सी है यानी जैसी तब थी वैसी आज भी है। मासूम प्रेम का उदात्त संघर्ष, जो हर उम्र के दिल को छू लेता है।
राज कपूर का साहसिक मोड़ ‘मेरा नाम जोकर’ से ‘बॉबी’ तक का सफ़र
तत्कालीन समय में राज कपूर ने फिल्म बॉबी को महज़ एक फिल्म नहीं, बल्कि अपना आर्थिक और सृजनात्मक पुनर्जन्म बनाया था। सन सत्तर में जब ‘मेरा नाम जोकर’ जैसी क्लासिक लेकिन असफल प्रयोगधर्मी फिल्म से राज कपूर कर्ज में डूब गए, तब उन्होंने यह जाना कि कला के साथ-साथ बाजार की नब्ज़ को भी समझना ज़रूरी है। पौने दो करोड़ की लागत वाली जोकर केवल साठ लाख ही वापस लौटा सकी। यह उस दौर के लिहाज से विनाशकारी घाटा था। ऐसे कठिन समय में राज कपूर ने अपना मास्टर-स्ट्रोक खेला रोमांस और संगीत का मेल और गढ डाली ‘बॉबी’ नाम की प्रेम प्रेरणा ,जो न सिर्फ उनकी प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित करने वाली बनी बल्कि बॉलीवुड के परिदृश्य को ही बदल गई।
नई पीढ़ी की दस्तक -जब नवोदित चेहरे बन गए ट्रेंड-सेटर
राज कपूर ने तब दो बिलकुल नए चेहरों को चुना था ऋषि कपूर और डिंपल कपाड़िया बिल्कुल वैसा ही कुछ सैयारा में भी देखने को मिला, नयी उम्र, नयी ऊर्जा और स्वाभाविक अभिनय शैली ने दर्शकों के मन में ताजगी की लहर भर दी। ऋषि का चॉकलेटी चार्म और डिंपल की मासूम पर आत्मविश्वासी छवि ने हर युवा दिल की नब्ज़ को छू लिया। बॉबी की कहानी सरल थी, लेकिन उसकी प्रस्तुति में जो नयापन था, वही उसे कालजयी बना गया। कहना हालत नहीं होगा की सैयारा मूवी भी इन्हीं मापदंडों पर खरी उतरती है।
संगीत-जब हर धुन दिल की बात बन गई
लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का मधुर संगीत, आनंद बख्शी के बोल, लता मंगेशकर और शैलेन्द्र सिंह की मोहक आवाज़ें, इन सभी ने मिलकर बॉबी को सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक संगीत अनुभव में तब्दील कर दिया था । गीत “हम तुम इक कमरे में बंद हों…” हो,या “मैं शायर तो नहीं…”हर धुन उस दौर के प्रेमियों की धड़कन बन गई।
फिल्म सैयारा हो या बॉबी कहानी का समाजशास्त्र-वर्ग, संघर्ष और बालहठ की सिनेमाई अभिव्यक्ति
बॉबी की कहानी कोई नई नहीं थी ,एक अमीर लड़का और गरीब लड़की का प्रेम, जो सामाजिक असमानताओं की दीवार से टकराता है। लेकिन राज कपूर ने इस साधारण कथानक को बालहठ, वर्ग संघर्ष और भावनात्मक आवेग के सुंदर सम्मिश्रण से असाधारण बना दिया। फिल्म में प्रेम चोपड़ा का नकारात्मक किरदार, प्राण और प्रेमनाथ जैसे वरिष्ठ कलाकारों की गहराई और संवादों की स्पष्टता ने कहानी को मजबूत कंधे दिए जो न सिर्फ युवाओं बल्कि हर आयु वर्ग को पसंद आया जबकि सैयारा फिलहाल यंग दायरे में ही हिचकोले खा रही है।
लोकप्रियता का विस्फोट जब बॉबी बन गई हर दिल की धड़कन
टिकट खिड़की पर बॉबी ने इतिहास रचा , थिएटरों में धक्का-मुक्की, ब्लैक टिकटें, रिकॉर्डतोड़ भीड़ और बच्चों से लेकर बूढ़ों तक हर उम्र के लोगों में उन्माद। हर लड़की डिंपल की पोलका डॉट ड्रेस और हेयर स्टाइल अपनाने लगी, तो हर लड़का खुद को ऋषि की मोटरसाइकिल पर सवार देखने लगा। ये सपने केवल सपने न रहे ,कई युवाओं ने इसी प्रेरणा से जीवन में बदलाव लाने का बीड़ा उठाया। एक नौ साल का बच्चा, जो तब बॉबी के जादू में डूबा था,आज सरकारी अफसर बन चुका है वैसा जादुई रंग कहे की पागलपन सैयारा के दीवानों में नज़र नहीं आया।
सैयारा’ और ‘बॉबी’ एक भावना भूमि दो अलग-अलग पीढ़िया
भले ही बॉबी की तरह बॉक्स ऑफिस में सैयारा और बॉबी उन्नीस – बीस रहीं लेकिन एक लम्बे अंतराल के बाद ‘सैयारा’ ने आज के समय में वही किया जो बॉबी ने 70 के दशक में किया था। दोनों फिल्मों ने साबित किया कि प्रेम की मासूम अभिव्यक्ति, जब सही संगीत, संवाद और अभिनय से पिरोई जाए, तो पीढ़ियों को जोड़ने वाली कड़ी बन जाती है। ‘सैयारा’ के दृश्य जब बच्चों को रुला रहे थे, तो वे शायद समझ भी नहीं पा रहे थे कि भावनाओं का यह ज्वार पहली बार नहीं आया है, बल्कि वर्षों पहले ‘बॉबी’ भी ऐसा ही तूफ़ान लेकर आई थी।
विशेष :- जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं, सामाजिक संवाद बन जाए
‘बॉबी’ और ‘सैयारा’ जैसी फिल्में सिर्फ कहानियां नहीं होतीं ,वे सामाजिक मनोविज्ञान के आईने बन जाती हैं। जहां एक ओर वे प्रेम के अधिकार और स्वतंत्रता की आकांक्षा को स्वर देती हैं, वहीं दूसरी ओर वे समाज के पुरातन सोच को चुनौती भी देती हैं। किशोर – किशोरियों की सामूहिक सिसकियां हों या बुजुर्गों की नमी भरी आँखें , ये सब इस बात का प्रमाण हैं कि सच्चा सिनेमा दिल में उतर जाता है, और वहीं घर भी बना लेता है और विशेष यह भी की कौन कहता है की पसंद बदल चुकी है ,हाँ वही स्वाद आप परोस के तो देखो बॉबी से सैयारा के बीच बनीं खाई पाट क्र ब्रिज बन सकती है।